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बीते माह जालंधर में एक कंबल फैक्ट्री का भवन ढह जाने से भयावह दुर्घटना घट गई। इस दुर्भाग्यपूर्ण हादसे में कई लोगों की जानें चली गई और कई घायल भी हुए। हालांकि राहत और बचाव के लिए कोशिशें तुरंत शुरू हो गई थीं, लेकिन हालात ऐसे थे कि लंबे समय तक घायलों और मृतकों को बाहर नहीं निकाला जा सका। केंद्र से आई एनडीआरएफ की टीम को भी एक हफ्ते से अधिक समय लग गया। कई जीवित लोग भी फैक्ट्री भवन के मलबे में दबे रह गए, जिन्होंने निकाले जाने के बाद बाहर आकर अपने त्रासद अनुभव बताए। इससे यह तो जाहिर होता ही है कि हमारी राहत एवं बचाव संबंधी व्यवस्था की क्या स्थिति है। यह भी साफ हो जाता है कि मानदंडों का अनुपालन सुनिश्चित कराने के लिए जिम्मेदार सरकारी विभाग कितनी जिम्मेदारी से अपना काम कर रहे हैं। वस्तुत: यह आलोचना का नहीं, बल्कि हमारे शासन-प्रशासन के लिए आत्मनिरीक्षण का विषय है। घटना तो सबको दिखाई देती है, लेकिन इसके पीछे का सत्य जानने की कोशिश कम लोग करते हैं। आखिर क्यों होते हैं ऐसे हादसे? यह जानना भी कम जरूरी नहीं है कि क्यों हम आपदाग्रस्त लोगों को समय पर आवश्यक सहायता और सुविधाएं मुहैया नहीं करा पाते? अगर यह व्यवस्था सही कर ली जाए तो दुर्घटनाओं से होने वाले नुकसान पर हम काफी हद तक काबू पा लेंगे।
ऐसी घटनाएं देश के लगभग हर हिस्से में हो चुकी हैं और सैकड़ों लोगों की जानें इनके चलते जा चुकी हैं। यहां तक कि देश की राजधानी दिल्ली भी इससे अछूती नहीं है। हमारे आज के समाज का सबसे त्रासद सच यह है कि प्राकृतिक असंतुलन या मनुष्य की गलतियों के ही चलते हो गए किसी हादसे के बाद मदद के हाथ कम, दोष मढ़ने वालों की उंगलियां ज्यादा उठती हैं। पीडि़तों की मदद के लिए तो कम लोग आते हैं, उनकी पीड़ा से लाभ उठाने की कोशिश करने वाले लोग पहले आ जाते हैं। ऐसे लोग पीडि़तों को बचाने, उनकी मदद करने, या कम से कम स्थितियों को सामान्य बना लेने की दिशा में ही सही.. अपनी किसी भूमिका की तलाश नहीं करना चाहते। वे सिर्फ एक ऐसा सिर तलाश रहे होते हैं, जिसे टोपी पहनाई जा सके। हर शख्स अपने मन मुताबिक अपराधी की तलाश में जुट जाता है। जिसे जिससे खुन्नस निकालनी होती है, उसे अपराधी करार दे देता है। किसी को अपराधी ठहराने के पहले लोग उसका पक्ष सुनना और जानना तो दूर, घटना के भुक्तभोगियों की बात सुनना या अनुभव जानना भी जरूरी नहीं समझते। जांच-पड़ताल की प्रक्रिया तो खैर, उनके लिए कोई मायने ही नहीं रखती।
दुनिया की शायद ही कोई कोर्ट इतनी तेज गति से फैसला सुनाती होगी जितनी कि भारत के बयानबाज लोग सुना देते हैं। यह किसी एक शहर या प्रांत नहीं, पूरे देश की स्थिति है। घटना हुई नहीं कि उनके बयान तैयार रहते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि घटना बाद में होती है, वे बयान पहले तैयार कर लेते हैं। ऐसे लोगों में अधिकतर वही शामिल होते हैं, जिन्हें किसी न किसी तरह अपनी राजनीति चमकाने का मौका चाहिए होता है। इनमें सिर्फ छुटभैये नेता ही हों, ऐसा नहीं है। कई बड़े नेता भी इसी मानसिकता का परिचय देते हैं। ये वही लोग हैं, जो किसी हादसे के बाद पीडि़तों की मदद करते कभी कहीं नहीं देखे जाते। चाहे वह सड़क दुर्घटना हो या घर ढहने या आग लगने या फिर बाढ़-भूकंप जैसी कोई प्राकृतिक आपदा ही क्यों न हो। ऐसे ही कई नेता और यूनियन अब संबंधित फैक्ट्री मालिक के पीछे पड़ गए हैं। जाहिर है, इस मामले में विभिन्न महकमों के अधिकारी भी पीछे नहीं रहेंगे। वे जिस तरह की बयानबाजियां कर रहे हैं, उससे ऐसा लगता है गोया फैक्ट्री मालिक ने जान बूझकर फैक्ट्री भवन ढहाया हो। यह जानने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है कि ऐसी हृदयविदारक घटना घटी क्यों? बेशक अनजाने में भी किसी की गलती के कारण हो गई दुर्घटना की जिम्मेदारी से उसे मुक्त नहीं किया जा सकता, लेकिन उसके लिए कुछ न्यायिक मानदंड निर्धारित हैं।
जांच की पूरी प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से गुजरे बगैर ही कैसे किसी को हम जिम्मेदार मान लेंगे? यह प्रवृत्ति राजनीति के लिए भले फायदेमंद हो, पर उद्योग जगत के लिए हताशा का कारण बनती है। इसका उलटा असर न केवल उद्योगों, बल्कि आर्थिक विकास की पूरी प्रक्रिया पर पड़ता है। क्योंकि उद्योगों के विकास से ही देश में कृषि विकास और रोजगार सृजन से लेकर जीवन स्तर के उन्नयन तक की प्रक्रिया जुड़ी हुई है। उद्योग लगाना और चलाना मामूली साहस का काम नहीं है। जो उद्योग लगाता है वह केवल अपने लिए मुनाफा कमाने का इरादा ही नहीं रखता, बहुत लोगों को रोजगार देने और बेहतर गुणवत्ता की वस्तुएं उपभोक्ताओं तक पहुंचाने का मंसूबा भी रखता है। अपने कर्मचारियों को वह शत्रु नहीं, अपनी पूंजी मानता है। क्या कोई उद्योगपति जान-बूझकर फैक्ट्री के लिए ऐसा भवन बनवाएगा, जो ढह जाए? लोग यह क्यों भूलते हैं कि फैक्ट्री में केवल मजदूर ही नहीं, स्वयं वह भी काम करता है। हमारे देश में किसी भी तरह के भवन निर्माण के लिए कुछ मानक निर्धारित हैं।
छोटे-बड़े कस्बों से लेकर बड़े महानगरों तक में और रिहायशी घरों से लेकर फैक्ट्री भवन बनाने तक के लिए उनका पालन किया जाना अनिवार्य है। उनकी अनदेखी करके बनाए गए घर सिर्फ ढहाए ही नहीं जा सकते, बनाने वालों को सजा भी भुगतनी पड़ सकती है। इनका अनुपालन सुनिश्चित कराने के लिए देश के हर कस्बे और शहर में भारी-भरकम महकमा है। अगर इस पूरी व्यवस्था के बावजूद कहीं कोई घर या फैक्ट्री भवन मानकों के विपरीत बना हो तो क्या उसमें किसी कारणवश हो गई छोटी-बड़ी दुर्घटना के लिए इस अमले की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? हालांकि मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने राहत कार्यो के लिए राज्य की अपनी टीम बनाने की बात की है, लेकिन असल सवाल केवल राहत का नहीं है। जरूरत ऐसी घटनाओं को रोकने की है। सच तो यह है कि जब तक हम ऐसी बातों के लिए सरकारी अमले की जिम्मेदारी सुनिश्चित नहीं करेंगे, तब तक ऐसी दुर्घटनाओं को रोक पाना किसी भी कीमत पर संभव नहीं होगा। देश के सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार की बाढ़ होने की सबसे बड़ी वजह ही यही है कि सरकारी कर्मचारी किसी भी बात के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। इस बात के लिए छोटे कस्बों तक में कई लोग नियुक्त हैं कि कोई घर मानकों के विपरीत न बनने पाए। इसके बावजूद मकान बनते हैं और गिरते हैं तो उसके लिए संबंधित कर्मचारियों और अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई क्यों नहीं की जानी चाहिए? जो लोग अपनी जिम्मेदारी सही ढंग से नहीं निभा रहे हैं, उनकी जरूरत किसी विभाग में क्यों हो? इन सवालों से हमें जूझना ही होगा और इनके सही जवाब पाने ही होंगे। वरना, ऐसे हादसों को रोक पाना कभी संभव नहीं होगा।
लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं
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