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क्या शासन का इतना ही है दायित्व – परमाणु दायित्व विधेयक

संपादकीय ब्लॉग
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भारतीय संसद के निचले सदन लोकसभा में परमाणु दायित्व विधेयक कई संशोधनों के बाद पारित हो गया. पिछले काफी समय से हो रहे बवाल के बाद यूपीए सरकार के लिए यह एक बड़ी राहत थी लेकिन आम जनता को यह बड़ा ही हास्यपद लगा कि आखिर भाजपा किस तरह थोड़े से बदलाव यानी मुआवजे की राशि को 500 करोड़ की जगह 15 सौ करोड़ करवा कर इस बिल को पारित करने के लिए राजी हो गई.


देश ने हाल ही में भोपाल कांड की बरसी मनाई और उसके दिल में एक बडा जख्म फिर से हरा हो गया कि आखिर क्यों भोपाल कांड के पीडितों को आज तक इंसाफ नही मिला और मुआवजे की रकम कहां है? दरअसल जब भोपाल कांड हुआ था तब देश में परमाणु या रासायनिक उद्योगों पर उतना जुर्माना नहीं था जिससे इस कांड के पीड़ितों की सहायता की जा सके. अब आने वाले समय में देश में कई नए परमाणु संयंत्र लगने वाले हैं तो सरकार पहले ही इस समस्या से निपट लेना चाहती है.


nuclear libiality bill
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परमाणु दायित्व विधेयक-2010 क्या है?


परमाणु दायित्व विधेयक -2010 ऐसा क़ानून बनाने का रास्ता है जिससे किसी भी असैन्य परमाणु संयंत्र में दुर्घटना होने की स्थिति में संयंत्र के संचालक का उत्तरदायित्व तय किया जा सके. इस क़ानून के ज़रिए दुर्घटना से प्रभावित लोगों को क्षतिपूर्ति या मुआवज़ा मिल सकेगा.


भारत में इस विधेयक की जरुरत इसलिए पड़ी क्योंकि अमरीका और भारत के बीच अक्टूबर 2008 में असैन्य परमाणु समझौता किया गया. इस समझौते को ऐतिहासिक कहा गया था क्योंकि इससे परमाणु तकनीक के आदान-प्रदान में भारत का तीन दशक से चला आ रहा कूटनीतिक वनवास ख़त्म होना था. लेकिन इस समझौते के बाद अमरीका और अन्य परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों से भारत को तकनीक और परमाणु सामग्री की आपूर्ति तब ही शुरु हो सकती थी जब वह परमाणु दायित्व विधेयक के ज़रिए एक क़ानून बना लेता.


इस विधेयक के आरंभिक प्रारुप में प्रावधान किया गया है कि क्षतिपूर्ति या मुआवज़े के दावों के भुगतान के लिए परमाणु क्षति दावा आयोग का गठन किया जाएगा. विशेष क्षेत्रों के लिए एक या अधिक दावा आयुक्तों की नियुक्ति की जा सकती है.


nuclear libiality bill
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क्या थी दिक्कत इस विधेयक में


विधेयक के शुरुआती प्रारुप पर अगर नजर डाला जाए तो ऐसा लग रहा था कि सरकार को देश की कोई फिक्र ही नहीं रही. दुर्घटना की स्थिति में जो हर्जाना रखा गया था उस पर सभी को आपत्ति थी. पहले इसके लिए विधेयक में संचालक को अधिकतम 500 करोड़ रुपयों का मुआवज़ा देने का प्रावधान था. जिस देश के देखते हुए यानी अमेरिका की तर्ज पर हम इस विधेयक को ला रहे थे वहां हर्जाने की रकम 15 हजार करोड़ से भी ज्यादा थी और अधिकतम हर्जाने की सीमा कुछ भी नहीं थी यानी यह रकम बड़ी भी हो सकती थी.


दूसरा विवाद मुआवज़े के लिए दावा करने की समय सीमा को लेकर था. पहले इस सीमा को मात्र 10 वर्ष रखा गया था.


तीसरा विवाद असैन्य परमाणु क्षेत्र में निजी कंपनियों को प्रवेश देने को लेकर था यानी कोई भी निजी कंपनी इस क्षेत्र में आ सकती थी जिससे स्वयं के मुनाफे की बात आ जाने का डर था.


आख़िरी विवाद का विषय अंतरराष्ट्रीय संधि, कन्वेंशन फॉर सप्लीमेंटरी कंपनसेशन(सीएससी) पर हस्ताक्षर करने को लेकर था यानी किसी भी दुर्घटना की स्थिति में दावाकर्ता सिर्फ़ अपने देश में मुआवज़े का मुक़दमा कर सकेगा. यानी किसी दुर्घटना की स्थिति में दावाकर्ता को किसी अन्य देश की अदालत में जाने का अधिकार नहीं होगा.


इस विधेयक का यह तत्व सबसे ज्यादा विरोध के वजह बना हुआ था.


क्या-क्या हुआ है बदलाव


भारतीय जनता पार्टी की आपत्ति के बाद सरकार ने मुआवजे की राशि को तीन गुना करके 1500 करोड़ रुपए करने को मंज़ूरी दे दी है. साथ ही सरकार ने अब दावे की समय सीमा बढ़ाकर 10 वर्ष से 20 वर्ष कर दिया है.

सरकार ने यह भी मान लिया है कि फ़िलहाल असैन्य परमाणु क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए नहीं खोला जाएगा और सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम ही इस क्षेत्र में कार्य करेंगे.


इरादा शब्द पर आपत्ति

शुरु में विधेयक की धारा 17 बी में लिखा हुआ था कि किसी दुर्घटना की स्थिति में उपकरण और ईंधन आदि की आपूर्ति करने वाले की ज़िम्मेदारी तभी होगी जब यह साबित हो जाए कि ऐसा ‘जानबूझ कर’ या ‘इरादतन‘ किया गया हो.


विपक्षी दलों का कहना था कि ऐसा लिखने से आपूर्तिकर्ता पर ज़िम्मेदारी साबित करना कठिन हो जाएगा.


सरकार ने मूल विधेयक में नया संशोधन पेश करते हुए अब 17 (बी) उपबंध में ‘इरादतन’ शब्द को हटा दिया है और इसके स्थान पर ‘आपूर्तिकर्ता या उसके कर्मचारियों के कार्य के मद्देनजर परमाणु दुर्घटना जो घटिया या त्रुटिपूर्ण उपकरण, सामग्री या सेवा के कारण हुई हो’ को रखा है.


हालांकि अब भी इरादा शब्द की जगह इंटेंट का उपयोग किया गया है जिससे कुछ सवाल मन में उभरते हैं. स्थायी समिति ने सिफारिश की है कि अनुच्छेद-17 (बी) को इस रूप में पढ़ा जाना चाहिए कि परमाणु दुर्घटना जाने-अनजाने, खराब सामग्री की आपूर्ति, खराब उपकरण या सेवाओं की आपूर्ति या सामग्री, उपकरण एवं सेवा के मामले में आपूर्तिकर्ता की लापरवाही के कारण हुई है.


अब भी तो यह काफी नहीं

अब सवाल यह है कि क्या सिर्फ इतने से ही किसी दुर्घटना की क्षतिपूर्ति की जा सकती है. भाजपा और अन्य विपक्षी दलों ने क्या सिर्फ इस छोटे से बदलाव के लिए ही इतना होहल्ला कर रखा था.


1500 करोड़ की अधिकतम राशि यानि अगर दुबारा भोपाल कांड जैसा कुछ हुआ तो वही नजारा होगा, वही पीडित हर्जाने के लिए दुबारा दर दर भटकेंगे.

आखिर सिर्फ सौ करोड़ की राशि बढाने से क्या होगा. क्या इससे देश का कुछ हो सकता है?

अंतरराष्ट्रीय संधि (सीएससी) के बारे में कुछ क्यों नहीं सोचा गया क्योंकि यही सबसे बुरा बिंदु था. देश की सरकार और विपक्ष को इसके बारे में जरा भी ध्यान नहीं रहा.


कहीं इस विधेयक को पारित कर हम अमेरिका के बनाए रास्ते में फंस तो नहीं जाएंगे.


देश की सरकार से हम सभी को यही उम्मीद है कि वह जनता के हितों को ध्यान में रखकर जो करना है करे ताकि आने वाले समय में भोपाल कांड जैसा कांड दुबारा हो ही ना और अगर हो तो पीडितों को मुआवजे के लिए दर-दर की ठोकरें न खानी पड़ें.


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