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कमल से कुशवाहा तक

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Rajeev Sachanस्थगित सदस्यता के बावजूद बाबूसिंह कुशवाहा को भाजपा के लिए मुसीबत मान रहे हैं राजीव सचान


भाजपा नेतृत्व को बसपा के पूर्व मंत्री और दस हजार करोड़ रुपये के घोटाले के अभियुक्त बाबूसिंह कुशवाहा को पार्टी में लेने के अपने आत्मघाती फैसले से जैसी फजीहत का सामना करना पड़ा उसका परिणाम यह हुआ कि खुद कुशवाहा से इस आशय की चिट्ठी लिखवाई गई कि उनके निर्दोष सिद्ध होने तक उनकी सदस्यता स्थगित रखी जाए। अब भाजपा यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि उसने कुशवाहा की सदस्यता स्थगित कर राजनीतिक बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है, लेकिन कोई भी यह स्वीकार करने वाला नहीं है कि उसने नुकसान की भरपाई कर ली है। वैसे भी कुशवाहा की सदस्यता स्थगित भर की गई है, उन्हें पार्टी से बाहर नहीं किया गया। वह शायद देश के पहले ऐसे नेता हैं जो स्थगित सदस्यता के साथ किसी राजनीतिक दल से जुड़े हैं। इसका यदि कोई मतलब हो सकता है तो यही कि वह भाजपा के द्वार पर खड़े हैं। इस पर भी गौर करें कि सदस्यता स्थगित करने का अनुरोध खुद कुशवाहा का था। यह राजनीतिक नाटक ही सही, लेकिन इससे यह तो पता चलता ही है कि भाजपा में यह साहस नहीं था कि वह खुद ही कहती कि कुशवाहा निर्दोष साबित होने तक उसके साथ नहीं आ सकते। भाजपा ने जिन परिस्थितियों में कुशवाहा से दूरी बनाई उन पर गौर किया जाना चाहिए। दूरी बनाने का काम तब किया गया जब विरोधी दलों के नेताओं ने साफ-साफ यह कहना शुरू कर दिया कि कुशवाहा को पैसे लेकर भाजपा में शामिल किया गया है और यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनके भाजपा में शामिल होने से वाकई नाराज है तो फिर ऐसी नाराजगी का क्या मतलब जिससे कोई नतीजा न निकले?


यदि भाजपा यह समझ रही है कि कुशवाहा की सदस्यता स्थगित होने से उसे अपयश से छुटकारा मिल जाएगा तो ऐसा आसानी से नहीं होने वाला। भाजपा को अभी इन सवालों का जवाब देना शेष है कि आखिर उसके नेताओं ने पार्टी को विश्वास में लिए बिना इतने ज्यादा दागी नेता को पार्टी में क्यों शामिल किया? क्या वे यह नहीं जानते थे कि डीपी यादव के मामले में क्या हुआ था? क्या उन्हें यह अहसास नहीं था कि ऐसा करने से पार्टी की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम औंधे मुंह गिर जाएगी और उसके महासचिव किरीट सोमैया तो मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे? क्या उन्हें यह भी नहीं पता था कि लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा किसलिए निकाली थी? क्या उन्होंने अपने ही नेताओं के संसद में दिए गए उन भाषणों को नहीं सुना था जो उन्होंने लोकपाल पर चर्चा के समय दिए थे और जिनकी तारीफ उमर अब्दुल्ला तक ने की थी? कुशवाहा की स्थगित सदस्यता यह बताती है कि पार्टी अपने उन तर्को पर कायम है जो उसने उन्हें गले लगाने के संदर्भ में दिए थे। इनमें सबसे वजन वाला तर्क यह था और अभी भी है कि इससे अन्य पिछड़ा वर्गो के वोटों का लाभ मिलेगा? क्या कुशवाहा की बिरादरी के लोग सिर्फ इसलिए भाजपा को वोट दे देंगे कि उन्हें इस दल ने शरण देने के लिए अपने दरवाजे पर बैठा रखा है? क्या कुशवाहा अपनी बिरादरी अथवा अन्य पिछड़ा वर्गो के प्रेरणा पुंज हैं। यदि वह इतने ही प्रभावशाली नेता हैं तो बसपा ने एक बार भी उन्हें चुनाव लड़ाने की जरूरत क्यों नहीं समझी? सवाल यह भी है कि खुद उन्होंने चुनाव लड़ने का साहस क्यों नहीं किया? अगर उनकी अपने इलाके यानी बांदा जिले के बबेरू विधानसभा क्षेत्र में तूती बोलती है, जैसा कि सिद्ध करने की कोशिश गई तो फिर पिछले चुनाव में वहां से समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी कैसे जीत गया? स्पष्ट है कि इस दलील में कोई दम नहीं कि वह अपने इलाके के एकछत्र नेता हैं। क्या बाबूसिंह कुशवाहा अन्य पिछड़ा वर्गो के उतने बड़े प्रतिनिधि हैं जितने विनय कटियार और उमा भारती भी नहीं हैं और यदि बात केवल कुशवाहा समाज के वोटों की है तो क्या इस समाज में एक मात्र नेता बाबूसिंह ही हैं? कुशवाहा समाज के वोटों के लिए भाजपा की निगाह केवल बाबूसिंह पर टिकना कुछ वैसा ही है जैसे यादव वोटों के लिए उसे डीपी यादव, क्षत्रिय वोटों के लिए राजा भैया और ब्राह्मण वोटों के लिए अमरमणि त्रिपाठी जैसे नेता नजर आएं।


यशवंत सिन्हा की मानें तो कुशवाहा व्हिसिल ब्लोअर का काम करेंगे, लेकिन आखिर वह अपना मुंह कब खोलेंगे? क्या तब जब सीबीआइ के हत्थे चढ़ेंगे? भाजपा की यह दलील भी बेकार है कि वह बाबूसिंह कुशवाहा का बचाव इसलिए कर रही है, क्योंकि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन [एनआरएचएम] में हुए घोटाले में सीबीआइ मायावती को छोड़कर केवल कुशवाहा के पीछे पड़ी है। यदि ऐसा ही है तो फिर उसे ए.राजा का समर्थन न सही, बचाव तो करना ही चाहिए। आखिर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में यह तर्क भाजपा का ही है कि राजा तो मोहरे हैं, असली खिलाड़ी कोई और है। सच तो यह है कि उसे इसी आधार पर सुरेश कलमाड़ी के प्रति भी सहानुभूति के दो शब्द बोल देने चाहिए। भाजपा यह तर्क भी खोज लाई है कि जब उसने कुशवाहा को पार्टी में शामिल किया था तब तक सीबीआइ ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की थी। क्या भाजपा यह मानकर चल रही थी कि सीबीआइ एनआरएचएम घोटाले कीं जांच करने के बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठी रहेगी? आखिर कुशवाहा के मामले में सीबीआई की कार्रवाई का हवाला देने वाली भाजपा संसद में चिदंबरम का बहिष्कार किस आधार पर कर रही है? एक दागी नेता के लिए भाजपा द्वारा अपना सब कुछ दांव पर लगाना 2012 का सबसे बड़ा राजनीतिक घोटाला है। आम लोगों के लिए इस पर यकीन करना मुश्किल है कि शुचिता, ईमानदारी, मूल्यों, मर्यादाओं की बात करने वाला कोई राष्ट्रीय राजनीतिक दल प्रकट रूप में ऐसा काम कर सकता है? यह सब जानते हैं कि कमल कीचड़ में खिलता है, लेकिन शायद भाजपा यह सिद्ध करने पर तुल गई है कि वह कीचड़ में ही नष्ट भी हो जाता है।


लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं


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