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पंजाब के गवर्नर सलमान तसीर की खुद उनके अंगरक्षक द्वारा की गई हत्या इस बात का सबूत है कि मजहबी आतंकवाद के रास्ते पर आगे और आगे चलते जाना ही आज के पाकिस्तान की नियति है। सलमान तसीर पाकिस्तान राजनीति के अभिजात्य वर्ग से थे। जिनकी आदत में पांचों वक्त की नमाज शायद शामिल न रही हो, लेकिन आधुनिक पाकिस्तान के भविष्य में उन्हें भरोसा रहा था। इसी भरोसे की ही ताकत पर वे आशिया बीबी जैसी ईसाई समाज की महिला के ईश निदा के कठोर कानून से बचाव के लिए दृढ़प्रतिज्ञ थे। उन्हें पाकिस्तान तंत्र पर इतना भरोसा तो था ही कि इस मुहिम को बावजूद कट्टर मजहबी विरोधों के वे चला सकते हैं, लेकिन वे गलत साबित हुए, उसी पाकिस्तान तंत्र के एक पुरजे ने उनकी जान ले ली। ऐसा वहा अक्सर हुआ है। ईश निदा कानून की जद में आ गए लोगों की पैरवी करने वाले, आरोप के खिलाफ फैसले देने वाले जज और दोषमुक्त कर दिए गए लोग भी अक्सर मार दिए जाते रहे हैं। सलमान तसीर इस सिलसिले की अगली कड़ी बने। इस कानून का विरोध करने का क्रम भी अचानक काफी समय तक थम जाएगा। सलमान तसीर को मैं आतिश तसीर की किताब स्ट्रेंजर टु हिस्ट्री-ए सन्स जर्नी थ्रू इस्लामिक लैंड्स के हवाले से जानता हूं। उन्होंने आतिश के साथ कोई अच्छा व्यवहार नहीं किया। जुल्फिकार अली भुट्टो और फिर बेनजीर के करीबी वे पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के महत्वपूर्ण सदस्य रहे।
पाकिस्तान अपने अंत की राह पर बड़ी तेजी से चल रहा है, कितना फर्क आ चुका है भारत और पाकिस्तान में। हम यहां डॉ. विनायक सेन को बावजूद उनके ऊपर लगे समस्त आरोपों के उन्हें बचाने की जुगत ढूंढ रहे हैं। हमने उल्फा के चेयनमैन अरविद राजखोवा को जमानत दे दी है, जिससे कि वे शांति वार्ताओं की राह बना सकें। यहा राज्य समाधान के लिए धैर्य की अंतिम सीमा तक सब कुछ बर्दाश्त करता है और वहां सलमान तसीर सिर्फ इसलिए मार दिए जाते हैं कि वे ईश निंदा कानून की गिरफ्त में अनजाने में आ गई एक मजबूर बेसहारा औरत को बचाने की मानवतावादी कोशिश में शामिल थे। वह मुल्क कब तक जिंदा रहेगा जहा न्याय एक बेकार अर्थहीन शब्द होकर रह गया है। पाकिस्तान के हिंदू भारत वापस आने की गुहार लगा रहे हैं। कौन सा जुल्म है जो उनके ऊपर नहीं टूट रहा है। हम कुछ कर पाने की स्थितियों में नहीं हैं। धर्मगुरुओं को, बहन-बेटियों को अगवा करना तो जैसे मामूली सी बात है। तालिबानों का सिखों से जजिया वसूलना भी पिछले साल सुर्खियों में रहा है। बावजूद 1947 के भयानक दंगों के ये लोग पाकिस्तान को अपनी पुश्तैनी भूमि मानकर वहीं रह गए थे। अन्याय की नींव पर बैरिस्टर जिन्ना द्वारा खड़ा किया गया ख्वाबों का यह महल कब तक चलेगा? वह देश जहां मजहबी रहनुमा हत्यारों को गाजी बना देते हैं, कब तक जिंदा रहेगा?
जिन्ना के पाकिस्तान के आज सबसे बड़े समर्थक देश अमेरिका को समझ में आ जाना चाहिए कि इस पाकिस्तान तंत्र का असल फरेब क्या है? यह क्यों अक्सर दोमुंहे सांप की तरह व्यवहार करता है। पाकिस्तान दरअसल अमेरिका का इस्तेमाल कर रहा है। अमेरिकी प्रशासन की दक्षिण एशिया के धार्मिक, सामाजिक समीकरणों की समझ निहायत सरसरी रही है। वरना वे पाकिस्तान पर इस हद तक भरोसा न करते। एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा। पाकिस्तान को सैन्य-सधियों के माध्यम से अमेरिकी खेमे में ले आने वाले जॉन फास्टर डलेस की दक्षिण एशिया के बारे में ज्ञान की बानगी इसी बात से मिलती है। उन्होंने मशहूर पत्रकार वाल्टर लिपमैन से कहा कि पाकिस्तान को सैन्य संधि में लाना इसलिए जरूरी था, क्योंकि उनके पास सबसे मजबूत गोरखे लड़ाके हैं। लिपमैन के कहने पर कि गोरखे तो हिंदू होते हैं और वे भारतीय सेना में हैं, डलेस को शायद अपनी गलती समझ में आई। फिर भी उन्होंने लिपमैन को उपदेश देना नही छोड़ा। यह तो अमेरिका के उच्च रणनीतिकारों के ज्ञान का हाल रहा है। इसलिए वे पाकिस्तान पर डालर और हथियार लुटाते हुए गलतियों पर गलतियां करते जाएंगे। जिस देश की जनता में अमेरिका के खिलाफ इस हद तक जहर भरा हो, वहां के शासकों से यह उम्मीद करना कि वे अमेरिकी हितों के साथ होंगे, बचकानी सी सोच है। एक देश के रूप में पाकिस्तान को कश्मीर मुद्दे ने बचा रखा है।
अगर 1947 या 1965 या 1971 में कश्मीर समस्या का समाधान हो गया होता तो आज हमारे सामने ये दुर्भाग्यशाली परिस्थितियां न होतीं, लेकिन समाधान के इतने करीब आकर हम अंतरराष्ट्रीय दबावों के शिकार हो गए। पाकिस्तान एक अजूबा है जो बैरिस्टर जिन्ना ने अपने तकरें को ताकत से खड़ा कर दिया है। बाद में उन्होंने मजहबी विचार से खड़े किए गए देश को सेक्युलर दृष्टि देने की कोशिश की। नतीजतन पाकिस्तान कहीं का नहीं रहा। सलमान तसीर इस राष्ट्रीय विरोधाभास में अपनी जगह बनाने की कोशिशों में शहीद हो गए। वहां बेनजीर की हत्या हुई, लेकिन कुछ नहीं हुआ। आज सलमान तसीर की हत्या हुई है, फिर कुछ नहीं होगा। जहां धमाकों पर धमाके बेखौफ होते जा रहे हों, जहां शासन का अधिकार मात्र कैंट के इलाकों में सिमट कर रह गया हो, उसे एक राष्ट्र की परिभाषा देना राष्ट्र के विचार की तौहीन करना है।
ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान का बुद्धिजीवी, सोशल एक्टिविस्ट तबका इस मजहबी फरेब को नहीं समझता। मजबूरियों के बावजूद आवाजें उठ रही हैं। पाकिस्तान की इस अन्यायपूर्ण सत्ता के विरुद्ध लोग खड़े तो हुए। मजहबी आतंक के खिलाफ खड़े सलमान तसीर की शहादत को सलाम करने को जी चाहता है। ये शहादतें बादलों में बिजली की लकीर जैसी हैं। जब अंधेरा इतना घना हो कि रोशनी का कहीं कोई सुराग न मिले तो थोड़े से सब्र के बाद पूरब में उजास दिखती है।
[आर. विक्रम सिंह: लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी है]
Source: Jagran Nazariya
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