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ओसामा बिन लादेन का खात्मा कर अमेरिका ने लगभग एक दशक देर से ही सही, लेकिन अपने अपमान का बदला जरूर ले लिया है। इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के खात्मे के बाद अमेरिका ने दूसरी बार साबित किया है कि अमेरिका के दुश्मन को नेस्तनाबूद करने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है। इसके लिए उसे ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ के आरोपों और तमगों से भी परहेज नहीं। अमेरिका के लिए एक अंतिम सत्य है ‘नेवर फारगेट एंड नेवर फारगिव’ यानी न भूलेंगे न माफ करेंगे। जिस पाकिस्तान का सरपरस्त खुद अमेरिका है वहीं पनाह पाए अपने सबसे बड़े दुश्मन बिन लादेन को ढेर करने के लिए उसने मित्र देश की संप्रभुता का लिहाज भी नहीं किया। इस कार्रवाई से उसने एक बार फिर अपने सबसे ताकतवर मुल्क के रुतबे को तो बचा लिया है, मगर आतंकवाद पर अपने दो चेहरों के लिए उसे न सिर्फ भारत, बल्कि दूुसरे मुल्कों के सामने कई जटिल सवालों के जवाब देने होंगे। भारत के लिए ओसामा के खिलाफ हुई कार्रवाई में कई सुखद निहितार्थ छिपे हैं। ओबामा के शब्दों को ही इस्तेमाल करते हुए गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने पाकिस्तान को आतंकवादियों का अभ्यारण्य बताने में जरा देर भी नहीं लगाई। आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय नेतृत्व इस अवसर का जमकर कूटनीतिक लाभ उठाए। हालांकि, इसके लिए अमेरिका जैसी संकल्प शक्ति और दुश्मनों को न भूलने की आदत भी डालनी ही पड़ेगी। वास्तव में आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका को दोहरा रुख छोड़ने पर मजबूर करने के लिए भारत के पास इससे मुफीद वक्त शायद ही आए।
ध्यान रहे कि ओसामा अमेरिका की नजर में सिर्फ एक व्यक्ति से कहीं अधिक विध्वंसक विचारधारा का प्रतीक भी था। इसके बावजूद अमेरिका का पूरा खुफिया तंत्र पिछले एक दशक से उसे ढूंढ पाने में असफल हो रहा था। यह वाकई अविश्वसनीय था कि ओसामा इस पूरे दशक में कम से कम सौ लोगों के साथ सघन संपर्क में था और हर बड़े मौके पर वह अपने वीडियो और ऑडियो भाषणों से अमेरिका के घावों पर नमक भी छिड़कता था। यह ओबामा के लिए निजी तौर पर भी अत्यधिक अपमानजनक बात थी, क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में अमेरिका के दक्षिणपंथियों ने ओबामा को ओसामा से जोड़ने और यहां तक कि उसे ओसामा के वेष में दिखाने के कार्टूनों से भी परहेज नहीं किया। हिलेरी क्लिंटन तक ने अपने प्रचार के दौरान ओबामा के अमेरिका में पैदा होने और उनके नाम के बीच हुसैन शब्द होने की ओर इशारा भी किया था।
इस कार्रवाई से यह संशय भी समाप्त हुआ है कि लादेन के विरुद्ध ठोस कार्रवाई करने में या तो अमेरिका अक्षम है या वह किसी सौदेबाजी की वजह से अपने पैर पीछे खींच रहा है। अमेरिका असंदिग्ध रूप से विश्व की अकेली महाशक्ति है। वह सदैव से ही अपने को दुनिया का ‘दबंग’ दिखाने की कोशिश में लगा रहा है। चाहे वह सीटीबीटी हो, क्योटो प्रोटोकॉल हो, युद्ध अपराध संबंधी कन्वेंशन हो या मृत्युदंड का मामला हो, वह अपने ही विचार पूरी दुनिया पर लादने पर आमादा रहता है, लेकिन स्वयं किसी भी प्रकार के प्रतिबंध की धज्जियां उड़ाने में संकोच नहीं करता। अमेरिकी नियो-कॉन इस प्रभुतावादी अकड़ को गर्व से एकतरफावाद, अलगाववाद और अपवादवाद जैसे महिमामंडित विचारों से उचित ठहराते रहे। इतनी जबर्दश्त ताकत के बावजूद अमेरिका ओसामा को ढूढ़ नहीं पा रहा था। कई विशेषज्ञ जो अमेरिका को अक्षम नहीं मानते थे वे यह मानने लगे थे कि यूएस और ओसामा के बीच में मध्यस्थता के लिए कोई खुफिया सौदेबाजी हुई है। इसके तहत अमेरिका ने ओसामा पर सीधे हमला न करने का अनौपचारिक आश्वासन दिया है तो बदले में अल कायदा ने भी अमेरिका को सीधा निशाना नहीं बनाने का भरोसा दिया है। ओसामा को मार कर अमेरिका ने इन सभी आरोपों को ठुकरा दिया। कहा तो यह भी जा रहा था कि अमेरिका ओसामा के खिलाफ कार्रवाई से इसलिए भयभीत था, क्योंकि उसके खात्मे की प्रतिक्रिया में उसके व्यावसायिक हित प्रभावित होंगे, मुस्लिम विश्व में उसके खिलाफ भावना भड़केगी और सऊदी अरब और पाक जैसे अमेरिका परस्त मुस्लिम देश अमेरिका पर इस निर्णायक कार्रवाई तक नहीं जाने के लिए दबाव डाल रहे हैं।
सबसे आश्चर्य की बात यह है कि जिस आतंकी समूह को तोरा-बोरा की गुफाओ, डूरंड लाइन की आर-पार की दुर्गम पहाड़ियों में ढूंढ़ा जा रहा था वह पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के निकट एबटाबाद के बिलाल कस्बे में शानो-शौकत के साथ रह रहा था। अब पाकिस्तान किसी भी तरह से दुनिया की आंखों में धूल नहीं झोंक सकता। पाकिस्तान के सैन्य विशेषज्ञ इकराम सहगल इस अक्षम्य अपराध पर यह कह कर लीपा-पोती कर रहे हैं कि ओसामा अपनी बीमारी का इलाज कराने आया था। पाकिस्तान यह भी तर्क देने में लगा है कि वास्तव में यह कार्रवाई उनके अपने खुफिया तंत्र के देख-रेख में हुई, लेकिन वहां के क˜रपंथियों की हिंसक प्रतिक्रिया की आशंका के कारण सेना और दूसरी सरकारी एजेंसियां इस अभियान से अपने को जोड़ने से बच रही हैं। आतंकी गतिविधियों और अल कायदा-तालिबानी कार्रवाइयों के पीछे पाकिस्तान का अप्रत्यक्ष सहयोग हमेशा रहा है। अफगानिस्तान की तालिबानी सरकार को मान्यता देने वाले दो देशों में पाकिस्तान भी एक था। उस समय अमेरिका भी इन विध्वंसक जेहादी गतिविधियों को नजर अंदाज कर पाकिस्तान को बचाता रहा। भारत के लाख विरोध के बावजूद अमेरिका ने तालिबान विरोधी कार्रवाई के नाम पर पाकिस्तान को ऐसे हथियार दिए हैं जो आतंकवाद विरोधी गुरिल्ला कार्रवाई में कतई काम नहीं आने वाले। पूरी दुनिया जानती है कि इन बड़े और उच्च तकनीक वाले हथियारों का इस्तेमाल पाकिस्तान सिर्फ भारत के विरुद्ध ही कर सकता है।
[प्रशांत मिश्र: लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक है]
साभार: जागरण नज़रिया
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