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किताब से निकला कड़वा सच

संपादकीय ब्लॉग
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Raeev Sachanकिताब से निकला कड़वा सच एपीजे अब्दुल कलाम की अप्रकाशित किताब टर्निग प्वाइंट्स-अ जर्नी थ्रू चैलेंजेस इस धारणा को तोड़ने का काम करती है कि राष्ट्रपति का पद महज अलंकारिक है। नि:संदेह भारतीय राष्ट्रपति के पास शासन संचालन की शक्तियां नहीं हैं, लेकिन वह अपनी सक्रियता से शासन को सही दिशा में चलने के लिए विवश कर सकता है। वह केंद्रीय सत्ता के उन निर्णयों को नामंजूर कर सकता है जिनमें उसकी मंजूरी आवश्यक होती है। वह पूछने के अपने अधिकार का इस्तेमाल कर सरकार को असहज भी कर सकता है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रपति को शासन संचालन संबंधी अधिकार इसलिए नहीं दिया, क्योंकि उन्हें भय था कि इससे उसमें और प्रधानमंत्री में टकराव हो सकता है। यह आशंका निर्मूल नहीं थी। संविधान ने राष्ट्रपति को सरकार से सवाल करने-पूछने का अधिकार इसलिए दिया, क्योंकि संविधान सभा का मानना था कि लोकतंत्र में सवाल करने-पूछने यानी जानने के अधिकार से बहुत सी चीजें ठीक हो जाती हैं। एक तरह से आम जनता सूचना का जो अधिकार 2005 में हासिल हुआ वह भारतीय राष्ट्रपति को पहले दिन से प्राप्त था। यह बात और है कि वे इसका इस्तेमाल मुश्किल से ही करते हैं। कलाम की पुस्तक बता रही है कि उन्होंने इस अधिकार का इस्तेमाल लाभ का पद विधेयक के संदर्भ में किया। अफसोस इसका है कि सरकार ने उनकी चिंताओं का समाधान करना जरूरी नहीं समझा। यदि कलाम इस विधेयक को मंजूरी देने से इन्कार कर देते तो सरकार कुछ नहीं कर सकती थी। उन्होंने इस विधेयक से असहमत होने के बावजूद उसे नामंजूर शायद इसलिए नहीं किया, क्योंकि तब वह उस अधिकार का इस्तेमाल कर रहे होते जिसका संविधान में उल्लेख ही नहीं है। संविधान के अनुसार यदि राष्ट्रपति किसी विधेयक, अध्यादेश से असहमत है तो वह सरकार से उस पर पुनर्विचार करने के लिए उसे लौटा सकता है, लेकिन यदि सरकार उसे जस का तस फिर से राष्ट्रपति के पास भेज देती है तो उन्हें उसे मंजूरी देनी होगी।


संविधान में यह नहीं दर्ज है कि यह मंजूरी कितने दिन में देनी होगी? ज्ञानी जैल सिंह ने इसका ही लाभ उठाया था और वह राजीव गांधी के समय प्रेस मानहानि विधेयक को रोककर बैठ गए थे। थक हारकर सरकार ने इस विधेयक को रद करने में भलाई समझी। कलाम की किताब यह भी बता रही है कि किस तरह 2005 में उनसे बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू करने का अनुचित फैसला करवाया गया। जब सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस फैसले को रद कर दिया तो कलाम ने इस्तीफा देने का मन बना लिया। उनकी किताब बताती है कि किस तरह मनमोहन सिंह ने उनसे ऐसा न करने की गुहार लगाई, क्योंकि यदि वह ऐसा करते तो देश में राजनीतिक तूफान खड़ा हो जाता और सरकार के गिरने की नौबत आ जाती। शायद इन्हीं कारणों से 2007 में आम जनता की प्रबल आकांक्षा के बावजूद कांग्रेस ने कलाम को दोबारा राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाने से इन्कार किया। उसने कलाम के बजाय अनजान सी प्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति बनाया। पूरे कार्यकाल में प्रतिभा पाटिल को किसी विकट राजनीतिक-संवैधानिक स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन इस पर राष्ट्र एकमत सा दिखता है कि उनके समय में राष्ट्रपति पद की गरिमा में वृद्धि नहीं हुई। इस पर आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस ने एक बार फिर राष्ट्रपति पद के लिए कलाम की दावेदारी खारिज कर दी। जब ममता बनर्जी-मुलायम सिंह ने मनमोहन सिंह और सोमनाथ चटर्जी के साथ उनका नाम प्रस्तावित किया तो कांग्रेस की ओर से कहा गया, मनमोहन सिंह का तो सवाल ही नहीं उठता और बाकी दोनों नाम हमें स्वीकार नहीं। कांग्रेस को कलाम और सोमनाथ की दावेदारी ठुकराने का पूरा अधिकार था, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कलाम के जरिये राष्ट्रपति चुनाव पर आम राय बनाई जा सकती थी।


ज्यादा से ज्यादा वाम दलों को उनकी दावेदारी से गुरेज होता। यह स्पष्ट है कि कलाम के नाम पर संगमा भी खुशी-खुशी मैदान छोड़ देते। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि कलाम की अनुपस्थिति में प्रणब मुखर्जी और साथ ही पीए संगमा राष्ट्रपति पद के सुयोग्य उम्मीदवार हैं, लेकिन यह भी तथ्य है कि कांग्रेस ने प्रणब मुखर्जी को मजबूरी में प्रत्याशी बनाया। कांग्रेस की ओर से पहले यह कहा जा रहा था कि वह सरकार के संकटमोचक हैं, लेकिन जब उन्हें भावी राष्ट्रपति के रूप में पेश किया जाने लगा और ममता-मुलायम ने उनकी दावेदारी खारिज कर दी तो कांग्रेस ने उन्हें अपना प्रत्याशी चुन लिया। अब यह कहा जा रहा है कि प्रणब मुखर्जी के वित्त मंत्रालय से विदा होने से आर्थिक सुधारों का रास्ता साफ हो गया। इसका सीधा अर्थ है कि वह आर्थिक सुधारों में बाधक थे। यह समय ही बताएगा कि मनमोहन सिंह आर्थिक सुधारों को गति दे पाते हैं या नहीं, क्योंकि यह स्पष्ट हो चुका है कि उन्हें बाधाओं से लड़ना नहीं आता। इसके अतिरिक्त वह घटक दलों के दबाव में आसानी से झुक जाते हैं। यदि उन्होंने लालू यादव-रामविलास पासवान के दबाव में बिहार में राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया होता तो फजीहत से बच सकते थे। वह द्रमुक के दबाव का सामना नहीं कर सके। परिणाम यह हुआ कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला हुआ। वह अपने ही दल के सुरेश कलमाड़ी पर अंकुश नहीं लगा सके। नतीजे में देश को राष्ट्रमंडल खेलों में अनगिनत घोटालों से दो-चार होना पड़ा। इससे भी खराब बात यह रही कि उनकी सरकार ने अनेक शीर्ष पदों के लिए ऐसे शख्स पसंद किए जिनसे विवाद उपजे। उदाहरण के लिए नवीन चावला, बीएस लाली, पीजे थॉमस और बालाकृष्णन। यह अच्छी बात है कि प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं, लेकिन और भी अच्छा होता यदि कलाम फिर से राष्ट्रपति बनते।


राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं


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