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आरक्षण के सहारे राजनीति

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay Guptअल्पसंख्यक आरक्षण के प्रस्ताव से जाति-मजहब आधारित राजनीति को और दिशाहीन होते देख रहे हैं संजय गुप्त


उत्तर प्रदेश, पंजाब समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यक आरक्षण का पत्ता जिस तरह चला उससे यह साफ हो गया कि वह आरक्षण के जरिये एक बड़े वोट बैंक को अपने पाले में लाना चाहती है। यह पहली बार नहीं हुआ जब चुनावी लाभ के लिए आरक्षण को हथियार बनाया गया है। सच्चाई यह है कि अब आरक्षण वोट पाने का जरिया बन गया है। केंद्र सरकार ने पंथ के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग के कोटे में अल्पसंख्यकों को साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण देने की जैसे ही घोषणा की वैसे ही हाल में केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हुए अजित सिंह ने जाट आरक्षण की मांग आगे बढ़ा दी। इसके पहले लोकपाल विधेयक में आरक्षण समाहित कर दिया गया। जिस संस्था का निर्माण भ्रष्टाचार मिटाने के लिए किया जा रहा है वहां आरक्षण को महत्व देने का कोई मतलब नहीं, लेकिन केंद्र सरकार ने ऐसा ही करके देश में असमंजस की स्थिति पैदा कर दी। आखिर लोकपाल अथवा लोकायुक्त सदस्यों का चयन उनकी जाति-पंथ के आधार पर क्यों किया जाना चाहिए? ऐसी संस्थाओं के सदस्यों के चयन की एक मात्र योग्यता तो उनकी साख होनी चाहिए। इससे ही जनता में उनके प्रति विश्वास बढ़ सकता है, लेकिन केंद्र सरकार को यहां भी राजनीति करने की सूझी।


भारत इस दृष्टि से एक अनूठा देश है कि यहां सैकड़ों जातियों और उपजातियों के साथ विभिन्न पंथों के लोग हैं। भारतीय समाज की यह भिन्नता पश्चिमी देशों के लिए एक पहेली है। उन्हें इस पर आश्चर्य होता है कि इतनी भिन्नता के बावजूद भारत एकजुट होकर आगे कैसे बढ़ रहा है? इस एकजुटता के पीछे आपसी समन्वय और सद्भाव के साथ भारतीय के रूप में पहचान बनाने की ललक है। यह निराशाजनक है कि राजनीतिक दल सत्ता पाने अथवा उस पर काबिज रहने की होड़ में विभिन्न जातियों और पंथों में न केवल भेद कर रहे हैं, बल्कि उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं। आजादी के बाद देश के एक बड़े वर्ग को मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण जैसी व्यवस्था की जरूरत महसूस की गई और इसीलिए अनुसूचित जातियों-जनजातियों के लिए दस वर्ष तक आरक्षण की व्यवस्था की गई। इसके बाद राजनीतिक कारणों से यह अवधि आगे बढ़ाई जाती रही और फिर अन्य पिछड़ा वर्गो के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई। अब स्थिति यह है कि करीब-करीब हर कोई आरक्षण मांग रहा है और इस तथ्य के बावजूद कि आरक्षण सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती। आज हर राजनीतिक दल आरक्षण को राजनीतिक हथियार बनाए हुए हैं। कोई भी इस पर विचार करने के लिए तैयार नहीं कि आरक्षण उन उद्देश्यों को पूरा कर पा रहा है या नहीं जिनके लिए उसे लाया गया था? शिक्षा और सरकारी नौकरियों के अवसर आरक्षित एवं गैर आरक्षित तबकों में बांटने से सामाजिक समरसता पर विपरीत असर पड़ने के बावजूद राजनीतिक दल आरक्षण व्यवस्था की खामियों पर विचार करने के लिए तैयार नहीं।


जातिगत आरक्षण के बाद पंथ के आधार पर भी आरक्षण की व्यवस्था कर केंद्र सरकार ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। यह व्यवस्था इसके बावजूद की गई कि संविधान पंथ के आधार पर आरक्षण की इजाजत नहीं देता। संविधान की ओर से पंथ के आधार पर आरक्षण का निषेध किए जाने के बावजूद तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र समेत नौ राज्यों ने अल्पसंख्यक समुदायों के पिछड़े तबकों को आरक्षण प्रदान कर रखा है। केंद्र सरकार ने एक कदम आगे जाते हुए सभी अल्पसंख्यक समुदायों को अन्य पिछड़ा वर्ग का दर्जा दे दिया और इसीलिए यह माना जा रहा कि उसका निर्णय न्यायपालिका द्वारा खारिज किया जा सकता है। केंद्र सरकार के इस निर्णय पर जहां भाजपा ने आपत्ति जताते हुए यह कहा है कि इससे देश में गृहयुद्ध की स्थिति बन सकती है वहीं अन्य विपक्षी दल अल्पसंख्यक आरक्षण को अपर्याप्त बता रहे हैं या फिर केंद्र की राजनीतिक चाल के रूप में देख रहे हैं। चूंकि भाजपा जानती है कि उसे मुस्लिम समाज के वोट नहीं मिलने वाले इसलिए उसकी कोशिश सिर्फ हिंदू भावनाओं को भुनाने की है। यदि भाजपा को विरोध करना ही है तो फिर उसे आरक्षण व्यवस्था की समस्त खामियों का विरोध करना चाहिए। सिर्फ पंथ के आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण का विरोध करने पर तो वह वोट की राजनीति करती हुई ही दिखेगी।


यह हर कोई समझ रहा है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यक आरक्षण का निर्णय सिर्फ इसलिए लिया है ताकि उसे इन राज्यों और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में चुनावी लाभ मिल सके। कांग्रेस को यह अच्छी तरह पता था कि नए सिरे से वोट बैंक बनाए बिना उसे सफलता मिलने वाली नहीं है, लेकिन इसमें संदेह है कि वह अल्पसंख्यक आरक्षण का पूरा-पूरा लाभ उठा पाएगी, क्योंकि मुस्लिम समुदाय यह जान रहा है कि केंद्र सरकार का निर्णय प्रतीकात्मक महत्व वाला ही है। अन्य पिछड़ा वर्ग के 27 फीसदी आरक्षण के तहत उसे पहले से ही लाभ मिल रहा था। उसे यह भी पता है कि लोकपाल संस्था में मुश्किल से एक सदस्य के रूप में उसका प्रतिनिधित्व होने से उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। हालांकि केंद्र सरकार का तर्क है कि उसने 2009 के अपने घोषणापत्र के वायदे को पूरा किया है, लेकिन उसके पास इस सवाल का जवाब नहीं कि वह दो वर्ष तक क्या करती रही? अब यह आवश्यक है कि आरक्षण के मसले पर उच्चतम न्यायालय नए सिरे से विचार करे, क्योंकि ऐसी राजनीति ठीक नहीं जो समाज को जातियों और पंथों के रूप में अलग-अलग करके देखे।


निश्चित रूप से जाति भारतीय समाज की एक सच्चाई है और फिलहाल जाति और पंथगत पहचान मिटाना एक मुश्किल काम है, लेकिन इसे नामुमकिन भी नहीं कहा जा सकता। बहुत से विकसित देशों ने एक हद तक इसमें सफलता हासिल की है और इसीलिए इन देशों में समान नागरिक संहिता लागू की जा सकी है। जाति और पंथ की दीवारों को ढहाने के लिए राजनीतिक दलों को आरक्षण को चुनावी राजनीति का माध्यम बनाना बंद करना होगा। यह तब होगा जब आरक्षण की ऐसी व्यवस्था बनेगी जिसमें योग्यता के मानकों से समझौता न हो। समय आ गया है कि आरक्षण के मौजूदा तौर-तरीकों पर सभी दल बहस करें और यह देखें कि आरक्षण चुनावी राजनीति का जरिया न बन सके। यह आसान नहीं, क्योंकि राजनीतिक स्वार्थो के कारण आरक्षित वर्गो की क्रीमीलेयर की मनमानी परिभाषा अभी भी की जा रही है। हालांकि केंद्र सरकार के निर्णय के चलते फिलहाल केवल पंथ के आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण पर ही बहस केंद्रित है, लेकिन जरूरत आरक्षण की पूरी व्यवस्था पर नए सिरे से विचार-विमर्श की है।


इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


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