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जरूरी है संतुलित खाद्य नीति

संपादकीय ब्लॉग
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Nishikant Thakurपंजाब के पटियाला जिले में अनाज खरीदने वाली किसी एजेंसी ने करोड़ों रुपये मूल्य का गेहूं सड़ जाने के कारण उसे जमीन में दबा दिया। इसकी जानकारी मीडिया को तब हुई जब क्षेत्र के गरीब किसानों ने जमीन में गड़ा अनाज अपने पशुओं को खिलाने के लिए निकालना शुरू किया। फिलहाल बताया यह जा रहा है कि अनाज रखरखाव में लापरवाही के कारण सड़ा। यह मामला न केवल सरकारी धन और संपदा की बर्बादी, बल्कि पूरे देश में व्याप्त खाद्य संकट का भी मजाक उड़ाने जैसा है। इससे इस बात का पता चलता है कि हमारा सरकारी अमला देश की गंभीर समस्याओं और गरीब जनता की मुश्किलों के प्रति कितना संवेदनशील है। पंजाब में इसके पहले भी सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीदा गया लाखों टन अनाज रखरखाव में लापरवाही के ही कारण सड़ जाने का मामला सामने आ चुका है। यह सब केवल पंजाब में होता हो, ऐसा भी नहीं है। कमोबेश पूरे देश में सरकारी एजेंसियों की लापरवाही के कारण ऐसे कई मामले हो चुके हैं। यह अलग बात है कि इनमें से कुछ ही मामले सामने आ पाते हैं और ज्यादातर दबा दिए जाते हैं। जो मामले सामने आ जाते हैं, उनको लेकर भी कोई कार्रवाई होती हो, ऐसा मालूम नहीं हो पाता। आमतौर पर इनकी जांच के लिए कोई कमेटी या आयोग बैठा दिया जाता है और वह अंत तक कोई नतीजा या निष्कर्ष ही नहीं निकाल पाता है।


ऐसे समय में जबकि पूरे देश में अनाज का संकट चल रहा हो, यह मामला आसानी से निपटा दिए जाने लायक नहीं है। इसके सभी पहलुओं पर पूरी तरह विचार किया जाना जरूरी हो ही जाता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इस समय पूरे देश में न केवल अनाज और दालों, बल्कि सभी खाद्य पदाथरें के दाम बेतहाशा बढ़ते जा रहे हैं। यह स्थिति कोई आज से नहीं, पिछले करीब एक दशक से चली आ रही है। आटा, चावल, दाल, सब्जियां, फल, दूध आदि सभी चीजों के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। जब भी महंगाई पर रोक लगाने की बात जनता की ओर से की जाती है तो मंत्रियों का आम तौर पर एक ही जवाब होता है कि अभी यह संभव नहीं है। जनता को महंगाई का सामना करने के लिए आगे भी तैयार रहना चाहिए। विपक्षी दलों समेत तमाम जनसंगठन भी इसकी आलोचना कर लेते हैं और अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। सरकार भी, ऐसा लगता है कि यह सब झेलने की आदी हो चुकी है। सरकार के रवैये से तो यही लगता है कि वह इन बातों की कोई खास चिंता नहीं करती है, न तो अपनी आलोचना और न जनता की मुसीबतों की ही। शायद इसीलिए वह समस्या के समाधान के प्रति कोई गंभीरता भी नहीं दिखाती है। अगर ठीक-ठीक विश्लेषण किया जाए तो विपक्ष और दूसरे संगठनों की स्थिति भी लगभग ऐसी ही दिखेगी। इनमें से अगर कोई भी जनता की समस्याओं के प्रति संवेदनशील और उनके समाधान के प्रति गंभीर होता तो वह केवल हल्ला मचाने के बजाय इनके हल पर विचार करता और कुछ विकल्पों की तलाश करता। सरकार पर सिर्फ जरूरी वस्तुओं का कृत्रिम संकट पैदा करने का आरोप लगाने के बजाय उन वास्तविक कारणों की तलाश करता और उनके प्रति सरकार का ध्यान आकर्षित करता, जिनके कारण खाद्यान्न या दूसरी जरूरी चीजों का संकट पैदा हो रहा है। आज पूरे देश में सभी जरूरी पदाथरें के दाम लगातार बढ़ रहे हैं और आम जनता बेतहाशा बढ़ती महंगाई से परेशान है। इसकी वजह सिर्फ कुछ खास चीजों की कम पैदावार या कुछ व्यापारियों द्वारा की जा रही जमाखोरी भर नहीं है। सरकारी गोदामों में अनाज का सड़ना और उसका जमीन में दबाया जाना इस बात का प्रमाण है कि हमारा सरकारी अमला भी इसके लिए कुछ कम जिम्मेदार नहीं है। अगर यह ठीक ढंग से काम करे और अपनी जिम्मेदारियों का सम्यक निर्वाह करे तो ऐसी स्थितियों से अगर पूरी तरह न भी सही तो भी एक हद तक तो बचा ही जा सकता है। लेकिन इसके पहले कि समाधान की बात की जाए, हमें मौजूदा हालात का ठीक से विश्लेषण करना ही होगा। हमें यह देखना होगा कि गलतियां कहां और क्यों हो रही हैं। हमें अपनी क्षमताओं और संसाधनों को भी आंकना और समझना होगा।


यह बात किसी से छिपी नहीं है कि उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड और उड़ीसा के कुछ जिलों में कई साल से अकाल पड़े होने के कारण लाखों की संख्या में गरीब लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच चुके हैं। क्या यह बेहतर नहीं होता कि अनाज को गलत जगह रखकर सड़ाने के बजाय इन जरूरतमंद लोगों में बांट दिया जाता? तमाम गरीब लोग केवल इसलिए अनाज नहीं खरीद पा रहे हैं कि बढ़े हुए दाम के कारण वह उनकी पहुंच से बाहर हो गया है। फल-सब्जियों का हाल भी यही है। क्या यह बेहतर नहीं होगा कि अनाज को गोदाम में रखकर सड़ाने के बजाय सस्ती दरों पर लोगों को उपलब्ध करा दिया जाता? देश में उपलब्ध अनाज के ही वितरण की व्यवस्था को अगर संतुलित कर लिया जाए तो काफी हद खाद्य संकट को हल कर लिया जाएगा। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि अपनी उपज के भंडारण और उसके रख-रखाव की सही व्यवस्था कर ली जाए। यह सही है कि हमारे पास अनाज भंडारण की पर्याप्त और अच्छी सुविधाएं नहीं हैं। कई दशकों पहले बने अनाज के गोदाम अभी तक पहले जैसी स्थिति में ही बने हुए हैं। न तो उनमें अनाज के भंडारण की स्थिति में कोई बदलाव किया गया है और न पर्याप्त मात्रा में नए गोदाम ही बनाए जा रहे हैं। दूसरी तरफ अनाज का पुराना स्टॉक निकलने के पहले ही नया स्टॉक आ जाता है। अब जिन राज्यों में किसान संगठन मजबूत स्थिति में हैं, वहां अक्सर सरकार धरना-प्रदर्शन से बचने के लिए नया स्टॉक खरीदने के लिए आदेश जारी कर देती है। जबकि उसे रखने के लिए उसके पास जगह होती ही नहीं है। आखिरकार होता यह है कि नया स्टॉक खुले मैदान में या सड़क पर कहीं भी रख दिया जाता है।


जब भी अनाज सड़ता है तो उसके पीछे आम तौर पर यही कारण होते हैं। बाद में सरकारी कर्मचारी अपने को बचाने के लिए सड़ा हुआ अनाज कहीं भी गाड़ने-दबाने में जुट जाते हैं। हमारे सरकारी अमले की वैसे भी आदत हो गई है सिर्फ खानापूरी की। इसलिए देश और आम जनता की वास्तविक जरूरतों की ओर किसी का ध्यान जाता ही नहीं है। सबसे पहली जरूरत तो इस बात की है कि खरीदे गए अनाज के भंडारण की समुचित व्यवस्था बनाई जाए। जिन राज्यों में जैसी जरूरत है, उसी हिसाब से वहां नए गोदाम बनाए जाएं। जब तक यह नहीं हो पाता है तब तक के लिए केंद्र और सभी राज्यों की सरकारों को चाहिए कि मिल-जुल कर एक आम सहमति वाली खाद्य नीति तैयार करें। इसके तहत इस बात का पहले से आकलन करें कि इस साल पूरे देश में कुल कितना अनाज पैदा होगा और उसके भंडारण की हमारे पास क्या व्यवस्था है। किन राज्यों में कितने अनाज के भंडारण की सुविधा है। तमाम जगहों पर भंडारण के बाद भी अगर अनाज बच जाता है तो उसे तुरंत उन जगहों पर बांट दिया जाए, जहां अकाल जैसी स्थिति है। कम से कम इतना तो हो ही जाएगा कि अनाज बर्बाद नहीं होगा और लोग भुखमरी के शिकार भी नहीं होंगे।


लेखक निशिकान्त ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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