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नरेंद्र मोदी के मददगार

संपादकीय ब्लॉग
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राजीव सचानआम चुनावों में अभी देर है, लेकिन देश में काफी कुछ वैसा ही माहौल बन गया है जैसा चुनावों के समय होता है। यह माहौल उन राज्यों में भी है जहां विधानसभा चुनाव नहीं हो रहे हैं। विधानसभा चुनाव वाले पांच राज्यों के अलावा देश के अन्य हिस्सों में हो रहीं नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी की रैलियों ने आम चुनावों की चर्चा को पंख लगा दिए हैं। 2014 का चुनावी संघर्ष मोदी बनाम राहुल में तब्दील होता दिख रहा है। हालांकि अभी राहुल प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं घोषित हुए हैं, लेकिन सभी जान रहे हैं कि कांग्रेस की ओर से उनकी दावेदारी पक्की है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पस्त है और पराभव की ओर बढ़ती दिख रही है, लेकिन वह मैदान से बाहर बिल्कुल भी नहीं है। उसके केंद्र की सत्ता में बने रहने की एक बड़ी संभावना तीसरे मोर्चे की बात करने वाले राजनीतिक दलों ने जगा दी है। पिछले दिनों दिल्ली में एक दर्जन से अधिक दलों का सम्मेलन वस्तुत: कांग्रेस की स्वयंभू बी-टीम का आयोजन था। ये राजनीतिक दल एकजुट होकर या तो कांग्रेस को समर्थन देंगे या फिर उससे लेंगे। यह लेन-देन सांप्रदायिकता विरोध के नाम पर होगा, लेकिन फिलहाल इसके बारे में सुनिश्चित भी नहीं हुआ जा सकता। इस तरह की खिचड़ी का पकना बहुत कुछ भाजपा के प्रदर्शन पर निर्भर करेगा। आम चुनाव में भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभर सकती है, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह अपने मौजूदा सहयोगी दलों के सहारे 272 के जादुई आंकड़े तक पहुंच सकेगी। नरेंद्र मोदी के कद और उनकी लोकप्रियता में बढ़ोतरी नजर आने के बावजूद उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावना में कई किंतु-परंतु अवरोध की तरह खड़े हैं।

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यदि मोदी इन किंतु-परंतु को लांघकर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचते हैं तो इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा, उसके सहयोगी दलों, खुद मोदी और उनके समर्थकों-प्रशंसकों की भागीदारी के साथ ही उनके विरोधियों और खासकर दिग्विजय सिंह, शकील अहमद, मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल, नीतीश कुमार सरीखे नेताओं का भी अच्छा-खासा योगदान होगा। ये और इनके जैसे अनेक छोटे-बड़े नेता नरेंद्र मोदी पर जितनी जोरदारी से शाब्दिक हमले करते हैं वह उतने ही ज्यादा ताकतवर होते दिखते हैं। पुरानी कथाओं-किवदंतियों में ऐसे पात्र आसानी से मिल सकते हैं जो अपने विरोधियों के हमले से शक्ति पाते हों। नरेंद्र मोदी अपने उन विरोधियों से खासतौर पर शक्ति पा रहे हैं जो उन्हें मदांध, मनोरोगी, दंगाई, हिटलर, कचरा वगैरह करार दे रहे हैं। भारतीय जनमानस ऐसा नहीं है कि वह उन लोगों के प्रति गाली-गलौच वाली भाषा का इस्तेमाल पसंद करे जो उसे रास नहीं आते। कटु आलोचना-निंदा वाली भाषा भी शालीनता की मांग करती है, लेकिन शायद मोदी के राजनीतिक विरोधी यह मान चुके हैं कि उनके प्रति किसी भी तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जा सकता है। जो कांग्रेस राहुल के लिए शहजादा शब्द के इस्तेमाल पर भी आगबबूला हो जाती है वह अपने नेताओं के मुख से मजे से मोदी के लिए मदांध, मनोरोगी, हत्यारा जैसे शब्द सुनती दिख रही है। वह इससे आनंदित हो सकती है, लेकिन उसे पता होना चाहिए कि मोदी को नापसंद करने वाले भी इस तरह की भाषा को शायद ही रुचिकर पाते हों।1देश में कोई भी राजनीतिक दल और नेता ऐसा नहीं जो आलोचना से परे हो, लेकिन ऐसा लगता है कि भाजपा विरोधी दलों ने यह मान लिया है कि वे मोदी को कुछ भी कह सकते हैं। चूंकि मोदी गुजरात दंगे के लिए जवाबदेह हैं और वह अपने भाषणों में कई बार तथ्यों से विपरीत दावे भी उछाल देते हैं इसलिए वे सवालों से बच नहीं सकते, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उनके समर्थकों-प्रशंसकों को भी खरी-खोटी सुनाई जाए।


कुछ कांग्रेसी नेताओं ने मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखने की इच्छा जताने के कारण लता मंगेशकर की जिस तरह निंदा की वह हैरान करने वाली है। न केवल इतिहास और राजनीति की उनकी समझ पर सवाल उठाए गए, बल्कि यह भी याद दिलाया गया कि राज्यसभा सदस्य रहते समय किस तरह उन्होंने राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं की। यहां कांग्रेस और भाजपा के बीच एक फर्क देख सकते हैं। जब अमर्त्य सेन की मोदी विरोधी टिप्पणी पर भाजपा के एक नेता ने उनसे भारत रत्न वापस लेने की बेढब मांग की थी तो पार्टी ने उनके बयान से पल्ला झाड़ लिया था। भारत रत्न लता की निंदा पर कांग्रेस मौन है। यह संभवत: अंध मोदी विरोध का दुष्प्रभाव है। क्या कांग्रेसजन देश के हर उस शख्स को लांछित करेंगे जो यह कहेगा कि वह मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे देखना चाहता है? क्या लता मंगेशकर अथवा अन्य जानी-मानी हस्तियों को अपनी राजनीतिक पसंद-नापसंद जाहिर करने का अधिकार नहीं? क्या ऐसी कोई राय जाहिर करने के पहले कांग्रेस से अनुमति लेनी होगी? कृपया विचार करें मदांध कौन है? यहां बुद्धिजीवियों के बीच भी एक फर्क को देखें: अमर्त्य सेन मामले में ढेर के ढेर बुद्धिजीवियों ने अपनी नाराजगी और हैरानी प्रकट की थी, लेकिन लता मंगेशकर मामले में इन सब महानुभावों ने मौन धारण कर लिया है? लगता है वे इससे बिल्कुल अनजान हैं कि लता मंगेशकर को महज इस कारण ङिाड़का गया है, क्योंकि उन्होंने मोदी के प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जताई? पता नहीं बुद्धिजीवियों का निर्धारण कैसे होता है, लेकिन उनका ऐसा व्यवहार ही उन्हें अप्रासंगिक और निष्प्रभावी बनाता है।1शायद असहिष्णुता कांग्रेसियों के स्वभाव में है। याद करें कि उन्होंने किस तरह उस समय अमिताभ बच्चन के खिलाफ हल्ला बोल दिया था जब उन्होंने गुजरात के पर्यटन विभाग का ब्रांड एंबेसडर बनने का फैसला किया था। अमिताभ जब तक सफाई देते कि वह मोदी नहीं, गुजरात के पर्यटन स्थलों का प्रचार करेंगे तब तक महाराष्ट्र के कांग्रेसी उनके बहिष्कार के लिए आगे आ चुके थे।

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इस आलेख के लेखक राजीव सचान हैं

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)


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