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खुद से पूछें सवाल

संपादकीय ब्लॉग
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26 नवंबर 2008 को मुंबई पर आतंकी हमला भारतीय गणतंत्र के इतिहास का सबसे घातक, सबसे त्रासद और सबसे अधिक सबक सिखाने वाला था। जान-माल के भारी नुकसान के अलावा इसने भारतीय राजसत्ता और शासनतंत्र में भारी दरार भी उजागर कीं। जो देश महाशक्ति बनने की महत्वाकाक्षा रखता है, वह विश्व के सामने एक ऐसे विशाल वृक्ष के समान नजर आया, जिसका तना खोखला है। यह घटना भारत के बौद्धिक तबके के आतरिक छिछलेपन को भी सतह पर लाई है।


दस आतंकी पाकिस्तान के कराची से स्टीमर पर सवार होकर निकलते हैं, बड़े आराम से गेट ऑफ इंडिया के करीब मुंबई में दाखिल होते हैं और चार गुटों में बंटकर पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की तरफ बढ़ जाते हैं। एक गुट ताज पर कब्जा कर लेता है, दूसरा लीओपोल्ड कैफे और ओबराय होटल पर धावा बोलता है, तीसरा छबद हाउस में घुस जाता है और चौथा छत्रपति रेलवे स्टेशन पर पहुंचता है। वे जहा भी जाते हैं, खून की नदिया बहा देते हैं। बड़ी बर्बरता और क्रूरता से निर्दोष लोगों का कत्लेआम करते हैं। तीन दिनों तक शहर पर आतंक का राज रहता है। जब तक उनमें से नौ मारे जाते हैं और एक जिंदा पकड़ लिया जाता है, वे 180 लोगों को मौत के घाट उतार चुके थे। इस त्रासदी की कहानी बयान करने के लिए आसू भी कम पड़ जाते हैं।


इस अवसर पर अक्षमता का जो प्रदर्शन हुआ वह भी आतंकी घटना से कम त्रासद नहीं है। आतंकी हमला होने के बाद जिस तत्परता, सटीकता और संबद्धता की आवश्यकता थी, वह कहीं दिखाई नहीं दी। आतंकियों ने जिस खतरनाक रफ्तार और योजना से हमले को अंजाम दिया, उसके विपरीत राज्य व केंद्र सरकार का सुरक्षा तंत्र बिल्कुल लचर और लाचार नजर आया। इसने खुद को संभालने में काफी वक्त लिया। सामाजिक ढाचे के अन्य घटकों ने भी खुद को किसी लायक साबित नहीं किया। उदाहरण के लिए, ताज होटल पर आतंकियों का सामना कर रहे राष्ट्रीय सुरक्षा गाडरें को दिखाने की चैनलों में होड़ मची थी। उन्होंने इस बात की परवाह नहीं की कि इससे पाकिस्तान में बैठे आतंकियों के आका सुरक्षा बलों की पूरी कार्रवाई देखते हुए आतंकियों को नए निर्देश दे सकते हैं।


यह सब तब हुआ जब भारत अनेक आतंकी हमलों का दंश झेल चुका था। 2008 में ही 13 मई को जयपुर में 8 बम विस्फोटों में 80 लोगों की मौत हो गई थी, 26 जुलाई को अहमदाबाद में श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों में 53 लोग मारे गए थे और दिल्ली में 8 धमाकों में 26 लोग मौत के मुंह में समा गए थे। दुर्भाग्य से, भारत ने न सुधरने की कसम खा रखी है, जिस कारण इस पर बार-बार हमले होते हैं। मुंबई हमले के बाद समाजशास्त्री और बुद्धिजीवी केंद्र व राज्य सरकार पर बुरी तरह बरस पड़े। इस घटना से उनकी सोच में भारी परिवर्तन आया था। वे आतंक की पीड़ा और भय से गुजरे थे। आतंकवाद के पहले चरण में कश्मीरी पंडित और अन्य निर्दोष लोगों को घाटी में मौत के घाट उतारा गया था। इस प्रबुद्ध वर्ग तब इन लोगों के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन नहीं किया था। दूसरी तरफ, इन्हीं में से कुछ ने कश्मीरी युवाओं के अलगाव का सवाल उठाते हुए आतंकवाद को जायज ठहराने की कोशिश की। यहा तक कि आतंकियों को बख्शते हुए उन्होंने कश्मीर में राज्यपाल के शासन को कश्मीरी पंडितों की विदाई का जिम्मेदार ठहराया। मीडिया से प्रगतिशील होने की प्रसिद्धि मिलने से इस प्रकार का रवैया इन लोगों का स्थायी भाव बन गया। इससे देश को बेहिसाब नुकसान उठाना पड़ा। जबकि घाटी में आतंकवादी निर्दोष लोगों का कत्लेआम कर रहे थे, जमीनी हकीकत से अनजान यह तथाकथित प्रबुद्ध वर्ग आतंकवाद से लड़ने के लिए जरूरी सच्चाई, प्रतिष्ठा और इच्छाशक्ति का वध कर रहा था। वे इस कटु सच्चाई को तभी देख पाए जब आतंकी पाच सितारा होटलों में भी लोगों का कत्लेआम करने लगे।


1980 के मध्य में जब भारतीय कूटनीतिज्ञ रवींद्र महात्रे की बर्मिंघम में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने हत्या कर दी थी और जब भारत-वेस्टइंडीज क्रिकेट मैच के दौरान श्रीनगर में विध्वंसकारी नाटक हुआ था, तभी से मैं कश्मीरी लोगों में पंथिक उन्माद के माध्यम से आतंकवाद का जहर भरने के पाकिस्तानी षड्यंत्र के बारे में आगाह कर रहा हूं। पाकिस्तान कश्मीरी उग्रवादियों को वही हथियार भेज रहा था, जो अमेरिका ने उसे अफगानिस्तान में रूस से लड़ने को दिए थे। किंतु किसी ने नहीं सुनी। दरअसल, मेरे जैसे जो लोगों को हाशिये पर धकेल दिया गया, जो आतंक के कैंसर की शुरुआत में ही ऑपरेशन कर इसे खत्म कर देना चाहते थे। अब आतंक की ये कोशिकाएं पूरे शरीर में फैल गई हैं और भारत के महत्वपूर्ण अंगों पर वार कर रही हैं। इनके खात्मे के लिए अब लंबा समय और भारी संसाधन चाहिए। पहले ही हजारों जानें और हजारों करोड़ रुपये इसकी भेंट चढ़ चुके हैं।


अमेरिकी नागरिक और लश्करे-तैयबा के एजेंट डेविड कोलमैन हेडली ने खुलासा किया कि आतंकी हमलों का षड्यंत्र किस प्रकार रचा गया। किस प्रकार प्रधानमंत्री और उपराष्ट्रपति तक के घरों का सर्वे किया गया और किस प्रकार तथाकथित गैर सरकारी अभिनेता और आईएसआई मिलकर भारत के खिलाफ खूनखराबा करने का षड्यंत्र रच रहे हैं। ब्रूस रिडेल के शब्दों में कहें तो पाकिस्तान विश्व का सबसे खतरनाक देश है, जो 21वीं सदी के तमाम दु:स्वप्नों- आतंकवाद, अस्थिरता, भ्रष्टाचार और परमाणु हथियार से लैस है। फरवरी 2008 के चुनाव के बाद भी सेना का देश पर और आईएसआई का सेना पर दबदबा कम नहीं हुआ। आईएसआई में अर्ध-स्वतंत्र तत्वों ने अपना प्रभामंडल बना लिया है। वहा का माहौल षड्यंत्र और छलकपट से भरा है। पाकिस्तानी सत्ता भी अपनी दुष्टता और खलनायकी के लिए पूरी दुनिया में कुख्यात है। पाकिस्तान में तालिबान के पूर्व राजदूत मुल्ला जईफ के अनुसार, ‘पाकिस्तानी सत्ता के एक मुंह में दो जीभ हैं और एक सिर पर दो चेहरे हैं।’


इतने खतरनाक और कुटिल माहौल में क्या हम मुंबई हमले के दोहराव की आशका से इनकार कर सकते हैं। अगर हमें 26/11 की पुनरावृत्ति से बचना है तो खुद से कुछ सवाल पूछने होंगे। क्या हम अपने शासन तंत्र में सुधार ला रहे हैं और अपनी राजसत्ता की कमियों को दूर करने की दिशा में काम कर रहे हैं? क्या हम बौद्धिक तबके को नई दिशा दे रहे हैं, जो लोगों में नया रुख और दृष्टिकोण पैदा करने में सहायक होगा? मैं भयभीत हूं कि आज कोई भी ये सवाल नहीं पूछ रहा है, जबकि राष्ट्रीय पटल पर मुंबई हमले की स्मृतिया अभी धुंधलाई नहीं हैं।


[अब तक के सबसे घातक आतंकी हमले से भी सरकार को कोई सबक लेते नहीं देख रहे हैं जगमोहन]

Source: Jagran Yahoo

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