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रिजर्व बैंक की मुद्रास्फीति पर काबू पाने की कोशिश एक बार फिर बेकार साबित हुई। रिजर्व बैंक ने जिस दिन ब्याज दरें बढ़ाईं उसके अगले दिन खाद्य महंगाई की दर 11 प्रतिशत के आंकड़े को पार कर गई। इस बार खाद्य महंगाई बढ़ने का कारण सब्जी, दूध और फलों के दाम बढ़ना बताया गया है। अब यह और स्पष्ट हो गया कि रिजर्व बैंक के सहारे मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने की नीति विफल हो गई है। वह पिछले 20 माह में 13 बार ब्याज दरें बढ़ा चुका है, लेकिन महंगाई कम होने का नाम नहीं ले रही। विशेषज्ञों की नजर में इसका कारण खाद्य वस्तुओं की मांग में वृद्धि होना है, लेकिन समस्या यह है कि खाद्य उत्पादन बढ़ाने और उनकी आपूर्ति व्यवस्था दुरुस्त करने के कोई विशेष उपाय नहीं किए जा रहे। यह अच्छी बात है कि देर से ही सही, रिजर्व बैंक को इसका अहसास हो गया कि ब्याज दरें बढ़ाने से महंगाई थमने वाली नहीं और उसने आगे ऐसा न करने का फैसला लिया है। वैसे भी ब्याज दरें बढ़ाते रहने से विकास दर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था, लेकिन अभी यह देखना शेष है कि सरकार महंगाई रोकने के लिए अपने स्तर पर क्या प्रयास करती है? यदि खाद्य वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि के प्रयास नहीं किए जाते तो समस्याएं बढ़ना तय है। चूंकि सरकारी तंत्र शिथिल पड़ गया है इसलिए कृषि पैदावार बढ़ाने, खाद्यान्न भंडारण की व्यवस्था करने, सिंचाई परियोजनाओं को आगे बढ़ाने आदि काम ठप से पड़े हुए हैं।
एक समस्या यह भी है कि केंद्र सरकार आवश्यक आर्थिक सुधारों की दिशा में भी आगे नहीं बढ़ पा रही। संप्रग सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में न तो आधारभूत ढांचे को मजबूत कर पा रही है और न ही विकास योजनाओं को गति दे पा रही है। बिजली उत्पादन के लक्ष्य हासिल करने में मिल रही विफलता का परिणाम यह है कि देश के सामने बिजली संकट की स्थिति बनती दिख रही है। हाल का बिजली संकट केंद्र सरकार की नाकामी का नया उदाहरण है। यदि पर्याप्त बिजली उत्पादन नहीं होता तो कृषि उत्पादन के साथ-साथ औद्योगिक उत्पादन भी प्रभावित हो सकता है।
केंद्र सरकार की अकर्मण्यता सिर्फ बढ़ती महंगाई के रूप में ही सामने नहीं है। सामाजिक कल्याण की योजनाएं भी आगे बढ़ती नहीं दिख रही हैं। यह तब है जब संप्रग सरकार की दूसरी पारी शुरू करते समय सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने केंद्रीय मंत्रियों को इसके लिए आगाह किया था कि पहले के मुकाबले इस बार अधिक प्रभावी जीत के कारण ज्यादा जोश-खरोश से काम करने की आवश्यकता है, लेकिन पार्टी और सरकार की अंदरूनी राजनीति ने ऐसी करवट बदली कि प्रधानमंत्री की कर्मठता और सोनिया गांधी की दूरदर्शिता धरी की धरी रह गई। सरकार भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से उबर पाती कि वह विभिन्न मंत्रालयों के आपसी टकराव में उलझ गई। गठबंधन राजनीति का रोना रोने के साथ नौकरशाहों पर दोष मढ़ने का परिणाम यह हुआ कि वे हाथ पर हाथ रखकर बैठ गए। सरकार के संचालन और समन्वय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले नौकरशाह शिथिल हो जाएं तो फिर शासन का चक्का जाम होने में समय नहीं लगता। राष्ट्रमंडल खेल घोटाले और फिर स्पेक्ट्रम घोटाले के आरोपी नेता तो जेल चले गए, लेकिन जेल जाते-जाते वे नौकरशाहों को यह संदेश भी दे गए कि सक्रियता का परिचय देने के बजाय उतना ही काम करें जितने में उन पर उंगली न उठने पाए। नतीजा यह है कि करीब-करीब हर मंत्रालय में जरूरी फाइल अटकी पड़ी है। रही-सही कसर दिग्गज नेताओं के बीच की तनातनी ने पूरी कर दी है। अब तो ऐसा लगता है कि न तो प्रधानमंत्री अपनी सरकार में समन्वय स्थापित कर पा रहे हैं और न ही सोनिया गांधी वरिष्ठ नेताओं के मतभेद समाप्त करा पा रही हैं। पहले यह माना जा रहा था कि सोनिया गांधी की बीमारी ने सरकार की गतिशीलता को प्रभावित किया है, लेकिन उनके स्वस्थ होकर वापस सक्रिय होने के बावजूद स्थितियों में कोई खास सुधार होता हुआ नहीं दिखता। उनकी बीमारी के समय जब राहुल गांधी ने पार्टी की कमान संभाली थी तब ऐसा लगा था कि वे आगे बढ़कर कुछ ठोस निर्णय लेंगे, लेकिन वह सरकारी कामकाज से अपने को दूर रखे रहे। इससे कांग्रेस जनों को भी निराशा हुई। कांग्रेसजन यह चाहते हैं कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनें, लेकिन वह सरकारी कामकाज से दूर भाग रहे हैं। कांग्रेस जनों की मानें तो राहुल गांधी का लक्ष्य कांग्रेस को उन राज्यों में जीत दिलाना है जहां वह सत्ता से बाहर है या फिर बहुत कमजोर है। आने वाले समय में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब जैसे अहम् राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। राहुल गांधी का ध्यान इन्हीं राज्यों पर है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि बिहार और तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में वह पार्टी को तनिक भी बढ़त नहीं दिला सके। अब जब यह तय है कि राहुल गांधी चुनाव वाले राज्यों में व्यस्त रहेंगे तब फिर इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह सरकार के कामों में दिलचस्पी लेंगे। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि केंद्र सरकार जिन समस्याओं और विशेष रूप से महंगाई और भ्रष्टाचार से दो-चार है उन पर राहुल गांधी अपने विचार तक व्यक्त नहीं करते।
देश में समस्याएं जिस तेजी से बढ़ती जा रही हैं उसके लिए केवल केंद्र सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता। मौजूदा विकट हालात के लिए राज्य सरकारें भी जिम्मेदार हैं। अनेक योजनाओं पर सही तरह से काम इसलिए नहीं हो पा रहा, क्योंकि राज्य सरकारें अपनी जिम्मेदारी समझने के लिए तैयार नहीं। राज्य अपनी योजनाएं केवल चुनाव जीतने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर संचालित कर रहे हैं। वे न केवल केंद्र पर आश्रित होते चले जा रहे हैं, बल्कि कठोर निर्णय लेने से बच रहे हैं। खाद्य उत्पादन बढ़ाने के मामले में उन्हें ही सक्रियता दिखानी होगी। यदि राज्यों ने नई उर्वरक नीति में रोड़े अटकाने जारी रखे तो खाद्य मुद्रास्फीति पर अंकुश लगना और मुश्किल हो सकता है।
भले ही वित्त मंत्रालय जब तब यह आश्वासन देता रहता हो कि शीघ्र ही मुद्रास्फीति काबू में आएगी और खाद्य महंगाई पर भी लगाम लगेगी, लेकिन हाल-फिलहाल ऐसा कुछ होने की संभावना नहीं नजर आती। यदि सरकार आलोचना से बचने के लिए कोई लोक-लुभावन और विशेष रूप से सब्सिडी बढ़ाने वाले निर्णय लेती है तो आर्थिक मोर्चे पर कठिनाइयां और बढ़ सकती हैं। वैसे भी इन दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था वैश्विक मंदी की आहट से बेचैन है। इस कठिन दौर में राहत की बात है तो यही कि जहां खुद प्रधानमंत्री आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं वहीं योजना आयोग में भी कुशल अर्थशास्त्री बैठे हुए हैं। इस सबके बावजूद सरकार को अपनी साख सुधारने के लिए सच्चे मन से प्रयास तो करने ही होंगे।
बेकाबू महंगाई के लिए केंद्र सरकार की निष्क्रियता और दिशाहीनता को जिम्मेदार मान रहे हैं संजय गुप्त
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