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लोकपाल पर फिर तकरार

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Sanjay Guptसंसदीय समिति के लोकपाल मसौदे को संसद की भावना के विपरीत बता रहे है संजय गुप्त


लोकपाल को लेकर टीम अन्ना और केंद्र सरकार के बीच टकराव के आसार और बढ़ गए हैं। लोकपाल का मसौदा तैयार करने वाली संसदीय समिति की रपट पर टीम अन्ना को तो आपत्तिहै ही, अनेक विपक्षी दलों को भी है। आपत्तिका मुख्य कारण प्रधानमंत्री के साथ-साथ समूह तीन और चार के कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे से बाहर रखना है। आपत्तिका एक अन्य कारण सीबीआइ को लोकपाल के दायरे में लाने की सिफारिश न करना भी है। इस पर आश्चर्य नहीं कि इस समिति ने न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा, क्योंकि सभी दल ऐसा ही चाह रहे थे। संसदीय समिति ने लोकपाल पर अपनी जो रपट तैयार की है उसे संसद की भावना के अनुरूप कहना कठिन है। चूंकि लोकपाल रपट पर संसद में बहस के पहले केंद्रीय मंत्रिपरिषद को उस पर विचार करना है इसलिए बेहतर यह होगा कि वह टीम अन्ना के साथ-साथ आम जनता की भावनाओं को समझे। संसद के लिए भी यही उचित होगा कि वह कैबिनेट से मंजूर मसौदे पर खुलकर चर्चा करे। टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल की मानें तो संसदीय समिति की रपट खारिज करने योग्य है। उनके हिसाब से इस रपट पर आधारित लोकपाल व्यवस्था बनी तो इससे भ्रष्टाचार और बढ़ेगा। उन्होंने संसदीय समिति की रपट पर इसलिए भी सवाल उठाया है, क्योंकि उसके 16 सदस्यों ने उससे असहमति जताई है। इस समिति के 32 सदस्यों में से दो ने बैठकों में हिस्सा ही नहीं लिया। सरकार के लिए जनता को यह भरोसा दिलाना आवश्यक है कि वह वास्तव में एक मजबूत लोकपाल बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। अभी तो इस प्रतिबद्धता का अभाव ही नजर आ रहा है।


अन्ना हजारे ने लोकपाल की मांग को लेकर जब अनशन शुरू किया था तब राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े घोटाले सामने आ चुके थे और 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में घोटाले के आरोप सतह पर थे। बाद में यह एक बड़े घोटाले के रूप में सामने आया, लेकिन इस घोटाले का पर्दाफाश सरकार के बजाय सुप्रीम कोर्ट के दबाव में हुआ। बाद में राष्ट्रमंडल खेल घोटाले के आरोपियों की भी गिरफ्तारी हुई और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के आरोपियों की भी। सीबीआइ ने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के आरोपियों को महीनों तक जेल में रखने के बाद उनके खिलाफ चार्जशीट दाखिल कर दी है। अब देखना यह है कि वह अदालत में अपने आरोपों को सिद्ध कर पाती है या नहीं? सीबीआइ चाहे जैसा दावा क्यों न करे, उसकी छवि भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में लीपापोती करने वाली जांच एजेंसी की है। उसके बारे में यह धारणा भी आम है कि उसकी स्वायत्ताता दिखावटी है और वह केंद्र सरकार के दबाव में काम करती है। सभी को यह पता है कि केंद्र सरकार की राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से सीबीआइ ने किस तरह लालू यादव, मायावती और मुलायम सिंह पर कभी अपना शिकंजा कसा और कभी ढीला किया। यह जांच एजेंसी कभी इन नेताओं पर लगे आरोपों को गंभीर बताती रही और कभी उनसे पल्ला झाड़ती रही। विपक्षी दलों का तो यह सीधा आरोप है कि केंद्र सरकार ने सीबीआइ को कठपुतली बना रखा है और उसका इस्तेमाल गठबंधन राजनीति के हितों को साधने में किया जा रहा है। केंद्र सरकार इन आरोपों को खारिज भले ही करे, लेकिन जनता के लिए सीबीआइ को विश्वसनीय जांच एजेंसी मानना कठिन है। यदि टीम अन्ना और साथ ही आम जनता यह मान रही है कि सीबीआइ को लोकपाल के दायरे में लाए बगैर बात बनने वाली नहीं है तो इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। यदि भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए ऐसी कोई समर्थ जांच एजेंसी नहीं होगी जो सरकार के दबाव से मुक्त होकर काम कर सके तो फिर भ्रष्ट तत्वों पर नकेल कसने की उम्मीद बेमानी है।


लोकपाल का मसौदा तैयार करने वाली संसदीय समिति के अध्यक्ष अभिषेक मनु सिंघवी की मानें तो लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने का काम आसानी से हो जाएगा, लेकिन यह समय ही बताएगा कि राहुल गांधी के सुझाव के अनुरूप ऐसा हो पाता है या नहीं? संसदीय समिति ने प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखने पर कोई स्पष्ट राय देने के बजाय तीन विकल्प सुझाए हैं। इनमें एक, इस पद को लोकपाल से बाहर रखने का भी है। स्पष्ट है कि संसद को इस मुद्दे पर बहस करते समय इस सवाल का जवाब देना होगा कि यदि भ्रष्टाचार के तार प्रधानमंत्री या उनके कार्यालय से जुड़ते हैं तो क्या होगा? ध्यान रहे कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की आंच प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुंची थी।


देश के राजनीतिक तंत्र में भ्रष्टाचार इतनी बुरी तरह घर कर गया है कि उसे दूर करना आसान नहीं। वर्तमान में जब राजनीतिक एवं प्रशासनिक तंत्र का भ्रष्टाचार के बगैर चल पाना नामुमकिन सा लगता है तब उसे दूर करने के लिए जैसे साहस की जरूरत है वह केंद्र सरकार में नजर नहीं आता। साहस शीर्ष पर बैठे नेताओं को दिखाना होता है। वे जैसा करते हैं वैसा ही उनकी सरकार करती है। यदि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार से लड़ने की ठान लें तो पूरे तंत्र में यह संदेश अपने आप चला जाएगा कि भ्रष्ट तत्वों को सहन नहीं करना है।


लोकपाल को लेकर अन्ना हजारे ने पहली बार अप्रैल में और दूसरी बार अगस्त में जो अनशन-आंदोलन किए उनसे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जागरूकता का स्तर बढ़ा है, लेकिन यह कहना कठिन है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर रवैया अपना लिया है। यह तय है कि भ्रष्टाचार अकेले लोकपाल से दूर नहीं होगा। इसके लिए राजनीतिक प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन भी आवश्यक है। सभी दल यह तो मानते हैं कि चुनावों में धनबल का इस्तेमाल होता है और यह धन भ्रष्टाचार से आता है, लेकिन उस पर रोक लगाने के लिए वे कोई पहल करने को तैयार नहीं। यदि देश के सभी दल सर्वसम्मति से यह बीड़ा उठा लें कि मजबूत लोकपाल बनाने के साथ चुनावों में धन का दुरुपयोग रोकने की भी व्यवस्था बनेगी और साथ ही चुनाव बाद समर्थन हासिल करने के लिए होने वाली खरीद-फरोख्त को भी रोका जाएगा तो राजनीतिक तंत्र को कहीं आसानी से भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल सकती है। नेताओं को यह याद रखना चाहिए कि रैलियों और सभाओं में भ्रष्टाचार पर घड़ियालू आसू बहाते रहने से बात बनने वाली नहीं है। एक दिन के लिए फिर से धरने पर बैठ रहे अन्ना हजारे इस समय भारत की जनता के आखों के तारे बने हुए है। आम लोग जानते हैं कि अन्ना अपने लिए ही नहीं देश के लिए लड़ रहे हैं। अगर देश के नेताओं को अपनी साख बनाकर रखनी है तो उन्हे जल्द ही ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे जनता यह भरोसा कर सके कि वे भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कटिबद्ध है।


इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


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