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पाकिस्तान का कट्टर चेहरा

संपादकीय ब्लॉग
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अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शहबाज भट्टी की हत्या से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि पाकिस्तान में सहनशीलता की संस्कृति का अंत हो गया है। पाकिस्तान सरकार में शहबाज भट्टी अकेले गैर मुस्लिम मंत्री थे। उनकी हत्या से पाकिस्तान सरकार से अल्पसंख्यकों का भरोसा उठ गया है। वे हर पल असुरक्षा के माहौल में जीने को अभिशप्त हैं। भट्टी की हत्या के बाद पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों का कोई अभिभावक नहीं रहा। जरदारी प्रशासन देश के अल्पसंख्यकों के इस खोए हुए भरोसे को लौटा सकेगा, यह उम्मीद भी दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही है। शहबाज भट्टी की हत्या से चरमपंथ और आतंकवाद को खत्म करने के पाकिस्तान सरकार के इरादे पर भी प्रश्नचिह्न लगा है। भट्टी की हत्या से साफ है कि तालिबानी ताकतों पर पाकिस्तानी सरकार का नियंत्रण नहीं रह गया है।


शहबाज भट्टी को ईशनिंदा कानून में सुधार के लिए अभियान चलाने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी है। भट्टी ने आसिया बीवी का भी समर्थन किया था। शहबाज भट्टी जैसी ही कीमत पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तसीर को भी दो माह पहले चार जनवरी को चुकानी पड़ी थी। तसीर के बाद भट्टी की हत्या से समूची दुनिया में पाकिस्तान की प्रतिष्ठा पर बट्टा लगा है। तसीर व भट्टी के बाद अब पूर्व सूचना व प्रसारण मंत्री शेरी रहमान की जान भी खतरे में है। इन्हीं तीन राजनेताओं ने ईशनिंदा कानून में सुधार की मांग की थी और तभी ये तालिबान के निशाने पर आ गए थे।


चरमपंथियों ने तसीर व भट्टी को सीधे-सीधे निशाना नहीं बनाया, बल्कि इन्हें पहले बाकायदा धमकियां दीं। वे दोनों सत्तारूढ़ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता थे। अब शेरी रहमान की सुरक्षा पार्टी व सरकार के लिए कड़ी चुनौती है। यह चुनौती इसलिए कड़ी है क्योंकि फौज का तालिबान को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन हासिल है। चरमपंथियों को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का भी समर्थन हासिल है। इसीलिए भट्टी की हत्या की जिम्मेदारी लेने वाले तालिबान के खिलाफ पाकिस्तान सरकार ने अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की है। फियादीन ए मोहम्मद व पंजाब अलकायदा ने पर्चा जारी कर कहा है कि जो भी पैगंबर मोहम्मद का अपमान करेगा, उसका वही हश्र होगा जो शहबाज भट्टी का हुआ। इसके बावजूद उन संगठनों के कर्णधारों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। कहने की जरूरत नहीं कि तालिबानी ताकतों की हरकतों की निंदा के लिए भी जो राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए, उसका पाकिस्तान में अभाव दिखता है। विपक्षी जमात ए इस्लामी ने तो उल्टे आतताइयों की कार्रवाई का समर्थन किया है।


पाकिस्तान में चरमपंथ का जो भी नाम हो-अलकायदा, तालिबान या लश्कर ए तैयबा, उसका मकसद पूरे पाकिस्तान में पंथिक कट्टरता आधारित आतंकवाद फैलाना है। सत्ताधारी दल के नरम रुख के कारण समूचा पाकिस्तान तालिबान के लिए निरापद पीठ बना हुआ है। इसी कारण एक तरफ तालिबान की ताकत बढ़ी है तो दूसरी तरफ सरकार की दुर्बलता जगजाहिर हुई है। तालिबानी ताकतों के विरोध प्रदर्शनों से घबराई पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने ईशनिंदा कानून में संशोधन के फैसले से अपने कदम पीछे खींच लिए तो उससे सरकार की कमजोरी ही सामने आई थी और चरमपंथियों का मनोबल बढ़ गया था।


यदि पाकिस्तान सरकार चरमपंथियों के सामने नहीं झुकती और ईशनिंदा कानून में संशोधन के अपने फैसले पर अडिग रहती तो आज धर्माधता के खिलाफ खड़ा होने में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को सहूलियत होती। जरदारी प्रशासन की दुर्बलता दूसरे शब्दों में लोकतंत्र की दुर्बलता भी है। पाकिस्तान इस मामले में बड़ा अभागा देश है कि वहां एक समूची पीढ़ी सैनिक शासन में पली और बड़ी हुई। लोकतंत्र के लिए वह देश आज भी नौसिखिया है। लोकतंत्र के कमजोर होने के कारण ही वहां धर्माध ताकतें फल-फूल रही हैं। वहां लोकतंत्र बंदूक की नोक पर चल रहा है।


कट्टरता के पोषण के लिए आज पूरे पाकिस्तान को विपन्न कर दिया गया है। पूरा देश बारूद के ढेर पर बैठा है। वहां बारूद का ढेर अचानक नहीं लगा। वह अनवरत इकट्ठा होता रहा। अतीत में उसी की परिणति पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री लियाकत अली खान, जुल्फिकार अली भुट्टो से लेकर बेनजीर भुट्टो की हत्या के रूप में हुई थी। जिन्होंने बेनजीर को मारा, उन्होंने ही सलमान तसीर और शहबाज भट्टी को मारा है। आज हाल यह है कि पाकिस्तान के अधिकतर प्रारंभिक शैक्षणिक प्रतिष्ठान चरमपंथ सिखाने के केंद्र बन गए हैं। पाकिस्तान के जन्म के समय मदरसों की संख्या 137 थी, जो आज बढ़कर पचास हजार से अधिक हो गई है। ये मदरसे कट्टरता की आरंभिक पाठशाला हैं।


यह भी याद रखना चाहिए कि यदि पाकिस्तान में लोकतंत्र मजबूत रहता तो कट्टरता से लड़ा जा सकता था। पाकिस्तान में यदि लोकतंत्र मजबूत रहता तो वहां अग्रगामी व प्रगतिशील ताकतें मजबूत होतीं। प्रतीत होता है कि जरदारी और गिलानी को भी लोकतंत्र को मजबूत बनाने से ज्यादा अपनी कुर्सी बचाने की चिंता है। जरदारी व गिलानी को यह समझ कब आएगी कि उन्मादी चरमपंथी ताकतों की मौजूदा हरकतें यदि जारी रहीं तो उनकी सत्ता भी निरापद नहीं रहेगी। आज भी वे कहने के लिए ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री हैं। कल नहीं तो परसो फौज द्वारा सत्ता संभालने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। जरदारी व गिलानी को यह भी स्मरण रखना चाहिए कि सत्ता में बैठे लोग यदि दकियानूसी विचारों से मुक्त नहीं होते तो वे उन्मादी चरमपंथी तत्वों से नहीं लड़ सकेंगे।


[कृपाशंकर चौबे: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

Source: Jagran Nazariya

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