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सरकार ने सैद्धांतिक तौर पर ही सही, अन्ना हजारे की मांगें मान लीं। इसके साथ ही देश भर में खुशी की लहर दौड़ गई। यह एक ऐतिहासिक क्षण था जब अन्ना ने अपना अनशन तोड़ा। पूरे बारह दिनों तक धैर्य और अनुशासन बनाए रखने वाले लोग उस वक्त जिस तरह धक्का-मुक्की करने लगे और उन्हें शांति-व्यवस्था बनाए रखने के लिए मंच से अपील करनी पड़ी, वह लोगों के उत्साह को बयान करने के लिए काफी है। इससे जाहिर होता है कि देश का बच्चा-बच्चा इस ऐतिहासिक क्षण का गवाह बनना चाहता था। जो लोग रामलीला मैदान नहीं पहुंच सके, वे भी अपने घरों में टीवी से आंखें चिपकाए लगातार बैठे रहे। टीवी पर अन्ना के मंच से भारत माता की आवाज लगते ही घरों में बैठे लोग भी स्वत:स्फूर्त ढंग से जय बोल पड़ते थे। सदियों की गुलामी के फलस्वरूप भ्रष्टाचार और अत्याचार सहने की आदी समझी जाने और बुरी तरह तंग आ चुके होने के बावजूद कुछ न करने वाली भारतीय जनता के भीतर पिछले तेरह दिनों में इतनी ताकत कहां से आ गई थी, इसे ठीक-ठीक समझ पाना समाजशास्ति्रयों और मनोवैज्ञानिकों के लिए भी आसान नहीं है। जो लोग इस बात पर रिसर्च करना चाहते हैं कि अन्ना तेरह दिनों तक भूखे-प्यासे कैसे रह गए, उन्हें जनता की इस अभूतपूर्व ताकत पर भी रिसर्च करवाने का प्रयास करना चाहिए।
इस बात पर कोई एतराज नहीं होना चाहिए कि भारत का प्रचंड बहुमत अन्ना के साथ था। इसके पहले किसी मसले पर कभी ऐसा बहुमत नहीं देखा गया और यही कारण है कि स्वतंत्र भारत में पहली बार तंत्र पर लोक की जीत हुई है। खासकर पूरी तरह अहिंसक मार्ग से तो पूरी दुनिया में तंत्र पर लोक की यह पहली जीत है। लेकिन यह बात भी हमें स्वीकार करनी ही पड़ेगी कि चाहे मुट्ठी भर लोग सही, पर कुछ इसके पक्ष में नहीं भी थे। यहां तक कि एक परिवार के चार सदस्यों में तीन अगर अन्ना के पक्ष में थे तो कहीं-कहीं एक विरोध में भी था। किसी को अन्ना हजारे के तरीके पर आपत्ति थी तो किसी को कुछ मांगों पर और किसी को यह संदेह था कि जिसे जन लोकपाल बनाया जाएगा, वही पूरा ईमानदार होगा, इस बात की क्या गारंटी है। ऐसे लोग जन लोकपाल पर निगरानी के लिए भी तंत्र बनाने की बात कर रहे थे। कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि सिर्फ लोकपाल बन जाने से क्या होता है, कई और सुधार भी जरूरी हैं। लेकिन इस बात पर तो सभी सहमत थे और हैं कि देश से भ्रष्टाचार खत्म करने के प्रभावी उपाय किए ही जाने चाहिए। बेशक कुछ लोग इस बात से भी सहमत नहीं हैं, लेकिन उनके बारे में कुछ कहना शब्दों का फिजूल खर्च होगा। सहमति और असहमति के इस पूरे क्रम में एक बहुत महत्वपूर्ण बात पर गौर किए जाने की जरूरत है। वह है भ्रष्टाचार के कारण की। ऐसा नहीं है कि अन्ना का विरोध करने वाले सभी भ्रष्ट थे। इनमें बहुमत ऐसे लोगों का था जो व्यवस्था का नाकारापन और भारतीय जनता की समझौतावादी प्रवृत्ति को देखते हुए भयावह हताशा के शिकार हो चुके हैं।
वे यह कहते पाए गए कि हमारे मोहल्ले का फलां आदमी, जो अव्वल दर्जे का भ्रष्ट है, अन्ना टोपी लगा रहा है। रामलीला मैदान जा रहा है या शाम को मोहल्ले में निकलने वाले जुलूस में शामिल हो रहा है। क्या ऐसे ही मिटेगा भ्रष्टाचार? वे यह भी सवाल करते हैं, कोई रिश्वत लेता कब है? जब आप देते हैं तब। तो आप देते ही क्यों हैं? अगर आप यह ठान लें कि हमें रिश्वत नहीं देनी है तो कोई आप से ले कैसे लेगा? और अगर आप देते हैं तो क्यों? जाहिर है, आप व्यवस्था से कुछ ऐसा चाहते हैं जिसके आप हकदार नहीं है। अगर ठंडे दिमाग से सोचें तो इसमें कुछ गलत नहीं है। उनका कहना सच है।
आम तौर पर रिश्वत तभी दी जाती है जब हम कोई चीज समय से पहले या अपने लिए नियत मात्रा से अधिक या उसके लिए निर्धारित मानकों पर खरे उतरे बगैर पाना चाहते हैं। फिर धीरे-धीरे यही व्यवस्था के अंगों की आदत बन जाती है और वे हमारी वाजिब मांग पर भी रिश्वत चाहने लगते हैं। फिर वे रिश्वत पाए बगैर कोई काम ही नहीं करना चाहते। ठीक यही स्थिति घपले-घोटालों की भी है। कोई घपले करता तभी है, जब हम उसे इसके लिए मौका देते हैं। हम ऐसे लोगों को किसी विधानसभा या लोकसभा में दुबारा चुनकर क्यों भेज देते हैं, जो एक बार वहां जाकर हमारी आशाओं पर पानी फेर चुके हैं? क्यों हम ऐसे लोगों को दुबारा अवसर देते हैं जो आम जनता के हित के बजाय केवल अपने निजी हितों और बचाव के लिए कानून बनाते हैं? आज विधायिका से पूरे देश की जनता का विश्वास उठ चुका है। लेकिन इसके मुख्यत: जिम्मेदार कौन है? यह स्वीकार करने में हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हम स्वयं ही हैं।
आखिर कोई हमसे रिश्वत लेता कब और कैसे है? जब हम उसे देते हैं। और देते कब हैं? जब हम उससे कुछ गलत मांग करते हैं। कोई ऐसी चीज मांग रहे होते हैं जिसके हम किसी न किसी लिहाज से हकदार नहीं हैं। चाहे समय के लिहाज से, या योग्यता के लिहाज से, या फिर मात्रा या निर्धारित प्रक्रिया की अन्य शर्तो के लिहाज से। जब लाइन में लगने से बचना चाहते हैं, या बार-बार सरकारी दफ्तर के चक्कर लगाने, पूरी मेहनत करने या फिर भ्रष्ट कर्मचारी की बड़े अफसरों से शिकायत करने से ही बचना चाहते हैं। इन सभी बातों के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हमारा आलस्य होता है। तब भी जब कोई न कोई बहाना बनाकर वोट देने नहीं जाते हैं। विधायिका के भ्रष्ट होने के लिए वे लोग तो जिम्मेदार हैं ही जो भ्रष्ट लोगों को चुनते हैं, लेकिन उनसे कहीं ज्यादा जिम्मेदार वे हैं जो शायद बेहतर लोगों को चुन सकते थे, लेकिन वोट देने ही नहीं जाते। हमारा यह दोहरा चरित्र क्यों? सच तो यह है कि जन लोकपाल से कहीं ज्यादा जरूरी यह है कि हम खुद सुधरें। वरना जन लोकपाल तो क्या, कई और पाल आकर भी कुछ नहीं कर सकेंगे।
अब जरूरी है कि जिस तरह लोगों ने अन्ना के समर्थन में उत्साह दिखाया है, उससे भी बढ़कर उत्साह भ्रष्टाचार में किसी भी तरह शामिल न होने में दिखाएं। जैसा कि अन्ना ने अनशन तोड़ते हुए स्वयं मंच से कहा, अन्ना बनना है तो शब्द और कृति को जोड़ो। कथनी और करनी को एक करो। सचमुच और कुछ भी करने से बहुत ज्यादा जरूरी है यह करना। अन्ना का असली समर्थन रामलीला मैदान, इंडिया गेट, राजघाट, तिहाड़ या जंतर-मंतर पर धरना देने और नारेबाजी करने में नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार की कमर तोड़ने में है। यह तो आप जानते ही हैं कि भ्रष्टाचार की कमर और किसी भी तरह से नहीं, सिर्फ भ्रष्टाचार के सामने न झुकने का संकल्प लेने और किसी भी हाल में इस संकल्प पर अमल करने व अटल रहने से ही मिटेगा।
लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं
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