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मुश्किल राह पर राहुल

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay Guptकांग्रेस ने आखिरकार राहुल गांधी को राष्ट्रीय चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाकर न केवल उन्हें औपचारिक रूप से पार्टी में नंबर दो के दर्जे पर पहुंचा दिया, बल्कि यह संकेत भी दे दिए कि उसने अगले आम चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। इसके अगले ही दिन सपा ने अपने 55 लोकसभा प्रत्याशियों के नाम का ऐलान कर दिया और इस तरह उत्तर प्रदेश में उसने दोनों ही राष्ट्रीय दलों-कांग्रेस और भाजपा के सामने एक चुनौती पेश कर दी। वैसे तो केंद्र सरकार का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस लगातार यह कह रही है कि मध्यावधि चुनाव की कोई संभावना नहीं है और यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति का मौजूदा परिदृश्य यही संकेत करता है कि अगले वर्ष कभी भी मध्यावधि चुनाव की नौबत आ सकती है। विशेषकर तृणमूल कांग्रेस के एफडीआइ के मुद्दे पर अलग हो जाने के बाद केंद्र सरकार जिस तरह सपा और बसपा के समर्थन पर आश्रित हो गई है उससे लोकसभा चुनाव समय से पूर्व होने की अटकलों को आधारहीन नहीं कहा जा सकता। वैसे भी तृणमूल कांग्रेस के समर्थन वापस ले लेने के बाद तकनीकी रूप से केंद्र सरकार अल्पमत में ही है। पिछले सप्ताह कांग्रेस ने सूरजकुंड में आयोजित अपनी संवाद बैठक में केंद्र सरकार को यह नसीहत दी कि वह जल्द से जल्द पार्टी के घोषणापत्र के वायदों को पूरा करे और ऐसी आर्थिक नीतियों पर अमल करे जो आम आदमी को राहत पहुंचाने वाली हों। ऐसा लगता है कि कांग्रेस को यह अहसास हो रहा है कि उसके नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का दूसरा कार्यकाल आम आदमी के हितों के लिहाज से अच्छा नहीं रहा है।


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विशेषकर सब्सिडी वाले घरेलू गैस सिलेंडरों की संख्या सीमित करने का फैसला आम आदमी पर भारी पड़ रहा है। संवाद बैठक में रक्षा मंत्री एके एंटनी ने इस फैसले पर अपनी नाराजगी भी जाहिर की। उनका कहना था कि कांग्रेस की नीतियां हमेशा से मध्यमार्गी और वामपंथी झुकाव वाली रही हैं। फिर नीतियों में यह दक्षिणपंथी भटकाव क्यों नजर आ रहा है? भले ही सोनिया गांधी ने शीघ्र चुनाव की संभावना को खारिज किया हो, लेकिन कांग्रेस ने जिस तरह अपने चुनावी रथ की बागडोर राहुल गांधी को सौंपी और लाख कोशिशों के बावजूद केंद्र सरकार की छवि में सुधार नहीं हो पा रहा है उससे मध्यावधि चुनाव की संभावना को स्वत: बल मिलता है। कांग्रेस का चुनावी प्रबंधन अब तक अनौपचारिक रूप से सोनिया गांधी के पास रहता था। वैसे राहुल गांधी के लिए यह जिम्मेदारी कोई नई नहीं है, क्योंकि पिछले दो-तीन वर्षो से सभी चुनावों में कांग्रेस का अभियान उन्हीं की देखरेख में चलता रहा है। यह स्वाभाविक ही है कि प्रत्येक राजनीतिक दल की तरह कांग्रेस भी यह उम्मीद कर रही है कि वह अगले आम चुनाव में अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन करेगी, लेकिन मौजूदा राजनीतिक माहौल कांग्रेस के अनुकूल नजर नहीं आता। जहां तक कांग्रेस में राहुल गांधी की भूमिका बढ़ने का प्रश्न है तो यह स्वाभाविक ही है कि पार्टी उनसे चमत्कार की आशा कर रही है। राहुल गांधी युवा और जोश से भरे हुए राजनेता हैं, लेकिन पिछली कुछ चुनावी असफलताओं और खासकर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने उनके नेतृत्व व जमीनी सच्चाई के आकलन की क्षमता पर कुछ सवाल खड़े किए हैं। राहुल गांधी ने अभी तक सरकार में ऐसा कोई पद भी ग्रहण नहीं किया जिससे उनकी प्रशासनिक क्षमता की परीक्षा होती। इस बार के मंत्रिमंडल विस्तार में भी यह उम्मीद की जा रही थी कि वह सरकार को नई धार देने के लिए कैबिनेट में शामिल होंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।


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राहुल गांधी की क्षमताओं को लेकर चाहे जितनी बातें की जाएं, लेकिन उन्हें इसका श्रेय तो देना ही होगा कि वह विपरीत परिस्थितियों में भी कांग्रेस को एकजुट रखने में कामयाब हैं और हताशा के माहौल में पार्टी की सबसे बड़ी उम्मीद बने हुए हैं। पार्टी का बड़ा से बड़ा नेता भी राहुल गांधी के नेतृत्व में ही आगे बढ़ना चाहता है। ऐसे में उनके ऊपर यह जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह कांग्रेस की नैया पार लगाएं, लेकिन यह तभी संभव है जब केंद्र सरकार अपने कामकाज से यह आभास कराएगी कि वह आम जनता की समस्याओं का समाधान करने और साफ-सुथरा शासन देने के लिए प्रतिबद्ध है। राहुल गांधी को राष्ट्रीय चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाने के साथ ही कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव से संबंधित तीन उपसमितियों का भी गठन किया है। इसके साथ ही पार्टी सभी राज्यों की राजनीतिक तस्वीर जानने के लिए विशेष पर्यवेक्षक भेजने का सिलसिला भी शुरू करने जा रही है। माना जा रहा है कि कांग्रेस मार्च तक लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों की अपनी पहली सूची जारी कर देगी। उम्मीदवारों के नाम तय करने के मामले में क्षेत्रीय दल हमेशा राष्ट्रीय दलों से आगे रहते हैं, क्योंकि उनमें नामों को लेकर विरोध उभरने की गुंजाइश कम होती है। इसके विपरीत भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों के लिए यह काम हमेशा जटिल सिद्ध होता है। कांग्रेस को यह आभास होना स्वाभाविक ही है कि देर से प्रत्याशी घोषित करने के कारण उसके प्रत्याशियों को क्षेत्र में कार्य करने का कम समय मिलता है। अब देखना यह है कि राहुल गांधी को चुनाव अभियान की कमान मिलने के बाद क्या यह स्थिति बदलेगी? इसमें संदेह नहीं कि कांग्रेस की सबसे बड़ी शक्ति गांधी परिवार का नेतृत्व है और इस दल में नेतृत्व संबंधी कोई विरोध भी नहीं है, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि राज्यों में जितनी उठापटक और गुटबाजी कांग्रेस में व्याप्त है उतनी संभवत: किसी अन्य दल में नहीं है। राज्यों में तमाम ऐसे वरिष्ठ नेता हैं जो एक-दूसरे को तनिक भी पसंद नहीं करते। इन स्थितियों में यदि आलाकमान की ओर से प्रत्याशियों के संदर्भ में कोई निर्णय ले भी लिया जाता है तो उनको जमीनी स्तर पर समर्थन नहीं मिलता। पिछले कुछ वर्षो में राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के जनाधार में आई गिरावट का यह एक प्रमुख कारण भी रहा है। कुछ ऐसी ही स्थिति भाजपा की भी है।


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इसके विपरीत क्षेत्रीय दल इस तरह की गुटबाजी से बचे रहते हैं, बावजूद इसके कि ज्यादातर क्षेत्रीय दलों का संचालन निजी उपक्रम के रूप में किया जाता है। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है तो यद्यपि उसका इतिहास सौ वर्ष से भी पुराना है, लेकिन यह दल अभी भी चुनावी सफलता के लिए पूरी तौर पर गांधी परिवार पर आश्रित है और कुल मिलाकर आंतरिक लोकतंत्र से कोसों दूर है। राज्यों में गुटबाजी के हालात कांग्रेस नेतृत्व पर सवालिया निशान तो लगाते ही हैं, इस आवश्यकता को भी रेखांकित करते हैं कि पार्टी में सच्चे अर्थो में आंतरिक लोकतंत्र को स्थापित करने के लिए नेतृत्व और विशेषकर राहुल गांधी को वास्तव में कुछ ठोस उपाय करने होंगे। यह विचित्र है कि राहुल गांधी आंतरिक लोकतंत्र के लिए सक्रिय तो नजर आते हैं, लेकिन उनकी इस सक्रियता के कोई सार्थक प्रभाव नजर नहीं आते। युवक कांग्रेस में पदाधिकारियों के चयन के तौर-तरीकों में बदलाव का उनका प्रयोग भी एक सीमा से अधिक प्रभाव नहीं डाल सका। अब देखना यह है कि चुनाव की बागडोर संभालते हुए वह वरिष्ठ नेताओं को किस तरह एकजुट कर पाते हैं। यदि वह इसमें सफल रहे तो न केवल उनकी नेतृत्व क्षमता का लोहा माना जाएगा, बल्कि कांग्रेस उन मुश्किलों से भी उबर जाएगी जिनमें वह आज घिरी हुई नजर आ रही है।


लेखक संजय गुप्त


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