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बहरेपन का बढि़या इलाज

संपादकीय ब्लॉग
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अन्ना के आंदोलन के बाद राजनीतिक नेतृत्व से आम जनता की जानबूझकर अनदेखी करने की प्रवृत्ति त्यागने की अपेक्षा कर रहे है राजीव सचान


Rajeev Sachanजब ट्यूनीशिया, मिश्च और कुछ अन्य अरब देशों के लोग अपने-अपने यहां की व्यवस्था से आजिज आकर सड़कों पर उतरे तो दुनिया के साथ-साथ भारत भी हैरत से यह देख और सोच रहा था कि क्या ऐसा ही कुछ उसके यहां हो सकता है? जब अन्ना हजारे अप्रैल में जंतर-मंतर पर धरने पर बैठे और उनके समर्थकों की भारी भीड़ उमड़ी तो कई लोग खुद को यह कहने से नहीं रोक पाए कि जंतर-मंतर तहरीर चौक बन गया है। जब अन्ना गिरफ्तार होने के बाद रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे और उनके समर्थन में देश भर में लोग एकजुट हो गए तो किसी को याद नहीं रहा कि अरब देशों में क्या और कैसे हुआ था, लेकिन 16 अगस्त से लेकर 27 अगस्त तक दिल्ली और शेष देश में जो कुछ हुआ वह अगर क्रांति नहीं तो उसके असर से कम भी नहीं। गांधी के देश में क्रांति का ऐसा ही स्वरूप हो सकता था। व्यवस्था परिवर्तन की यह पहल देश में एक नए जागरण की सूचक है। इसे सारी दुनिया ने महसूस किया। वह चकित और चमत्कृत है तो भारत के लोग एक नए अहसास से भरे हुए हैं। यह तब है जब यथार्थ के धरातल पर कुछ भी नहीं बदला। लोगों को सिर्फ संसद का यह संदेश मिला है कि वह एक कारगर लोकपाल बनाने के लिए अन्ना के तीन बिंदुओं पर सिद्धांतत: सहमत है। इस सबके बावजूद बहुत कुछ बदल गया है।


सबसे बड़ा बदलाव यह है कि राजनीतिक नेतृत्व को यह समझ में आ गया कि वह जनता के सवालों का सामना करते समय संसद की आड़ में नहीं छिप सकता। देश ने यह अच्छी तरह देख लिया कि राजनीतिक नेतृत्व जानबूझकर बहरा बना हुआ था। उसने यह भी देखा कि कारगर लोकपाल के सवाल पर पहले सरकार ने संसद की आड़ ली और फिर विपक्ष भी उसके साथ हो लिया। इसी कारण अन्ना के आंदोलन पर बुलाई गई सर्वदलीय बैठक नाकाम हो गई। संसद ने देश को सिर्फ यह भरोसा दिया है कि वह लोकपाल कानून में अन्ना की ओर से उठाए गए तीन बिंदुओं को यथासंभव समाहित करेगी, लेकिन कुछ नेताओं और दलों की ओर से ऐसी प्रतीति कराई जा रही है जैसे संसद से कोई गैर कानूनी काम जबरन करा लिया गया। यदि संसद वैसा प्रस्ताव पारित नहीं कर सकती जैसा 26 अगस्त को पारित किया गया तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि वह जन भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती है? अन्ना के आंदोलन को खारिज करने के लिए राजनीतिक और गैर-राजनीतिक लोगों की ओर से तरह-तरह के कुतर्क दिए गए। किसी ने कहा कि अन्ना का आंदोलन केवल मध्यवर्ग के लोगों का आंदोलन है। क्या मध्यवर्ग इस देश का हिस्सा नहीं? क्या वह अवांछित-अराजक तबका है? किसी ने यह सवाल उछाला कि अन्ना अन्य मुद्दों पर क्यों नहीं बोल रहे? क्या सरकार या संसद ने अन्ना को यह जिम्मेदारी सौंप रखी है कि वह सभी ज्वलंत मुद्दों पर समान रूप से ध्यान देंगे? यदि सभी मुद्दों पर बोलने की जिम्मेदारी अन्ना की है तो राजनीतिक दल किसलिए हैं? कुछ लोगों ने कहा कि अन्ना की कोर कमेटी में दलित-पिछड़े नहीं हैं। क्या कांग्रेस और अन्य सभी दलों की कोर कमेटियों में दलित-पिछड़े हैं?


किसी ने कहा अन्ना गांधीवादी नहीं हैं, क्योंकि गांधीजी अपनी बात मनवाने के लिए अनशन नहीं करते थे। तथ्य यह है कि गांधीजी ने अपने जीवनकाल में कई बार अपनी न्यायसंगत बातें मनवाने के लिए ही अनशन किए। जिस मामले को 42 साल से टाला जा रहा हो उसे और टलते हुए देखकर यदि अन्ना अनशन पर बैठ गए तो यह कोई अपराध नहीं। पिछले पांच माह की सरकार की कार्यशैली यह बताती है कि वह अन्ना और आम जनता को फिर से धोखा देने के फिराक में थी। यदि वह सक्षम लोकपाल के प्रति ईमानदार होती तो जनता को चिढ़ाने वाले लोकपाल विधेयक को तैयार नहीं करती। यह अच्छी बात नहीं कि विपक्ष की ओर से खारिज किए जाने के बाद भी सरकारी लोकपाल विधेयक स्थायी समिति से वापस नहीं लिया गया।


अन्ना के आंदोलन को यह कहकर भी खारिज करने की कोशिश की गई कि ओमपुरी, किरण बेदी ने तो नेताओं पर कुछ ओछे आरोप लगाए ही, आंदोलनकारियों ने भी उनके खिलाफ भद्दे नारे लगाए। नि:संदेह ये आरोप और नारे अरुचिकर थे और उनकी आलोचना उचित है, लेकिन क्या मुद्दा यह था कि अन्ना समर्थक लोग नेताओं के प्रति कैसे नारे लगा रहे हैं? अन्ना की पहल को खारिज करने का काम राहुल गांधी ने भी किया। उन्होंने जिस तरह गलत समय पर अपने सही सुझाव रखे उससे देश को गहरी निराशा तो हुई ही, प्रधानमंत्री की पहल भी खटाई में पड़ती दिखी। आखिर वह अपने सुझाव अपनी ही सरकार को तब क्यों नहीं दे सके जब लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार हो रहा था? बेहतर होता कि टीम अन्ना अपने आलोचकों के प्रति सहिष्णु होती, क्योंकि ऐसा नहीं है कि अन्ना के आंदोलन में कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे असहमत न हुआ जा सकता हो। उन्होंने अपनी मांग सामने रखने के साथ ही जिस तरह समय सीमा तय कर दी वह उनके आंदोलन का अलोकतांत्रिक पक्ष था। हालांकि उनके समर्थकों का तर्क है कि यदि वह ऐसा नहीं करते तो शायद सरकार एक बार फिर उन्हें धोखा देती। पता नहीं ऐसा होता या नहीं, लेकिन यह तथ्य है कि संसद से पारित किए जाने वाले प्रस्ताव को आखिरी समय तक कमजोर करने की कोशिश की गई। यदि अन्ना की ओर से अपनी मांगों के संदर्भ में समय सीमा तय करने के बावजूद जनता उनके समर्थन में उतर आई तो इसका मतलब है कि उसे सरकार की नीयत पर भरोसा नहीं रह गया था। अब इस भरोसे की बहाली होनी चाहिए। सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्ष के लिए भी यह आवश्यक है कि वह जानबूझकर ऊंचा सुनने की प्रवृत्ति छोड़े, क्योंकि जनता को इस मर्ज का इलाज पता चल गया है।


लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं


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