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नक्सलियों की पतीली में भारत

संपादकीय ब्लॉग
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Rajiv Sachanओडिशा के छोर पर स्थित व्हीलर द्वीप से अग्नि-पांच मिसाइल के सफल परीक्षण के साथ देशवासी जैसे ही इस तथ्य से परिचित हुए कि यह मिसाइल चीन तक मार करने में सक्षम है तो उनमें गर्व और संतुष्टि का भाव उभरा। इस भाव को तब और बल मिला जब चीन ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के साथ ही अपने भय को भी प्रदर्शित किया। अग्नि-पांच के सफल परीक्षण के दो दिन बाद ही जब उड़ीसा के दूसरे छोर पर स्थित छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के जिलाधिकारी एलेक्स पॉल मेनन को नक्सली भरी सभा से जबरन उठा ले गए तो सारे देश को यह संदेश गया कि भारत अपने बाहरी शत्रुओं से निपटने में भले ही सक्षम हो गया हो, लेकिन देश के भीतर सक्रिय शत्रुओं का सामना करने में नाकाम है। हालांकि नक्सलियों का चीन से कोई सीधा संबंध नहीं, लेकिन वे जिस विचारधारा से प्रेरित हैं उसे चीन में खूब पोषण मिला। विडंबना यह है कि हमारे पास ऐसी कोई मिसाइल, रणनीति, नीति और यहां तक कि इच्छाशक्ति भी नजर नहीं आती जिससे चीन से प्रेरित विचारधारा अर्थात नक्सलवाद से निपटा जा सके।

 

सुकमा जिले के डीएम एलेक्स पॉल मेनन का जिस दिन अपहरण हुआ उसी दिन नई दिल्ली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नौकरशाहों को निर्णय लेने की नसीहत दे रहे थे। लोकसेवक दिवस पर उन्होंने नौकरशाहों से कहा कि वे इस भय का परित्याग करें कि यदि निर्णय लेने में कोई गलती हो जाती है तो उन्हें दंड का पात्र बनना पड़ेगा। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे अधिकारियों को पूरा संरक्षण मिलेगा। इसी के कुछ घंटे बाद सुकमा में नक्सलियों की धमकी के बावजूद जोखिम का परिचय देने और अपने कर्तव्य का पालन करने वाले एलेक्स पॉल मेनन को नक्सली उठा ले गए। माना जा रहा है कि नक्सली उनका अपहरण कर उसी ओडिशा में ले गए हैं जहां से अग्नि-पांच का सफल परीक्षण किया गया था। आश्चर्य नहीं कि एलेक्स पॉल मेनन का अपहरण उन्हीं नक्सलियों ने किया हो जिन्होंने पिछले वर्ष सुकमा से सटे उड़ीसा के मलकानगिरी जिले के जिलाधिकारी आर विनील कृष्णा का अपहरण किया था।

 

 नक्सली यह मानते हैं कि यदि भारतीय शासन पर धीरे-धीरे चोट की जाए तो वह उसका अभ्यस्त होता जाएगा और अप्रत्याशित प्रतिक्रिया के बारे में नहीं सोचेगा। उनके मुताबिक यदि किसी पतीली में मेढक को डालकर उसे धीरे-धीरे गर्म किया जाए तो वह यकायक उछलकर भागने की कोशिश करने के बजाय आंच को सहने की कोशिश में निष्कि्रय होता जाएगा। स्टेट अर्थात राज्य यानी भारतीय शासन एक तरह से नक्सलियों की पतीली में पड़ा है और मेंढक की भांति आचरण कर रहा है। नक्सलियों ने जब पिछले वर्ष मलकानगिरी के डीएम का अपहरण किया था तो सारा देश चौंका था। सुकमा के डीएम के अपहरण पर भी वह चौंका, लेकिन पिछले साल के मुकाबले कुछ कम। यदि कल को किसी अन्य जिलाधिकारी का अपहरण होता है तो देश यही महसूस करेगा कि अरे, यह तो होता ही रहता है। यह और कुछ नहीं गर्म होती पतीली में पड़े मेंढक जैसा आचरण होगा। जैसे-जैसे नक्सली दुस्साहस दिखाएंगे, तय मानिए कि केंद्र और राज्य उनका मुकाबला करने के मामले में निष्कि्रय होते जाएंगे। नक्सलियों के प्रति नरमी भारतीय शासन की निष्कि्रयता का ही प्रमाण है।

 

 एलेक्स पॉल मेनन के अपहरण के बाद छत्तीसगढ़ और केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया कुल मिलाकर यह है कि कृपया उन्हें छोड़ दीजिए, हमसे बात कीजिए और अपनी मांगें बताइए। कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया ओडिशा के विधायक झीना हिक्का के अपहरण के बाद भी दिखाई गई थी और उसके पहले इतालवी पर्यटकों के अपहरण के दौरान भी। नक्सलियों के खिलाफ जब कहीं से कठोर कार्रवाई का स्वर उभरता है तो चारों ओर से ऐसी भी आवाजें आने लगती हैं कि यह ठीक नहीं और नक्सली हमारे अपने ही नागरिक हैं। क्या कश्मीरी आतंकी और पूर्वोत्तर के उग्रवादी किसी और गृह से आए नागरिक हैं? यदि उनके खिलाफ सेना कार्रवाई कर सकती है तो नक्सलियों के खिलाफ क्यों नहीं? इस संदर्भ में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री ने बिल्कुल सही सवाल किया है कि आखिर नक्सल इलाकों में अफस्पा क्यों नहीं लागू है? यह महज एक दुष्प्रचार है कि नक्सली आदिवासी हितों के लिए लड़ रहे हैं। सच्चाई यह है कि वे माफिया हैं और उनका उद्देश्य भारतीय शासन को निष्कि्रय करना है। उनका दुस्साहस इसलिए बढ़ रहा है, क्योंकि शासन-सत्ता-राज्य उनके समक्ष समर्पण की मुद्रा में है और कुछ पथभ्रष्ट बुद्धिजीवी और मानवाधिकारवादी उनका समर्थन कर रहे हैं। किसी को इस पर हैरत नहीं होनी चाहिए कि अरुंधती राय और उनके जैसे लोग इन दिनों मौन क्यों हैं? ये इसलिए मौन हैं, क्योंकि भारतीय शासन को निष्कि्रय होते देखने में उन्हें आनंद महसूस होता है।

 

भारत सरकार नक्सलियों से जिस तरह निपट रही है उससे दुनिया भर में उसकी भद पिट रही है। आंतरिक सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से निपटने के मामले में भारत एक नरम-पिलपिले राष्ट्र के रूप में उभर आया है। दुनिया न सही, देश यह अच्छी तरह महसूस कर रहा है कि आतंकियों को फांसी देने का सवाल भारत सरकार को डराता है। जैसे ही किसी आतंकी के फांसी पर चढ़ने का समय करीब आता है, भारत सरकार के हाथ-पांव फूलने लगते हैं। वह तरह-तरह के बहाने बनाने लगती है। आम तौर पर ये बहाने उन्हीं गृहमंत्री पी चिदंबरम की ओर से पेश किए जाते हैं जिन पर आंतरिक सुरक्षा के सबसे बड़े खतरे यानी नक्सलवाद से निपटने की जिम्मेदारी है। इस मामले में राज्यों की भूमिका भी केंद्र जैसी है। वे आतंकियों को उनके किए की सजा देने के बजाय उन्हें बचाने की कोशिश कुछ इस तरह करते हैं कि उनके वोट बैंक में इजाफा भी हो।

 

लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं

 

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