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एबटाबाद में दस लाख डॉलर की लागत से तैयार जिस शानदार कोठी में ओसामा पिछले पांच साल से रह रहा था, सीआइए उसे एक साल तक खोज नहीं पाई। उसकी क्षमताओं पर बहस स्वाभाविक है। अनुपयुक्त नामकरण वाले ऑपरेशन जेरोनिमो ने लैंगले के इलेक्ट्रानिक निगरानी पर अतिनिर्भरता वाले सिद्धांत पर पुनर्विचार को मजबूर कर दिया है। फिर भी सीआइए ने साबित कर दिया है कि हालात की मांग के अनुसार वह पुराने तौरतरीकों वाले जासूसों और मुखबिरों के तंत्र के बल पर जानकारी जुटा सकता है। अमेरिका महज अपनी क्षमता के बल पर पाकिस्तान की खोह से सबसे गहरा राज निकालने में कामयाब नहीं हुआ है। इतना ही महत्वपूर्ण यह वैश्विक बोध है कि उसके पास खुफिया तंत्र के बल पर कार्रवाई करने की क्षमता है, फिर वे चाहे ड्रोन हमले हों या फिर जाबांज विशेष अभियान।
यह सच है कि एबटाबाद हमले में पाकिस्तान की संप्रभुता का उल्लंघन हुआ है और अगर यह ऑपरेशन विफल हो जाता तो अमेरिका को न केवल शर्मिदगी उठानी पड़ती, बल्कि वह जगहंसाई का पात्र भी बन जाता। इसमें निहित जोखिम का अनुमान पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर के समय ईरान रिवोल्युशनरी गार्ड्स द्वारा बंधक बनाए गए अमेरिकियों को छुड़ाने वाले ऑपरेशन से लगाया जा सकता है, जो एक विनाश में बदल गया था। इसलिए इस ऑपरेशन को हरी झंडी देकर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जिस दूरदर्शिता का परिचय दिया, उससे उनकी लोकप्रियता बढ़ी है।
यह देखना दिलचस्प है कि अकेले एक अभियान की सफलता ने न केवल अमेरिका, बल्कि इसके सहयोगी देशों का भी मनोबल बढ़ा दिया है। उदाहरण के लिए ब्रिटेन के सैन्य प्रमुख जनरल डेविड रिचर्ड्स ने कहा है कि सफल एबटाबाद अभियान का निश्चित तौर पर लीबिया में कर्नल गद्दाफी के खिलाफ जारी ऑपरेशन पर भी सकारात्मक असर पड़ेगा। उन्होंने कहा कि यह समान सोच वाले लोगों को, वे चाहे जहां भी हों, याद दिलाता रहेगा कि उनकी करनी का फल उन्हे जरूर मिलेगा। यह लीबिया और मध्यपूर्व के अन्य देशों के संदर्भ में मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है। ये वही रिचर्ड्स है जिन्होंने नवंबर 2010 में स्वीकार किया था कि अलकायदा और इस्लामिक उग्रवाद को हराना संभव नहीं है। इस पर अंकुश ही लगाया जा सकता है। केवल रिचर्ड्स की सोच में ही बदलाव नहीं आया है। दीर्घावधि में ही ऑपरेशन जेरोनिमो निश्चित तौर पर पश्चिम के पराजय बोध के ज्वार को उतार देगा, जो पाकिस्तान के दोहरे चरित्र के कारण पैदा हुआ था। लेकिन सवाल है कि यह कितने समय तक रहेगा? जैसे-जैसे ओसामा बिन लादेन के मारे जाने का ब्यौरा सामने आ रहा है, यह अधिकाधिक स्पष्ट होता जा रहा है कि अमेरिकी यह जान चुके है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर जरा भी हिचक का कोई स्थान नहीं है। 2008 में ओबामा अपनी पृष्ठभूमि व आतंक के खिलाफ बुश के युद्ध के खिलाफ जनमानस के कारण अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए थे। हालांकि अब यह स्पष्ट हो चुका है कि लादेन ऑपरेशन का आधार पिछले शासन में ही सुनिश्चित कर दिया गया था। अगर ग्वांतेनामो खाड़ी में कैदियों से विशेष पूछताछ पद्धति से सच न उगलवाया जाता तो सीआइए को ओसामा के विश्वासपात्र संदेशवाहक का नाम पता नहीं चल पाता और अगर उसकी पहचान नहीं खुल पाती तो अमेरिका ओसामा बिन लादेन तक नहीं पहुंच पाता।
आधिकारिक खुलासों ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि एबटाबाद में इतनी गोलीबारी नहीं हुई थी कि इसे मुठभेड़ कहा जा सके। इस श्रापित भवन में रहने वालों में से केवल एक व्यक्ति ने अमेरिकी सैनिकों का बंदूक से मुकाबला करने की कोशिश की। बाद में यह स्वीकार कर लिया गया कि ओसामा निहत्था था और अपने नई यमनी पत्नी की आड़ में बचने का प्रयास कर रहा था। इसका नाटकीय परिणाम सामने आया-ओसामा को मार गिराया गया। उसकी मौत साफ तौर पर न्यायिक कसौटी के आधार पर उपयुक्त नहीं थी और फिर भी ओबामा ने ऑपरेशन का श्रेय लिया और इसमें शामिल कमांडो का अभिनंदन किया। अमेरिका की नजर में जिन लोगों ने देश के सर्वाधिक वांछित आतंकी की जान ली वे देश के नायक है।
ऑपरेशन जेरोनिमो को जॉन वेन या क्लिंट ईस्टवुड अभिनीत काऊब्वॉय फिल्म का आधुनिक संस्करण कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा। किंतु क्या यह नैतिक रूप से गलत था? अगर ओसामा जिंदा पकड़ा जाता और तब उस पर न्यूयॉर्क की अदालत में या जैसा कि कुछ लोग दलील देते है, नूरेमबर्ग सरीखा मुकदमा चलता तो क्या ओबामा और इस अभियान में शामिल लोगों पर भी कानून का उल्लंघन करने और किसी देश की सीमा उल्लंघन का अभियोग भी चलता? क्या अमेरिका में ओसामा की मौत की जांच के लिए भारत के इशरत जहां कांड की तर्ज पर विशेष जांच दल सरीखी किसी टीम का गठन होता।
अमेरिका इस तरह के सवालों को हंसी में उड़ा देगा। यह उसके पाकिस्तान के संप्रभुता के हनन के विरोध के आरोप को हवा में उड़ाने से साफ हो जाता है। ओसामा की मौत से पता चल जाता है कि अंतत: प्रभावी आतंकवाद विरोध में राष्ट्रीय चरित्र प्रतिबिंबित होता है। इस अभियान से भारत को क्या सीख मिली, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। हमारे पास शत्रुओं से टकराने की इच्छाशक्ति ही नहीं है। इसीलिए हम हमेशा से कमजोर निशाना बने हुए है।
[स्वप्न दासगुप्ता: लेखक वरिष्ठ स्तंभकार है]
साभार : जागरण नज़रिया
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