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[Kashmir Issue] तुष्टीकरण के कारण लगी है घाटी में आग

संपादकीय ब्लॉग
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[कश्मीर में जारी अशांति के संदर्भ में जागरण के सवालों के जवाब दे रहे हैं पूर्व राज्यपाल ले. ज. एसके सिन्हा]


Shri S. K. Sinhaजम्मू-कश्मीर में सर्वदलीय बैठक बुलाकर आग बुझाने के प्रयास शुरू हो चुके हैं, लेकिन असम और जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल रहे लेफ्टिनेंट जनरल श्रीनिवास कुमार सिन्हा इस तरह की बातचीत के बहुत दूरगामी सकारात्मक परिणाम नहीं देखते। दो दशक से ज्यादा समय तक बतौर सैन्य अधिकारी रहे और राज्यपाल के रूप में जम्मू-कश्मीर को भी करीब से देखने वाले सिन्हा साफ कहते हैं कि बातचीत से ज्यादा जरूरत जमीन पर कार्रवाई करने की है। जम्मू-कश्मीर की असली समस्या है मजहबी कंट्टरता की नींव पर अलगाववाद का जिन्न। दो साल पहले अमरनाथ यात्रियों के लिए जमीन आवंटन के मुद्दे पर बिगड़े हालात के समय जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे एसके सिन्हा से दैनिक जागरण के विशेष संवाददाता राजकिशोर ने खुलकर बातचीत की। पेश है उसके अहम अंश-


घाटी फिर जल रही..जिम्मेदार कौन.?


सबसे पहले हमारी गलत नीतियां.1947 से ही हमारे हुक्मरानों ने गलत फैसले लिए। सच्चाई से कटते रहे। सच से भागते रहे तो कोई स्पष्ट नीति ही हम नहीं बना सके।


कैसी सच्चाई?


जम्मू-कश्मीर की मूल समस्या है मजहबी कंट्टरता। जरूरत उसके स्रोतों यानी अलगाववादियों और ऐसी ताकतों पर प्रहार की है, लेकिन हम तो सिर्फ तुष्टीकरण की नीति पर चलते रहे।

आपका मतलब है कि बातचीत नहीं होनी चाहिए?


नहीं, बात आप खूब करें, लेकिन पहले अपनी नीति तो बनाएं। कोई रोडमैप तो हो। दिल-दिमाग जीतने की कोई भी कोशिश तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक कि माहौल खराब करने वाले राष्ट्रद्रोही तत्वों पर सख्त कार्रवाई न की जाए।


उमर अब्दुल्ला ने सर्वदलीय बैठक बुलाई है। क्या इसकी जरूरत नहीं है?


नहीं, बैठक करें। लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है कि जिन लोगों की वजह से घाटी के हालात बिगड़े हैं, पहले उन पर जमीनी कार्रवाई हो। माहौल बिगाड़ने वालों पर सख्ती करें तो अपने आप बातचीत का वातावरण तैयार होगा।


अशांति की तात्कालिक वजह आप क्या मानते हैं?


तुष्टीकरण की नीति। कश्मीरियों को ही नहीं, पाकिस्तानियों और अमेरिका सबको खुश रखने का रवैया। इस वजह से सीमा पार और अलगाववादी ताकतों ने मजहबी कंट्टरता को बढ़ाया और पूरा माहौल विषाक्त कर दिया। सैय्यद अली शाह गिलानी का हाथ बिल्कुल सामने है, लेकिन उसे गिरफ्तार करने की बात ही नहीं हो रही।


तो आपका कहना है कि सरकार अपनी प्रशासनिक ताकत का प्रयोग नहीं कर रही?

आपके सामने है। अरे भाई सुरक्षा बलों पर जब पथराव होगा तो क्या वे बदले में माला पहनाएंगे? मगर कोसा सुरक्षा बलों को जाता है। क्या सेकुलर मीडिया और क्या राजनीतिज्ञ कोई भी सही बात नहीं करना चाहता। जबकि असलियत यह है कि अगर जम्मू-कश्मीर में हालात काबू आए हैं तो वह सेना और सुरक्षा बलों की वजह से ही।


मगर सेना और सुरक्षा बलों पर कश्मीर में मानवाधिकार हनन के आरोप लगातार लगते रहे हैं?


यह एक कुप्रचार है, जिसे सबसे ज्यादा बढ़ावा दिया है अलगाववादी और तथाकथित सेकुलर मीडिया ने। दुनिया की किसी भी सेना की तुलना में भारतीय सेना का मानवाधिकार रिकार्ड सबसे बेहतर है। पिछले 30 सालों में भारतीय सेना ने कश्मीर में कभी तोपखाने या हवाई ताकत का प्रयोग नहीं किया। कुप्रचार इतना है कि मानवाधिकार आयोग के सामने सेना की 1500 शिकायतें की गई। इसमें से 1400 को मानवाधिकार आयोग ने गलत पाया।

इसके बाद भी सेना या केंद्रीय सुरक्षा बलों पर घाटी के लोगों का अविश्वास क्यों है?

नहीं..चंद अलगाववादी नेताओं को हमारी व्यवस्था ने हावी होने दिया है। मजहबी कंट्टरता की नींव इतनी मजबूत हुई है कि ये अलगाववादी अवाम के बड़े हिस्से को बहकाने में कामयाब हो जाते हैं। वरना लोकतंत्र में लोगों की दिलचस्पी इस बात का सुबूत है कि वे भारत में ही रहना चाहते हैं। सरकार अगर इन अलगाववादी नेताओं को किनारे कर दे तो तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी।


मगर अलगाववादी नेताओं को किनारे करने के लिए भी तो बातचीत का रास्ता ही अपनाना पड़ेगा?


गुरेज बातचीत से नहीं है। सवाल है कि बातचीत कैसे हो, किन मुद्दों पर हो और किन लोगों से हो। मुद्दे तो खैर स्पष्ट हैं ही नहीं, उल्टे हो यह रहा है कि सरकार गिलानी और मीरवाइज जैसे अलगाववादी नेताओं को जबरन तरजीह देकर कश्मीरी मुस्लिमों के प्रवक्ता का रुतबा देती रही।

कैसे.?


गोलमेज वार्ताओं को ही देखिए। केंद्र ने 2007 में वार्ता बुलाई तो अलगावादी नखरे दिखाकर नहीं आए। फिर दोबारा 2008 में फिर बैठक आयोजित की तो मीरवाइज ने कह दिया कि वह ‘टॉम डिक हैरी’ के साथ नहीं बैठ सकता। इस तरह उसने केंद्र को नीचा दिखाया, जबकि खुद मीर वाइज की हैसियत एक सभासद का चुनाव जीतने की नहीं है। इसके बावजूद उसे हम नेता बनाने पर क्यों तुले हैं?


अगर ज्यादातर कश्मीरी अवाम अलगाववाद के पक्ष में नहीं है तो फिर इतने पत्थरबाज कहां से पैदा हो गए?


दो साल पहले याद करिए। उमर अब्दुल्ला जैसा युवा और पढ़ा-लिखा नेता भी अमरनाथ के मुद्दे पर बहक गया तो मजहबी कंट्टरता के चंगुल में फंसे कम पढ़े-लिखे लोगों की भावनाएं भड़काना तो सबसे आसान है।


एक बड़ा तबका घाटी की मौजूदा स्थिति के लिए उमर अब्दुल्ला सरकार को जिम्मेदार मान रहा है। कहा जा रहा है कि फारुक होते तो हालात इतने न बिगड़ते।


.हां फारुख अनुभवी हैं। वह शायद हालात संभाल लेते। मैं तो यह भी मानता हूं कि केंद्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार ने अपने नेता गुलाम नबी आजाद पर भी भरोसा करने के बजाय अलगाववाद की बात करने वाले मुफ्ती मोहम्मद सईद को ज्यादा तवज्जो देकर भी जम्मू-कश्मीर का भला नहीं किया।


क्या कारण है कि केंद्र सरकार हमेशा अलगाववादियों के प्रति नरम रुख अपनाती दिखती है?


एक अज्ञात भय उसे सताता रहता है। जब कश्मीर में आतंकवाद शुरू हुआ तो हमने सख्त कार्रवाई नहीं की। सेना को हम 400-500 गज आगे नहीं बढ़ने दे सके, क्योंकि डर था कि पाक के पास चोरी के परमाणु बम हैं। सरकार सिर्फ भारतीय कानून का ईमानदारी से पालन कराए तो कुछ दिक्कत नहीं होगी।


तो आपके हिसाब से समाधान क्या है?


जैसा मैंने पहले कहा कि तुष्टीकरण बंद करें। गलत तत्वों को सलाखों के पीछे डालें। हालात खुद सुधर जाएंगे।


आप भी राज्यपाल रहे तो इस दिशा में कुछ हुआ?


अपनी सीमाओं पर रहकर मैंने जो किया उसका बहुत फायदा हुआ। राज्य में 35 प्रतिशत हिंदू, बौद्ध और सिख हैं। इसके अलावा 20 फीसदी गुर्जर और बकरवाल हैं। इस 55 फीसदी समूह का अलगाववादियों से कोई लेना-देना नहीं। 45 फीसदी कश्मीरियों में ही कुछ तबका है जो अशांति फैलाता है। बस इस तथ्य को ध्यान में रखकर मैंने कुछ काम किया। कई अवरोध खड़े हुए, लेकिन आतंकवाद में कमी लाने में हम सफल रहे।

Source: Jagran Yahoo


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