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चुनावी परीक्षा की घड़ी

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay Guptराष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से पांच राज्यों, खासकर यूपी, उत्तराखंड और पंजाब के चुनावों का महत्व रेखांकित कर रहे हैं संजय गुप्त


नववर्ष की शुरुआत बीते वर्षो की यादों के साथ और विशेष रूप से यह स्मरण करते हुए हुई कि लोकपाल विधेयक पारित कराने का दावा करने वाली केंद्र सरकार ने राज्यसभा में अपनी किरकिरी कराई। अब देश का ध्यान पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों पर है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर के चुनाव परिणाम भविष्य की राजनीति की दशा-दिशा तय करने वाले माने जा रहे हैं। इन पांच राज्यों में राजनीतिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उत्तर प्रदेश। यहां दो क्षेत्रीय दलों सपा-बसपा के साथ-साथ दोनों राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भाजपा की भी प्रतिष्ठा दांव पर है। पिछले चुनावों में कांग्रेस और भाजपा, दोनों की हालत पतली रही। एक समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस का गढ़ था। इसके बाद यह भाजपा का गढ़ बना, लेकिन वह जैसे-जैसे अपने मूल मुद्दों और विशेष रूप से अयोध्या में मंदिर निर्माण के वायदे से पीछे हटती गई वैसे-वैसे इस राज्य में उसका प्रभाव घटता गया। रही-सही कसर भाजपा नेताओं की अति महत्वाकांक्षा और पदलोलुपता ने पूरी कर दी। जिस तरह प्रत्येक चुनाव के पहले दलबदल का दौर शुरू हो जाता है उसी तरह इस बार भी हो रहा है। उत्तर प्रदेश में दलबदल का कुछ ज्यादा ही जोर है। सभी दल दूसरे दलों के नेताओं को अपना उम्मीदवार बनाने में लगे हुए हैं, लेकिन भाजपा ने बसपा से निकाले गए एनआरएचएम घोटाले के आरोपी एवं पूर्व मंत्री बाबूसिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है।


भाजपा का उक्त निर्णय इसलिए चौंकाने वाला है, क्योंकि लालकृष्ण आडवाणी ने देशव्यापी रथयात्रा ही भ्रष्टाचार के खिलाफ की थी। इसके अलावा भाजपा ने खुद को मजबूत लोकपाल कानून का समर्थक बताते हुए संसद में जोरदार बहस भी की थी। पिछले वर्ष भ्रष्टाचार को लेकर केंद्र सरकार की नाक में दम करने वाली भाजपा ने भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे कुशवाहा को गले लगाकर देश को क्या संदेश देने की कोशिश की है, यह समझ से परे है। भाजपा कुशवाहा का बचाव कर रही है, लेकिन उन पर सीबीआइ का शिकंजा जिस तरह कस रहा है उससे भाजपा की मुश्किलें बढ़ना तय है।


उत्तर प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस अपने खोए हुए जनाधार को वापस पाने की कोशिश में हैं, लेकिन सपा-बसपा उन्हें तगड़ी चुनौती दे रही हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग के नए फार्मूले को अपनाकर अकेले दम पर सरकार बनाने में सफलता पाई। उसने सवर्ण और विशेष रूप से ब्राšाण मतदाताओं को खुद से जोड़ने के लिए दलित-ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन आयोजित करने के साथ यह नया नारा भी गढ़ा-पंडित शंख बजाएगा, हाथी आगे बढ़ता जाएगा। इस नारे ने अपना असर अवश्य दिखाया, लेकिन इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि 2007 में बसपा को 30.45 प्रतिशत ही वोट मिले थे, जो सपा के 26.14 प्रतिशत से केवल चार प्रतिशत अधिक थे। यह भी उल्लेखनीय है कि सपा 172 सीटों पर नंबर दो पर रही थी और इनमें से 52 सीटें वह पांच हजार से भी कम वोटों से हारी थी। स्पष्ट है कि इस बार बसपा के लिए परिस्थितियां कठिन हैं, खासकर यह देखते हुए कि उसे सत्ता विरोधी माहौल से भी दो-चार होना पड़ेगा।


उत्तर प्रदेश में पिछले पांच वर्षो में विकास के नाम पर खानापूरी ही अधिक हुई है। राजधानी लखनऊ और दिल्ली में सटे नोएडा में बसपा ने दलितों के भव्य स्मारक स्थल बनवाकर अपने वोट बैंक को रिझाने का काम भले ही किया हो, लेकिन यह समय ही बताएगा कि इससे उसे कोई विशेष चुनावी लाभ भी मिल सकेगा। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी मायावती सरकार ने अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में अनेक मंत्रियों को निष्कासित कर अथवा उनके टिकट काटकर जनता को यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह भ्रष्टाचार के विरुद्ध है, लेकिन इस संदेश को देने में बहुत देर हो चुकी है। वैसे भी यह जग-जाहिर है कि बसपा सरकार में मुख्यमंत्री की जानकारी के बगैर कुछ भी नहीं होता। आश्चर्य नहीं कि मंत्रियों के निष्कासन के मायावती केफैसले पर विरोधी दल यह कह रहे हैं कि इसके जरिये भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने की कोशिश हो रही है। हालांकि समाजवादी पार्टी खुद को बसपा के विकल्प के रूप में पेश कर रही है, लेकिन उसकी राह आसान नहीं। आम धारणा है कि चुनाव बाद यदि सपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी तो वह कांग्रेस और रालोद सेमिलकर सरकार बना सकती है। यही कारण है कि सपा और कांग्रेस के आरोप-प्रत्यारोप को विरोधी दल नूरा कुश्ती करार दे रहे हैं। इस सबके बीच कांग्रेस के उत्थान के लिए राहुल गांधी ने एड़ी-चोटी का जोर लगा रखा है, लेकिन भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस को इस एक अतिरिक्त सवाल का सामना करना पड़ रहा है कि उनकी ओर से मुख्यमंत्री पद का दावेदार कौन है? ऐसा इसलिए, क्योंकि यह एक परिपाटी सी बन गई है कि विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दल मैदान में उतरने के साथ ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार को भी आगे कर देते हैं।


उत्तर प्रदेश के मुकाबले पंजाब विधानसभा चुनाव दो दलों-कांग्रेस एवं अकाली-भाजपा गठबंधन के बीच हैं। उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल पिछले चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने वाली भाजपा के साथ मिलकर इस कोशिश में हैं कि उनका गठबंधन फिर से सत्ता में आ जाए, लेकिन इतिहास बदलना आसान नहीं। पंजाब का चुनावी इतिहास यह है कि मतदाता किसी दल को लगातार दोबारा सत्ता में नहीं आने देता। देश का समृद्ध राज्य होने के कारण यहां के लोगों की उम्मीदें भी अधिक हैं, लेकिन पिछली तीन सरकार के कार्यकाल को देखा जाए तो यही नजर आता है कि वे आम जनता की समस्याओं का निराकरण नहीं कर पाई। पंजाब की तीन मूल समस्याओं-उद्योगों का पलायन, खेती के संकट और बढ़ती नशाखोरी-का समाधान न तो अकाली-भाजपा सरकार कर सकी और न ही कांग्रेस सरकार। देखना है कि इस बार पंजाब की जनता इन तीनों समस्याओं के निराकरण के लिए किस पर अपना भरोसा जताती है?


पंजाब की ही तरह उत्तराखंड का भी चुनावी परिदृश्य है। यहां भी दो दलों-कांग्रेस और भाजपा के बीच मुख्य मुकाबला है और यहां की जनता भी बारी-बारी से दोनों को सत्ता सौंपती रही है। भाजपा ने उत्तराखंड में दो माह पहले ही अपना मुख्यमंत्री बदला है। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे रमेशचंद्र पोखरियाल की जगह साफ-सुथरी छवि वाले भुवनचंद खंडूरी को लाया गया है। यह समय बताएगा कि खंडूरी उस सबकी भरपाई कर सकेंगे जो चार वर्ष में गंवाया गया। वैसे तो विधानसभा चुनाव सभी दलों के लिए महत्वपूर्ण हैं, लेकिन कांग्रेस के लिए इसलिए ज्यादा महत्व वाले हैं, क्योंकि यदि वह बेहतर प्रदर्शन करती है तो राज्यसभा में अपनी अल्पमत स्थिति में सुधार कर सकेगी। यदि ऐसा होता है तो वह केंद्रीय सत्ता का संचालन और अधिक आसानी से कर सकेगी तथा उन तमाम महत्वपूर्ण विधेयकों को आगे बढ़ा सकेगी जो इस कारण भी अटके हुए हैं, क्योंकि राज्यसभा में वह बहुमत से काफी दूर है।


इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


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