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संकट में लोकतंत्र

संपादकीय ब्लॉग
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Nishikant Thakurदेश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही राजनीतिक पार्टियों में उखाड़-पछाड़ का उपक्रम शुरू हो गया है। ऐसा नहीं है कि यह सब यहां पहली बार हो रहा है। सच तो यह है कि विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा, हर बार यह पूरी प्रक्रिया हर जगह होती है। सभी पार्टियां अपने को पूरी तरह पाक-साफ बताती हैं और सभी उम्मीदवार अपने को सबसे योग्य तथा जनता की सेवा के प्रति कटिबद्ध बताते हैं। जब तक वे जिस दल में होते हैं तब तक हर हाल में उसके गुणगान करते हैं। वे उस दल में क्यों हैं, इसके पीछे उनके पास एक हजार तर्क होते हैं। दूसरे दलों पर वार का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। अपने दल के पक्ष और दूसरे के विरोध में बयानबाजी ऐसे करते हैं गोया वे अपने दल की ही नीतियों और सिद्धांतों के प्रति समर्पित हैं, लेकिन जैसे ही वे कोई दल छोड़ते हैं, सारे सिद्धांत दरकिनार हो जाते हैं। फिर उन्हें दूसरी पार्टी के सिद्धांत उतने ही प्रिय लगने लगते हैं, जितने कि इसके पहले पहली पार्टी के होते हैं।


अकसर यही देखा जाता है कि अपना दल छोड़कर नेता निकटतम प्रतिस्पर्धी विरोधी पार्टी में शामिल होते हैं। अगर सबसे मजबूत प्रतिस्पर्धी पार्टी में जगह नहीं मिलती है तभी वे किसी अन्य पार्टी में स्थान तलाशने की कोशिश करते हैं। सिद्धांतों और बयानों के हिसाब से देखा जाए तो होता यही है कि नेता किसी पार्टी में रहते हुए अपनी सबसे प्रमुख प्रतिस्पर्धी पार्टी के ही खिलाफ सबसे ज्यादा बोलते हैं। एक पार्टी छोड़ देने के बाद जब वे दूसरी उसी पार्टी में शामिल होते हैं, जिसके विरुद्ध पहले सबसे ज्यादा बोल रहे होते हैं, तो यह समझना मुश्किल हो जाता है कि कौन सही है- यह पार्टी या वह पार्टी? मतदाताओं के लिए यह बड़ी दुविधा की स्थिति होती है। उनके लिए यह तय करना बेहद कठिन हो जाता है कि वे किसे और क्यों चुनें। बात केवल दलगत सिद्धांतों और राजनैतिक प्रतिबद्धताओं की ही नहीं, उम्मीदवारों के अपने चरित्र और उनकी अपनी सक्रियताओं को लेकर भी मतदाताओं को कई बार सोचना पड़ता है। यह अलग बात है कि भारत में चुनाव के दौरान निर्दलीय उम्मीदवारों को भी पर्याप्त महत्व दिया जाता है, लेकिन सच यह है कि इतने बड़े लोकतांत्रिक देश में पार्टियों की उपेक्षा करके किसी क्षेत्र के समग्र विकास की बात सोची ही नहीं जा सकती है। क्योंकि किसी भी बड़े लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक व्यवस्था के ढांचे का प्रमुख अंग हैं पार्टियां।


खासकर भारत में अगर राजनीतिक पार्टियों के विकासक्रम पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि यहां प्रमुख राजनीतिक पार्टियों का उदय देश की सामाजिक-राजनीतिक जरूरतों के मद्देनजर हुआ है। कम से कम शुरुआती स्तर पर इनके मूल में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं कम, सामाजिक आवश्यकताएं ही ज्यादा महत्वपूर्ण रही हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछले तीन-चार दशकों में सभी पार्टियां अपने महत्तर उद्देश्यों से पीछे हटी हैं। चुनाव में सफलता हासिल करने के लिए सभी पार्टियां वह सब करने लगी हैं जो उन्हें नहीं करना चाहिए। सिद्धांतों की स्थिति यह है कि वे अब मंचों पर भाषण देने तक के लिए नहीं बचे हैं। उनका अस्तित्व अब सिर्फ घोषणापत्रों और फाइलों तक ही सीमित होकर रह गया है। न तो किसी को पार्टी में शामिल करने के लिए उसकी नीतियों-सिद्धांतों पर गौर करने की जरूरत समझी जाती है और न ही किसी को पार्टी से निकालने के पहले पार्टी के कार्यो में उसके योगदान और सिद्धांतों के प्रति उसके समर्पण के बारे में सोचने की जरूरत समझी जाती है। कई बार तो पार्टी सिद्धांत के प्रति समर्पित नेताओं को ही बाहर का रास्ता केवल इसलिए दिखा दिया जाता है कि वह पार्टी के बड़े नेताओं के सिद्धांतों से विचलन का विरोध कर रहे होते हैं और लोगों को इस बात पर कोई हैरत नहीं होती है।


भारतीय राजनीति में इस प्रवृत्ति की शुरुआत इमरजेंसी के आसपास हुई। तब जब कुछ बड़े राजनेताओं ने खुद को ही पूरी राजनीतिक व्यवस्था की धुरी मान लिया। उन्हें राजनीति जनसेवा के संकल्प के बजाय मुनाफे का एक धंधा नजर आने लगी और ऐसे ही राजनेताओं ने पार्टियों को जागीर की तरह पुश्तैनी संपत्ति बनाना शुरू कर दिया। सबने अपने-अपने बेटे-बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए नीतियों-सिद्धांतों को ताक पर रखना शुरू कर दिया। पार्टियों के भीतर जिन नेताओं ने इसका विरोध किया, उन्हें बाहर का रास्ता देखना पड़ा और हर हाल में पार्टी प्रमुखों की हां में हां मिलाने वालों को भरपूर तरजीह दी गई। जाहिर है, यह पार्टियों के भीतर लोकतंत्र के खात्मे की शुरुआत थी और इसके साथ सैद्धांतिक राजनीति के सफाए की प्रक्रिया भी शुरू हो गई। अब जो दल-बदल को इस बीभत्स रूप में हम देख रहे हैं, वह वास्तव में इसका ही नतीजा है।


भाई-भतीजावाद का ही नतीजा है कि जब भी चुनाव आते हैं और टिकटों का बंटवारा शुरू होता है, समर्पित कार्यकर्ताओं और योग्य उम्मीदवारों की अनदेखी शुरू हो जाती है। इसमें बाजी अकसर वे लोग मार ले जाते हैं जिनके रिश्तेदार पार्टी में अच्छी हैसियत में होते हैं या फिर जिनके बड़े लोगों से अच्छे संबंध होते हैं। जाहिर है, रिश्तों या चापलूसी के दम पर एक-दो बड़े नेताओं को प्रभावित किया जा सकता है, लेकिन आम जनता को प्रभावित कर पाना संभव नहीं होता है। आम जनता को प्रभावित करने के लिए क्षेत्र में काम करना जरूरी होता है, जो केवल टिकट मिलने के बाद एक-दो महीने में कर पाना संभव नहीं होता है। ऐसी स्थिति में एक ही उपाय बचता है और वह है किसी न किसी रूप में वोटों की खरीदारी। इसीलिए चुनाव के दौरान राजनेता कहीं पैसे बांटते हैं तो कहीं कंबल और कहीं कपड़े या कुछ और। चुनाव निकट आने के बाद यह सब किया जाना वोटों की खरीदारी की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं है।


इन चुनावों में भी यह सभी कोशिशें उफान पर हैं। निर्वाचन आयोग के निर्देश पर अब तक 21 करोड़ से अधिक की नकदी केवल पंजाब और उत्तर प्रदेश से पकड़ी जा चुकी है। इनमें 14 करोड़ 31 लाख रुपये अकेले पंजाब से पकड़े जा चुके हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त को यहां तक कहना पड़ा कि उत्तर प्रदेश, पंजाब और गोवा चुनाव में धन के मोर्चे पर हमारे सामने दिक्कतें पेश आएंगी, क्योंकि वहां धन बड़ी भूमिका निभाता है। कुछ बड़े राजनेताओं और निर्वाचन आयोग के बीच आरोप-प्रत्यारोप की स्थिति भी कहीं-कहीं देखी जा रही है। निर्वाचन आयोग बार चुनाव सुधार लागू किए जाने की मांग कर रहा है और सरकार उसे किसी न किसी बहाने टालती जा रही है। यह सब लोकतंत्र के लिए सुखद नहीं है। इससे लोकतंत्र का मूल उद्देश्य ही खतरे में पड़ता दिखाई दे रहा है और चुनाव सिर्फ औपचारिकता बन कर रह जा रहे हैं। बेहतर यह होगा कि हमारे राजनेता संविधान निर्माताओं की मूलभूत मंशा को समझें और उसके ही अनुरूप कार्य करें।


लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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