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नाकामी की स्वीकारोक्ति

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay Guptगृहमंत्री पी. चिदंबरम की यह स्वीकारोक्ति कि आतंकवाद को नियंत्रित करने के लिए सरकार उतना काम नहीं कर पाई जितना उसे करना चाहिए था, चिंतित और साथ ही सवाल खड़े करने वाली है। पहला सवाल यही उठेगा कि जब उनके साथ-साथ प्रधानमंत्री भी यह मान रहे हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा को आतंकवाद की चुनौती मिल रही है तब फिर उससे निपटने के लिए निर्णायक कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं? इसके पहले गृहमंत्री ने नक्सलियों को सबसे खतरनाक मानते हुए कहा था कि वे देश की अस्मिता के लिए खतरा बन गए हैं और उनकी हिंसा में कोई कमी नहीं आई है। बावजूद इसके उनका यह भी कहना था कि नक्सलवाद से निपटने की जिम्मेदारी मूलत: राज्यों की है। इस सबसे यही स्पष्ट होता है कि केंद्र और राज्य सरकारें न तो आतंकवाद से निपटने के लिए तैयार हैं और न ही नक्सलवाद से। इससे बड़ी शर्म की बात और कोई हो नहीं सकती कि इन दोनों खतरों से निपटने के लिए ठोस कदम उठाने के स्थान पर मजबूरियों का रोना रोया जा रहा है। इसी कारण आतंकवाद के साथ-साथ नक्सलवाद भी बेकाबू हो रहा है। यह अच्छी बात है कि नक्सलवाद और आतंकवाद पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री एक स्वर में बात कर रहे हैं, लेकिन आखिर उनके वक्तव्यों में नया क्या है? ये दोनों खतरे नए नहीं हैं, लेकिन उन पर चिंता इस तरह जताई जा रही है जैसे उनके बारे में कुछ नए खुलासे अभी हुए हों? कहीं इसका कारण जनता का ध्यान महंगाई और भ्रष्टाचार से हटाना तो नहीं है? यह संदेह इसलिए, क्योंकि सरकार महंगाई और भ्रष्टाचार को लेकर उठे सवालों का जवाब तक नहीं दे पा रही है।


यह जगजाहिर है कि नक्सलवाद ने देश के लगभग पूरे खनिज बहुल इलाकों को चपेट में ले लिया है। भारतीय गणतंत्र के खिलाफ विद्रोह पर उतारू नक्सली अपनी उस विचारधारा से पूरी तरह भटक चुके हैं जो आदिवासियों को न्याय दिलाने के नाम पर शुरू की गई थी। आज नक्सली संगठन वन एवं खनिज संपदा पर कब्जा करने वाले माफिया बन गए हैं। नक्सलियों के इरादों से परिचित होते हुए भी राज्य सरकारें उनके खिलाफ कठोर कदम उठाने के लिए तैयार नहीं और अब केंद्र सरकार उनके समक्ष खुद को असहाय सा दिखा रही है। नक्सली अपनी पैठ लगातार मजबूत करते जा रहे हैं। बावजूद इसके केंद्र सरकार ने ऐसे कोई कानून नहीं बनाए हैं जिनसे उनके खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की जा सके। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जनजातियों के विकास के लिए जो तमाम योजनाएं बनाई गई हैं वे नक्सलवाद की कमर नहीं तोड़ पा रही हैं। केंद्र के पास इस सवाल का जवाब नहीं कि पाबंदी के बावजूद नक्सली संगठन क्यों ताकतवर होते जा रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं नक्सली संगठन राजनीतिक दलों से मिलकर अपने को और मजबूत कर रहे हैं? यह आशंका इसलिए, क्योंकि दशकों के प्रयास के बावजूद नक्सली संगठनों का दबदबा कम होने का नाम नहीं ले रहा। चुनावों के समय नक्सली क्षेत्रों में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीतिक दल अपने जो उम्मीदवार खड़े करते हैं उनमें से अनेक नक्सलियों का समर्थन पाने की कोशिश में रहते हैं। तमाम स्थानीय राजनेता तो नक्सलियों से गुपचुप गठजोड़ भी कर लेते हैं। इस सबसे शीर्ष पर बैठे राजनेता अनजान नहीं हो सकते, लेकिन वे आंखें बंद किए हुए हैं। यह ठीक नहीं कि जो स्थानीय राजनेता नक्सलियों से नरमी बरत रहे हैं उनसे ही यह कहा जाए कि वे नक्सली क्षेत्रों की जनता का दिलोदिमाग जीतने की कोशिश करें। इस तरह के सुझावों से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं, क्योंकि उन पर अमल की संभावना नहीं दिखती। ऐसे सुझाव तो नक्सलियों के दुस्साहस को और बढ़ाएंगे ही।


आंतरिक सुरक्षा के समक्ष मौजूद दूसरे सबसे बड़े खतरे अर्थात आतंकवाद के मामले में भी यह स्पष्ट है कि राज्य और केंद्र अपनी जिम्मेदारी समझने के लिए तैयार नहीं। मुंबई और फिर दिल्ली में आतंकी हमले से यह स्पष्ट है कि घरेलू आतंकी संगठनों ने अपनी जड़ें जमा ली हैं। पिछले दिनों ऐसे ही एक संगठन इंडियन मुजाहिदीन को अमेरिका ने वैश्विक आतंकी संगठन का हिस्सा मानते हुए उस पर प्रतिबंध लगाया और यह भी कहा कि उसके संबंध पाकिस्तान से हैं। अमेरिका की मानें तो इंडियन मुजाहिदीन ने 2008 में मुंबई में हुए आतंकी हमले के दौरान लश्करे तैयबा को मदद दी थी। भारत सरकार ऐसा मानने से इंकार करती रही है। अमेरिकी प्रशासन का यह भी निष्कर्ष है कि लश्करे तैयबा, जैशे मुहम्मद, हुजी की तरह इंडियन मुजाहिदीन का भी मकसद गैर मुसलमानों पर हमले कर दहशत फैलाना और दक्षिण एशिया में एक कट्टंर इस्लामी राष्ट्र का निर्माण करना है। जब यह स्पष्ट है कि इंडियन मुजाहिदीन का मकसद वही है जो दक्षिण एशिया और विशेष रूप से पाकिस्तान के जेहादी संगठनों का है तब फिर इस धारणा का कोई मतलब नहीं कि यह देसी आतंकी संगठन अपनी गतिविधियों के जरिये मुसलमानों के साथ हो रहे कथित अन्याय का बदला ले रहा है अथवा उसका उद्देश्य हिंदुओं-मुसलमानों के बीच बैर बढ़ाना भर है। फिलहाल यह सामने आना शेष है कि अमेरिका की तरह भारत सरकार भी इंडियन मुजाहिदीन को लश्कर, जैश और हुजी जैसा खतरनाक संगठन मानने के लिए तैयार है या नहीं? भारत सरकार इंडियन मुजाहिदीन को चाहे जिस नजर से देखे, यह ठीक नहीं कि दिल्ली विस्फोट के बाद जब अमेरिका ने इंडियन मुजाहिदीन और लश्कर की साठगांठ उजागर की तब प्रधानमंत्री ने यह स्वीकारा कि सीमा पार आतंकी संगठन फिर सक्रिय हो रहे हैं और हमारी सुरक्षा एजेंसियां पर्याप्त सक्षम नहीं। केंद्र सरकार ने यकायक जिस तरह आतंकवाद और नक्सलवाद के बेकाबू होते जाने के कारण गिनाने शुरू कर दिए हैं वह कुछ वैसा ही है जैसे महंगाई और भ्रष्टाचार को लेकर यह कहा जाने लगता है कि इनसे निपटने के लिए उसके पास जादू की छड़ी नहीं। यह निराशाजनक है कि केंद्र सरकार न केवल शुतरमुर्गी रवैया अपना रही है, बल्कि अपनी असफलता छिपाने के लिए आम जनता का ध्यान भटकाने का भी काम कर रही है।


यदि आतंकवाद और नक्सलवाद पर काबू पाना है तो केंद्र और राज्यों को वोट बैंक की राजनीति से परे हटकर कुछ कठोर निर्णय लेने होंगे। वोट बैंक की राजनीति को आगे रखकर राष्ट्रीय हितों की रक्षा नहीं हो सकती। यह वोट बैंक की राजनीति ही है जिसके चलते आतंकवाद और नक्सलवाद से निपटने के तरीकों पर आम सहमति कायम नहीं हो पा रही है। यदि आतंकवाद और नक्सलवाद पर काबू नहीं पाया जा सका तो आंतरिक सुरक्षा का परिदृश्य बिगड़ने के साथ ही देश की अंतरराष्ट्रीय छवि भी प्रभावित होगी। इस सबका असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा और विदेशी पूंजी निवेश पर भी। आंतरिक सुरक्षा पर ढिलाई बरतने से भारत का हाल वैसा ही हो सकता है जैसा पाकिस्तान का वहां के आतंकी संगठनों ने कर रखा है।


आतंकवाद व नक्सलवाद के संदर्भ में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के वक्तव्यों पर निराशा जता रहे हैं संजय गुप्त


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