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हिमाचल में राजनीति की दिशा

संपादकीय ब्लॉग
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Nishikant Thakurअदालत द्वारा भ्रष्टाचार संबंधी आरोप तय हो जाने के बाद केंद्रीय मंत्री वीरभद्र सिंह ने इस्तीफा तो दे दिया, लेकिन इसे लड़ाई का पटाक्षेप नहीं माना जाना चाहिए। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इसका क्या असर होगा, इस पर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन हिमाचल प्रदेश की राजनीति में यह आगे के बड़े घटनाक्रमों का संकेत है। ध्यान रहे, वीरभद्र पांच बार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री तथा तीन बार केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के खिलाफ मोर्चा खोलने की घोषणा वह कर ही चुके हैं और विधानसभा चुनाव अब निकट हैं। राज्य के लगभग सभी दल अपने-अपने ढंग से चुनाव की तैयारियां शुरू कर चुके हैं। यह सही है कि हिमाचल कांग्रेस में उनका कद सबसे बड़ा है और अगर कांग्रेस सरकार बनाने की स्थिति में आए तो मुख्यमंत्री पद के सबसे प्रबल दावेदार भी उन्हें ही होना चाहिए। कांग्रेस ने वीरभद्र पर आरोप तय हो जाने और केंद्रीय मंत्रिमंडल से उनके इस्तीफा दे देने के बावजूद अपने चुनावी अभियान का मुखिया उन्हें ही बना दिया है। इसके बावजूद उनका रास्ता पूरी तरह साफ है, ऐसा कहना सही नहीं होगा। हिमाचल में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही प्रमुख दलों में गुटबाजी भरपूर है। इसके पहले भी, पिछली बार जब वीरभद्र वहां मुख्यमंत्री थे, तब भी गुटबाजी का असर वहां कई बार साफ तौर पर देखा गया। बहुत हद तक इस गुटबाजी का ही नतीजा था जो कांग्रेस को वहां सत्ता से हाथ धोना पड़ा।


पार्टी के भीतरी कलह ने कई बार वहां सरकार के कामकाज को भी प्रभावित किया। ऐसा तब हुआ जबकि वीरभद्र पर किसी तरह का कोई आरोप नहीं था। अब हालात काफी हद तक बदल चुके हैं। वीरभद्र और उनकी पत्नी पर अदालत की ओर से आरोप तय किए जा चुके हैं। इसके बावजूद कांग्रेस में उनके नाम पर एक होने जैसा माहौल अभी तो दिखाई दे रहा है, लेकिन यह माहौल लंबे समय तक बना रहेगा, इसमें संदेह है। इसकी वजह केवल कांग्रेस की भीतरी कलह ही नहीं, आम जन की धारणा में आया बड़ा बदलाव भी है। किसी भी तरह के भ्रष्टाचार के मुद्दे को अब जनता हल्के में नहीं ले रही है। ऐसी स्थिति में खुद कांग्रेस के लिए उन्हें आगे करके चुनाव लडना राज्य में नुकसानदेह साबित हो सकता है। कांग्रेस की भीतरी कलह अभी सतह पर न आने की एक बड़ी वजह वीरभद्र के साथ कुछ केंद्रीय नेताओं का खड़े होना भी माना जा रहा है। कांग्रेस के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने हाल ही में साफ तौर पर कहा था कि वीरभद्र के इस्तीफे का मतलब उनका दोषी होना नहीं है। उन्होंने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दिया है, लेकिन उनके खिलाफ आरोप अभी साबित नहीं हुए हैं। हिमाचल कांग्रेस में जनार्दन द्विवेदी की इस बात का महत्वपूर्ण संदेश गया है। फिलहाल लोग यह मान कर चल रहे हैं कि आलाकमान उनके साथ है और इसीलिए अभी उनके साथ दिखना जरूरी है। हालांकि यह बात कांग्रेस के भीतर व्याप्त अंतर्कलह को असर दिखाने से कब तक रोक पाएगी, इस पर कुछ कह पाना मुश्किल है, क्योंकि आलाकमान उस समय भी वीरभद्र के साथ था, जब वह मुख्यमंत्री थे। इसके बावजूद उन्हें पार्टी के भीतर ही विरोध और फिर अंतर्कलह का सामना करना पड़ा।


कांग्रेस के भीतर अभी भी उनके विरोधियों की संख्या कुछ कम नहीं हुई है, बल्कि उनमें से कुछ लगातार अपना जनाधार बढ़ाने और मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी को मजबूत करने में भी लगे हुए हैं। वरिष्ठ नेता विद्या स्टोक्स की दावेदारी तो अपनी जगह है ही, प्रदेश अध्यक्ष ठाकुर कौल सिंह भी इधर मुख्यमंत्री पद के लिए एक प्रमुख दावेदार के रूप में उभरे हैं। भले ही वह अभी खुले तौर पर चुनौती नहीं दे रहे हैं, लेकिन माना यही जा रहा है कि समय आने पर उनकी महत्वाकांक्षा अपना रंग दिखाएगी जरूर। दूसरी तरफ, जीएस बाली के नेतृत्व में निकाली गई रोजगार संघर्ष यात्रा को भी इन्हीं बातों से जोड़ कर देखा जा रहा है। बाली कांगड़ा इलाके में पहले से ही एक कद्दावर नेता माने जाते रहे हैं, इस यात्रा के जरिये वह प्रदेश स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाने में सफल रहे हैं। जैसे-जैसे उनकी यात्रा आगे बढ़ी है, इसे मिलने वाले समर्थन की तादाद भी बढ़ती गई है।


निश्चित रूप से इसके पीछे बाली का उद्देश्य केवल भाजपा सरकार की खामियां बताना ही नहीं, बल्कि राज्य में अपनी अलग पहचान बनाना भी रहा है और इसमें वह काफी हद तक सफल रहे हैं। यात्रा के दौरान बाली खुद तो कोई दावेदारी करने से लगातार बचते रहे हैं, लेकिन उनके समर्थक उन्हें मुख्यमंत्री से कम नहीं देखना चाहते। इसके जरिये बने माहौल को अगर बनाए रखा जा सका तो निश्चित रूप से इसका फायदा भी कांग्रेस को मिलेगा। यह सभी स्थितियां कांग्रेस में प्रमुख नेताओं की निजी महत्वाकांक्षाओं को अलग-अलग दिशा भी देंगी। चाहे वह विद्या स्टोक्स हों या ठाकुर कौल सिंह या फिर जीएस बाली, सबकी अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा पार्टी के लिए संकट का कारण भी बन सकती है। आने वाले दिनों में ये स्थितियां क्या रुख अख्तियार करती हैं और चुनाव के दौरान क्या असर दिखाती हैं, यह बहुत हद तक इस बात पर निर्भर है कि पार्टी आलाकमान और खुद वीरभद्र इससे किस तरह निपटते हैं।


अगर पार्टी आलाकमान या वीरभद्र यह उम्मीद करते हैं कि पहले की तरह डांट-फटकार या अनुशासनात्मक कार्रवाई का भय दिखाकर पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को एक करने का काम चल जाएगा तो यह बड़ी भूल साबित हो सकती है, क्योंकि इससे एकता बने या न बने, पार्टी कार्यकर्ताओं का उत्साह जरूर घटेगा जिसका सीधा असर चुनावी अभियान पर पड़ेगा। सच तो यह है कि हिमाचल की दोनों ही प्रमुख पार्टियां-भाजपा और कांग्रेस अंतर्कलह से जूझ रही हैं और अगले चुनाव के नतीजे बहुत हद तक इस बात से भी प्रभावित होंगे कि कौन इससे किस तरह निपटता है? भाजपा चुनाव तो प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में ही लड़ेगी, लेकिन शांता कुमार और राजन सुशांत की ओर से लगातार मिल रही चुनौती से निपटना उसके लिए काफी मुश्किल होगा। अगर मुद्दों की बात करें तो आम जनता किसी से भी संतुष्ट नजर नहीं आती। लोगों की नाराजगी के प्रमुख कारण महंगाई, बेकारी और भ्रष्टाचार बने हुए हैं। इन मसलों को लेकर लोग राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा से तो नाराज हैं ही, केंद्र की कांग्रेस सरकार को भी वे कहीं से कम जिम्मेदार नहीं मानते हैं। इसलिए केवल मुद्दे या सत्ता विरोधी लहर किसी भी पार्टी के लिए जीत-हार का कारण बनने नहीं जा रही है। जीत-हार बहुत हद तक इसी बात पर निर्भर करेगी कि कौन अपनी टीम को किस हद तक संतुष्ट कर पाता है। यह चुनौती वीरभद्र के लिए इस समय ज्यादा बड़ी और महत्वपूर्ण है। वह इस पर किस हद तक खरे उतरेंगे और राज्य में कांग्रेस को क्या दिशा देंगे, यह आने वाला समय तय करेगा।


लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं

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