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नक्सलियों के गुमराह समर्थक

संपादकीय ब्लॉग
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Rajeev Sachanनक्सलवादियों के समर्थकों-हितैषियों को उन्हीं की तरह गुमराह और दुष्प्रचार फैलाने वाला मान रहे हैं राजीव सचान


कुख्यात नक्सली कमांडर कोटेश्वर राव उर्फ किशन की मौत नक्सलियों के लिए बड़ा झटका है, लेकिन यह शायद नक्सल समर्थकों के साथ-साथ कुछ राजनीतिक दलों के लिए भी बड़ा झटका है। शायद यही कारण रहा कि कोटेश्वर की शिनाख्त होने के पहले ही इन दलों को मुठभेड़ फर्जी नजर आ गई। उन्होंने तत्काल यह अनुमान लगा लिया कि कोटेश्वर को फर्जी मुठभेड़ में मारा गया है। हालांकि उसके शव की शिनाख्त करने वाले परिजनों और नक्सलियों के हितैषियों के अलावा अन्य किसी ने मुठभेड़ के फर्जी होने पर संदेह नहीं जताया, फिर भी करीब-करीब सभी वामदल यह मांग कर रहे हैं कि इस मुठभेड़ की जांच कराई जाए। यह समझ आता है कि वामदल किसी न किसी बहाने ममता बनर्जी को कठघरे में खड़ा करना चाहते हैं, लेकिन यह समझना कठिन है कि समाजवादी पार्टी को भी यह मुठभेड़ फर्जी क्यों दिख रही है? कहीं सिर्फ इसलिए तो नहीं कि सुर्खियों में आने का अवसर मिल सके? यह संदेह इसलिए, क्योंकि अन्य अनेक संगठन भी इसी कारण मुठभेड़ पर संदेह जताने का काम कर रहे हैं। हालांकि राज्य सरकार ने मुठभेड़ की जांच के आदेश दे दिए हैं, लेकिन यह लगभग तय है कि नक्सल समर्थक इससे संतुष्ट होने वाले नहीं हैं। वे न्यायिक जांच की मांग उठा सकते हैं। कुछ ने तो उठा भी दी है। कोटेश्वर राव की मौत को फर्जी मुठभेड़ का नतीजा बताने वालों में उनकी भतीजी भी शामिल हैं। उनका तर्क है कि उनके चाचा का शव गोलियों से छलनी था और शरीर पर चोटों के निशान भी थे। घने जंगलों में मुठभेड़ के दौरान ऐसा होना स्वाभाविक है। बेहतर हो कि नक्सल समर्थक फरवरी 2010 में सिल्दा शिविर में मारे गए जवानों के परिजनों की पीड़ा सुनें। इस शिविर पर हमले की साजिश रचने वालों में कोटेश्वर का भी नाम लिया जाता है। इस हमले में मारे गए एक जवान की विधवा का कहना है कि मेरे पति का शरीर भी गोलियों से छलनी था और उनके शरीर पर भी कई जगह चोटों के निशान थे।


कोटेश्वर की मुठभेड़ को जिन अन्य लोगों ने फर्जी बताया है उनमें उनके गृह प्रांत आंध्र के तथाकथित विद्रोही कवि और नक्सलियों के कट्टर समर्थक वरावरा राव भी हैं। उनकी मानें तो सुरक्षाबलों ने कोटेश्वर को 24 घंटे तक पकड़कर रखा और फिर मार दिया। मारने से पहले उनका जबड़ा तोड़ा गया.। यदि उन्हें इतनी ही गहन जानकारी है तो फिर यह भी पता होना चाहिए कि यह काम किन लोगों ने किस समय और कहां किया? उन्होंने कोटेश्वर की मौत के लिए जिम्मेदार लोगों को फांसी की सजा देने की मांग करने के साथ ममता बनर्जी पर यह आरोप लगाया है कि कोटेश्वर को वार्ता के लिए बुलाया और फिर धोखा देकर मार दिया। उनकी इस कहानी पर यकीन करने का कोई कारण नहीं, लेकिन यह सबको पता है कि नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में जवानों को किस तरह धोखा देकर मारा और उनके शवों को कितनी बुरी तरह क्षत-विक्षत किया। नि:संदेह इसका यह मतलब नहीं कि सुरक्षाबल वही करें जो नक्सली कर रहे हैं। सुरक्षा बलों को फर्जी मुठभेड़ों की इजाजत नहीं दी जा सकती। असामान्य परिस्थितियों में भी उनके लिए यह आवश्यक है कि वे नियम-कानूनों के तहत कार्य करें, लेकिन जिन्हें दूसरों के मानवाधिकारों की परवाह न हो और जो मानव अधिकारों का घृणित तरीके से हनन करते हों वे अपने लिए मानवाधिकार की मांग नहीं कर सकते। क्या वे वही नक्सली नहीं हैं जो जन अदालतें लगाकर विरोधियों को मौत के घाट उतारते रहते हैं?


यह बहुत पहले साबित हो चुका है कि नक्सली पुरी तरह गुमराह हो चुके हैं, लेकिन अब यह भी स्पष्ट हो रहा है कि उनके समर्थक भी उन्हीं की राह पर हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो वे दुष्प्रचार करने के बजाय नक्सली संगठनों को बातचीत के रास्ते पर लाने की कोशिश करते। वंचितों के विकास, निर्धनों के अधिकार और मानवाधिकार की बात करने वाले नक्सल समर्थक तब शातिराना चुप्पी साध लेते हैं जब नक्सली कहर बरपाते हैं। यदि कोटेश्वर की मुठभेड़ में कुछ गलत नहीं पाया जाता तो इन सभी को देश को गुमराह करने और दुष्प्रचार फैलाने का दोषी माना जाना चाहिए। नक्सल समर्थक न सही, नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले राजनीतिक दलों को ममता बनर्जी के हश्र से सबक सीखना चाहिए। जिन ममता ने चुनावी लाभ लेने अथवा नक्सलियों को मुख्यधारा में लाने के अपने भरोसे के कारण उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं होने दी उन्हें मजबूरी में कठोर रवैया अपनाना पड़ा। उन्होंने नक्सलियों को समझाने-बुझाने की जैसी कोशिश की वैसी इसके पहले शायद ही किसी ने की हो, लेकिन नक्सली वार्ता के लिए तैयार होने के बजाय उनके कार्यकर्ताओं को मारने में जुट गए। शायद ममता बनर्जी अन्य नेताओं के मुकाबले यह अच्छी तरह समझ चुकी हैं कि नक्सलियों के सही रास्ते पर चलने की उम्मीद करना बेकार है। यदि वह नक्सलियों को जंगल माफिया, सुपारी किलर और आतंकियों से भी खतरनाक मान रही हैं तो इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। नक्सलियों से इस आधार पर नरमी नहीं बरती जानी चाहिए कि वे अपने लोग हैं। उनकी हरकतें उन्हें देश विरोधी साबित करने वाली हैं। नक्सली एक ओर विकास के अभाव का रोना रोते हैं और दूसरी ओर स्कूल-पंचायत भवन उड़ाने में लगे हुए हैं। वे संचार सेवाओं में इस्तेमाल होने वाले टॉवर ध्वस्त करने के साथ सड़कों के निर्माण में भी अड़ंगे डाल रहे हैं। उनके समर्थक तर्क देते हैं कि नक्सली ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि पुलिस स्कूलों और पंचायत भवनों में ठिकाने बनाती है और सड़कें तथा मोबाइल टॉवर भी उनके खिलाफ इस्तेमाल हो सकते हैं। क्या नक्सल समर्थक यह चाहते हैं कि नक्सलियों का वर्चस्व बनाए रखने के लिए सरकारें स्कूल और पंचायत भवन ध्वस्त कर डालें तथा सड़कों का निर्माण रोक दें?


लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं


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