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राष्ट्रपति की भूमिका

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay Guptराष्ट्रपति के रूप में सर्वोच्च संवैधानिक पद की भूमिका पर नए चिंतन की आवश्यकता जता रहे हैं संजय गुप्त

 

राष्ट्रपति चुनाव को लेकर राजनीतिक दलों में गतिविधियां चरम पर हैं। प्रमुख दल, विशेषकर कांग्रेस और भाजपा की दिलचस्पी इस पद पर ऐसे व्यक्ति के चयन की है जो उनकी पसंद का हो। वैसे तो हमेशा यही देखा गया है कि सत्तारूढ़ दल अपने बहुमत के बल पर अपनी पसंद के व्यक्ति को राष्ट्रपति पद पर आसीन करने में सफल होता रहा है, लेकिन इस बार स्थितियां थोड़ी अलग हैं। देश की राजनीति न केवल गठबंधन पर आधारित है, बल्कि संख्या बल अर्थात निर्वाचक मंडल के लिहाज से सत्तापक्ष और विपक्ष में बहुत अधिक फासला भी नहीं है। इसके चलते उन क्षेत्रीय दलों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है जो न तो केंद्र में सत्तारूढ़ संप्रग में शामिल हैं और न ही भाजपा के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन राजग में। इनमें से कुछ दल जहां दोनों गठबंधनों से पूरी तरह अलग हैं वहीं कुछ संप्रग में शामिल न होने के बावजूद केंद्र सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं। कांग्रेस की समस्या इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि वह राष्ट्रपति के नाम पर संप्रग में ही एक राय कायम नहीं कर पाई है। संप्रग के दूसरे सबसे बड़े घटक दल तृणमूल कांग्रेस के विभिन्न मुद्दों पर सरकार से मतभेद किसी से छिपे नहीं। तृणमूल की तरह द्रमुक के रुख को लेकर भी कांग्रेस बहुत अधिक निश्चिंत नहीं हो सकती।

 

 महामहिम की तलाश

 

 केंद्र सरकार को बाहर से समर्थन दे रही सपा उप्र विधानसभा चुनावों के बाद और अधिक शक्तिशाली होकर उभरी है और उसने राष्ट्रीय राजनीति में अधिक सक्रिय भूमिका के संकेत भी दिए हैं। पहले क्षेत्रीय दलों की राष्ट्रपति चुनाव में बहुत अधिक रुचि नहीं रहती थी, लेकिन इस बार उन्हें 2014 के आम चुनावों में अपने लिए अनुकूल हालात उभरते दिख रहे हैं। शायद उनका यह मानना है कि संप्रग और राजग के कमजोर होने के कारण तीसरे-चौथे मोर्चे की ताकत बढ़ेगी और तब काफी कुछ राष्ट्रपति पर निर्भर होगा कि वह किसे सरकार गठन के लिए आमंत्रित करते हैं। फिलहाल राष्ट्रपति चुनाव के लिए संभावित उम्मीदवारों के रूप में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के नाम मजबूती से उभरे हैं। रोचक यह है कि प्रणब की दावेदारी की खबरें सामने आने के साथ ही कांग्रेस के एक हिस्से से यह टिप्पणी भी आई कि वह केंद्र सरकार के लिए इतने महत्वपूर्ण हैं कि उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता।

 

हालांकि बाद में इस टिप्पणी को खारिज कर दिया गया। उनकी उम्मीदवारी की खबरों से यह संकेत मिलता है कि या तो वह खुद सक्रिय राजनीति से अलग होना चाहते हैं या उनके राजनीतिक करियर को खत्म हुआ मान लिया गया है। जो भी हो, यह सही समय है जब राष्ट्रपति पद की गरिमा और उसकी भूमिका को लेकर नए सिरे से चिंतन-मनन किया जाना चाहिए। जहां तक राष्ट्रपति की भूमिका का प्रश्न है तो एक लंबे अर्से से यह कहा जा रहा है कि वह एक रबर स्टांप से अधिक नहीं। अब यह धारणा कहीं अधिक मजबूत हो गई है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद, एस. राधाकृष्णन और जाकिर हुसैन के बाद हाल के समय में डॉ. एपीजे कलाम को ऐसे राष्ट्रपति के रूप में याद किया जाता है जिन्होंने इस पद की गरिमा को नया आयाम दिया। अपवाद के रूप में ज्ञानी जैल सिंह के कुछ प्रसंगों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर राष्ट्रपति ने केंद्र सरकार की हां में हां मिलाने का ही काम किया है। जैल सिंह राष्ट्रपति के रूप में तब सुर्खियों में आ गए थे जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से असहमति के कारण वह एक महत्ववूर्ण विधेयक अपने पास रोककर बैठ गए थे। संविधान बनाते समय राष्ट्रपति के रूप में ऐसे राष्ट्रप्रमुख की कल्पना की गई थी जो सरकार के कामकाज पर निगाह रख सके और आवश्यकता पड़ने पर उस पर नैतिक दबाव बना सके, लेकिन उसके कामकाज की जो व्यवस्था की गई वह थोड़ी विचित्र है।

 

राष्ट्रपति अपने पास आए किसी विधेयक को असहमति के साथ लौटा तो सकते हैं, लेकिन यदि सरकार उनके सुझावों को खारिज कर वही उन्हें फिर से भेज दे तो वह उसे रोक नहीं सकते। सैद्धांतिक रूप से यह माना गया है कि वह किसी मसले पर किसी संविधानविद या विधि विशेषज्ञ से परामर्श ले सकते हैं, लेकिन ऐसा कोई पद सृजित नहीं किया गया है जो उन्हें औपचारिक रूप से सलाह दे। शायद यही कारण रहा कि केंद्र की सत्ता में रही सभी सरकारों ने राष्ट्रपति के रूप में ऐसे व्यक्ति का निर्वाचन करना पसंद किया जो उसकी बात माने। राष्ट्रपति की गरिमा में गिरावट का यह एक प्रमुख कारण है। देश को यह अच्छी तरह याद होगा कि कुछ राष्ट्रपति इसलिए उपहास का विषय बने कि उन्होंने सरकार द्वारा भेजे गए बिलों पर आंख बंदकर हस्ताक्षर कर दिए। इस मामले में सबसे शर्मनाक उदाहरण फखरुद्दीन अली अहमद का है, जिन्होंने आपातकाल की घोषणा पर आनन-फानन में हस्ताक्षर कर दिए थे। राष्ट्रपति के मनचाहे इस्तेमाल के मामले में कांग्रेस को सबसे अधिक दोष दिया जाएगा और इसीलिए वह आलोचना की पात्र भी बनी।

 

संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल में जब राष्ट्रपति के रूप में प्रतिभा पाटिल का चयन किया गया तब भी यह सवाल उभरा था कि जिनका कोई उल्लेखनीय राजनीतिक करियर न हो उसे राष्ट्रपति क्यों बना दिया गया? अपने पूरे कार्यकाल में प्रतिभा पाटिल विदेशी दौरों में व्यस्त रहने के अलावा कोई खास काम नहीं कर सकीं। उन पर यह भी आरोप है कि विदेश दौरों में वह अपने साथ अपने परिजनों को भी ले गईं और अपने बेटे के राजनीतिक करियर को बढ़ावा दिया। उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे यह प्रतीत हो कि सरकार के कामकाज से अलग वह अपने विचार रखती हैं। कांग्रेस ही नहीं सभी राजनीतिक दलों को इस पर चर्चा करनी चाहिए कि कैसे इस पद पर ऐसे व्यक्ति का चयन हो जिस पर राजनीतिक वर्ग ही नहीं पूरा देश भरोसा कर सके। इसके साथ ही राष्ट्रपति को ऐसे अधिकार भी मिलने चाहिए कि वह सरकार के गलत फैसलों पर रोक लगा सके। राष्ट्रपति पद की मजबूती के लिए यह भी आवश्यक है कि उनकी सहायता के लिए एक सलाहकार मंडल नियुक्त किया जाए। इस सलाहकार मंडल में उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश, प्रख्यात संविधानविद् और विकास एवं सामाजिक कल्याण में उल्लेखनीय योगदान देने वाले विशेषज्ञ भी शामिल हो सकते हैं। ऐसी किसी व्यवस्था की आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि मौजूदा व्यवस्था में राष्ट्रपति कितनी भी महत्वपूर्ण-दूरदर्शी बात क्यों न कहे, सरकार उसे मानने के लिए बाध्य नहीं है। संभवत: इसी कारण आम जनता को यह सर्वोच्च पद आकर्षित नहीं करता और जनता उसे अपेक्षित महत्व भी नहीं देती।

 

प्रतिभा पाटिल के पूर्ववर्ती एपीजे कलाम ने आम जनता के राष्ट्रपति की छवि इसीलिए बना ली थी, क्योंकि वह अक्सर विकास और जनकल्याण की बातें किया करते थे। तत्कालीन सरकार ने इन बातों पर विचार का आश्वासन तो दिया, लेकिन किया कुछ भी नहीं। इन स्थितियों में आम जनता के बीच यही संदेश जाता है कि राष्ट्रपति की कोई अहमियत नहीं। राष्ट्रपति पद की गरिमा की रक्षा राजनीतिक दलों को ही करनी है। मौजूदा परिस्थितियों में यह तभी संभव है जब न केवल राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रक्रिया पर नए सिरे से चिंतन-मनन हो, बल्कि उन्हें कुछ ऐसी जिम्मेदारी भी दी जाए जिससे वह जनहित और देशहित में शासन व्यवस्था में उल्लेखनीय योगदान दे सकें। गठबंधन राजनीति के इस युग में ऐसा करना तो और अधिक जरूरी है।

 

इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं

 

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