Menu
blogid : 133 postid : 1116

माओवाद के समर्थकों का सच

संपादकीय ब्लॉग
संपादकीय ब्लॉग
  • 422 Posts
  • 640 Comments

नहीं, कोई ऐसा नहीं कर सकता कि वह डॉ. विनायक सेन और उनके साथियों को रायपुर की एक अदालत द्वारा आजीवन कारावास दिए जाने पर खुशी मनाए। वैचारिक विरोधों की भी अपनी सीमाएं हैं। इसके अलावा देश में अभी और भी अदालतें हैं। हमें अपनी अदालतों और अपने तंत्र पर भरोसा तो करना ही होगा। आखिर क्या अदालतें हवा में फैसले करती हैं? क्या इतने ताकतवर लोगों के खिलाफ सबूत गढ़े जा सकते हैं? ये सारे सुविधा के सिद्धात हैं कि फैसला आपके हक में हो तो सब कुछ अच्छा और न हो तो अदालतें भरोसे के काबिल नहीं हैं। भारतीय सविधान, जनतंत्र और अदालतों को न मानने वाले विचार भी यहा राहत की उम्मीद करते हैं। दरअसल यही लोकतत्र का सौंदर्य है। यह लोकतंत्र का ही सौंदर्य है कि रात-दिन देश तोड़ने के प्रयासों में लगी ताकतें भी हिंदुस्तान के तमाम हिस्सों में अपनी बात कहते हुए आराम से घूम रही हैं और देश का मीडिया भी उनके विचारों को प्रकाशित कर रहा है।


माओवाद को जानने वाले जानते हैं कि यह आखिर लड़ाई किस लिए है। इस बात को माओवादी भी नहीं छिपाते कि आखिर वे किसके लिए और किसके खिलाफ लड़ रहे हैं? बहुत साफ है कि उनकी लड़ाई हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है और 2050 तक भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना उनका घोषित लक्ष्य है। यह बात सारा देश समझता है, किंतु हमारे मासूम बुद्धिवादी नहीं समझते। वे माओवादी आतक को जनमुक्ति और जनयुद्ध जैसे खूबसूरत नाम देते हैं। झूठ, फरेब और ऐसी बातें फैलाना जिससे नक्सलवाद के प्रति मन में सम्मान का भाव का आए, यही माओवादी समर्थक विचारकों का लक्ष्य है। नक्सलवाद को जायज ठहराते बुद्धिजीवियों ने किस तरह मीडिया और मचों का इस्तेमाल किया है इसे देखना है तो अरुंधति राय को समझने की जरूरत है। यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है, किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरुंधती राय एक बड़ी लेखिका हैं। हर कहे गए वाक्य की नितात उलझी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे दंतेवाड़ा के लोगों को सलाम भेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है-मारने वालों के लिए या मरने वालों के लिए। ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं, इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों।


अरुंधति राय के एक लेख को पढि़ए और बताइए कि वह किसके साथ हैं? वह किसे गुमराह कर रही हैं। अरुंधति इसी लेख में लिखती हैं-क्या यह ऑपरेशन ग्रीन हंट का शहरी अवतार है? जिसमें भारत की प्रमुख समाचार एजेंसी उन लोगों के खिलाफ मामले बनाने में सरकार की मदद करती है जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते? क्या वह हमारे जैसे कुछ लोगों को वहशी भीड़ के सुपुर्द कर देना चाहती है? ताकि हमें मारने या गिरफ्तार करने का कलंक सरकार के सिर पर न आए? आखिर अरुंधति यह करूणा भरे बयान क्यों जारी कर रही हैं? उन्हें किससे खतरा है? महान लेखिका अगर सच लिख और कह रही हैं तो उन्हें भयभीत होने की जरूरत नहीं है। नक्सलवाद के खिलाफ लिख रहे लोगों को भी यह खतरा हो सकता है। सो खतरे तो दोनों ओर से हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लड़ रहे लोग अपनी जान गवा रहे हैं, खतरा उन्हें ज्यादा है। भारतीय सरकार, जिसके हाथ अफजल और कसाब को भी फासी देते हुए कांप रहे हैं वह अरुंधति राय या उनके समविचारी लोगों का क्या दमन करेंगी। हाल यह है कि नक्सलवाद के दमन के नाम पर आम आदिवासी तो जेल भेज दिया जाता है पर असली नक्सली को दबोचने की हिम्मत हममें कहा है। इसलिए अगर आप दिल से माओवादी हैं तो निश्चिंत रहिए, आप पर कोई हाथ डालने की हिम्मत कहा करेगा। यह लोकतत्र का ही सौंदर्य है कि आप लोकतत्र विरोधी अभियान भी इस व्यवस्था में चला सकते हैं। नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए नक्सली आंदोलन के महान जनयुद्ध पर पन्ने काले कर सकते हैं।


अरुंधति के मुताबिक माओवादी कारपोरेट लूट के खिलाफ काम कर रहे हैं। वह पता करें कि नक्सली कारपोरेट लाबी की लेवी पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। नक्सल इलाकों में आप अक्सर जाती हैं, पर माओवादियों से ही मिलती हैं कभी वहा काम करने वाले तेंदुपत्ता ठेकेदारों, व्यापारियों, सड़क निर्माण से जुड़े ठेकेदारों, नेताओं और अधिकारियों से मिलिए. वे सब नक्सलियों को लेवी देते हुए आराम से खा और पचा रहे हैं। आदिवासियों के वास्तविक शोषक लेवी देकर आज नक्सलियों की गोद में बैठ गए हैं। ये इलाके लूट के इलाके हैं। आप इस बात का भी अध्ययन करें, नक्सलियों के आने के बाद आदिवासी कितना खुशहाल या बदहाल हुए हैं। आप नक्सलियों के शिविरों पर मुग्ध हैं, कभी सलवा जुडूम के शिविरों में भी जाइए। आपकी बात सुनी, बताई और छापी जाएगी, पर इन इलाकों में जाते समय किसी खास रंग का चश्मा पहन कर न जाएं। सरकारें परम पवित्र नहीं होतीं, किंतु लोकतत्र के खिलाफ अगर कोई जंग चल रही है तो आप उसके साथ कैसे हो सकते हैं। जो हमारे सविधान, लोकतत्र को खारिज तक 2050 तक माओ का राज लाना चाहते हैं तो हमारे बुद्धिजीवी उनके साथ क्यों खड़े हैं?


[संजय द्विवेदी: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार है]

Source: Jagran Yahoo

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh