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लोकपाल कानून बनाने का प्रारूप तैयार करने के लिए गठित संयुक्त समिति की आखिरी बैठक बिना किसी नतीजे के खत्म हो गयी. सरकारी सदस्यों और सिविल सोसायटी के बीच प्रारूप के स्वरूप को लेकर सहमति नहीं बन पाई. आखिरकार दो ड्राफ्ट तैयार किए गए जिसमें से एक में टीम अन्ना का मत शामिल है जबकि दूसरे में सरकार का. सरकार किसी भी हालत में मजबूत व सक्षम लोकपाल मशीनरी बनाने को तैयार नहीं जबकि सिविल सोसायटी इसके दायरे में प्रधानमंत्री सहित सभी सांसदों व उच्चतम न्यायपालिका को भी लाना चाहती है.
आज देश के सामने सवाल ये है कि आखिर क्यों सरकार जनहित की उपेक्षा करती नजर आ रही है. सरकार के सलाहकार मजबूत लोकपाल के विरुद्ध तर्क देते जा रहे हैं. उनका मत है कि एक मजबूत लोकपाल संवैधानिक रूप से उचित नहीं होगा और इससे संसदीय लोकतंत्र के सिद्धांतों का उल्लंघन हो सकता है. यहॉ तक कि अन्ना और उनके साथियों पर लोकतंत्र को अपहृत करने के आरोप भी लगाए जा रहे हैं.
संदेह होता है सरकार की नीयत पर. क्योंकर मजबूत लोकपाल जैसी भ्रष्टाचार पर प्रभावी लगाम लगाने की मशीनरी का विरोध किया जा रहा है जबकि पूरा देश भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है. आज जबकि देश में हर नागरिक की यही मंशा है कि किसी भी तरह भ्रष्टाचार खत्म हो ताकि विकास के लाभ आमजन को मिल सकें, ऐसे में कांग्रेस नीत सरकार का ये रवैया हतप्रभ करता है.
यदि सरकार को अपनी साख बचानी है और देश के बारे में कुछ बेहतर सोचना है तो उसे जनता की मांग पर ध्यान देना ही होगा, अन्यथा लोकतांत्रिक देश की जनता सरकार को सही दिशा देने में खुद ही सक्षम है.
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