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दबाव से मुक्त हो नेतृत्व

संपादकीय ब्लॉग
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Nishikant Thakurजैसे ही सरकार घाटी में सामान्य हालात बहाल होने के दावे करती है, आतंकवादी अपनी उपस्थिति का एहसास करवा देते हैं। बीते सप्ताह भी कश्मीर में यही हुआ। लालचौक में जब हालात सामान्य होने के नाम पर, तुष्टिकरण की सियासत के लिए सीआरपीएफ का बंकर हटाया जा रहा था तो वहां से कुछ ही दूरी पर डाउन टाउन में आतंकियों ने पुलिस के एक असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर को सरे बाजार गोलियों से भून डाला। यह दिन में पौने दस बजे की घटना है। एएसआई सुखपाल सिंह अपने साथियों के साथ नियमित गश्त पर थे, जब आतंकियों ने अचानक उन पर गोलियां चला दीं। श्रीनगर के एसएसपी ने भी इस बात को स्वीकार किया कि जहां आतंकियों ने हमला किया, वहां काफी भीड़ थी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आतंकियों का दुस्साहस किस हद तक बढ़ गया है। इन हालात में भी हमारे राजनेता बार-बार वहां से सेना हटाने, पाकिस्तान की ओर दोस्ती के हाथ बढ़ाने, अलगाववादियों से बातचीत के जरिये मसला हल करने और शांतिपूर्ण समाधान की बात करते रहते हैं। यह बात केवल कश्मीर ही नहीं, आतंकवाद से जुड़े दूसरे मामलों में भी दिखाई दे रही है।

 

 आम तौर पर राजनीतिक नेतृत्व ऐसे मामलों में टालू रवैया अपनाता है और यही पूरे देश की सुरक्षा व्यवस्था के लिए खतरा बनता जा रहा है। अगर पिछले एक दशक का इतिहास देखा जाए तो हमें यही मिलता है कि अक्सर हम आतंकवादियों को कड़े संदेश देने में विफल रहे हैं। अक्सर हमने टालमटूल की नीति अपनाई है और सर्वोच्च न्यायालय में दोष सिद्ध हो जाने के बाद भी उन्हें छोड़ते आए हैं। हमारे देश में कुछ ऐसी ताकतें सक्रिय हो गई हैं, जो आतंकवादियों को उनके वास्तविक खांचे में देखने के बजाय उन्हें किसी न किसी जाति-धर्म से जोड़ कर देखने के लिए राजनेताओं को मजबूर कर देती हैं और इसके साथ ही उनके सारे कसूर माफ करने के लिए दबाव बनाना शुरू कर देती हैं। ऐसा लगता है जैसे राष्ट्रद्रोह अब यहां कोई अपराध नहीं रह गया है और राष्ट्र अब किसी की चिंता का विषय नहीं रह गया है। सबकी चिंता कुछ खास जातियों और संप्रदायों तक सिमट कर रह गई है और इसके नाम पर कुछ भी कराया जा सकता है।

 

सुप्रीम कोर्ट से सुनाई गई फांसी की सजा अनंत तक लटकाई जा सकती है, आतंकवादियों को छुड़वाया जा सकता है और सरकार को कोई भी कदम पीछे खींचने के लिए मजबूर किया जा सकता है। आतंकवाद को केवल कश्मीर तक सीमित रखकर देखने का कोई अर्थ नहीं है। सच तो यह है कि कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद हो या देश के तमाम हिस्सों में फैल रहा नक्सली या माओवादी आतंकवाद, ये हर रूप में सिर्फ आतंकवाद ही हैं। वस्तुत: ये एक ही राक्षस के अलग-अलग रूप हैं और अपने हर रूप में यह पूरे देश की खुशहाली के लिए खतरा है। आम जनता साफ तौर पर मानती है कि आतंकवादियों का मनोबल लगातार बढ़ता ही जा रहा है। जैसे-जैसे इनका मन बढ़ रहा है, वैसे-वैसे आम जनता के लिए जीवन मुश्किल होता जा रहा है। जब भी देश में कहीं आतंकवादी घटना घटती है तो हर शख्स यह सवाल उठाता दिखता है कि नेताओं ने अपने लिए तो सुरक्षा की सारी व्यवस्था कर ली है, लेकिन आमजन क्या करें? हमारी जान-माल की सुरक्षा की तो कोई गारंटी कहीं नहीं है। क्या आम आदमी को जीने का कोई हक नहीं है? यह सोचने की बात है कि देश में बड़े अधिकारियों तक के जीवन का कोई भरोसा नहीं है तो आम जनता की स्थिति क्या होगी।

 

छत्तीसगढ़ में डीएम के बदले में माओवादियों ने न केवल अपने आठ साथियों को छोड़ने, बल्कि आपरेशन ग्रीन हंट भी रोकने की मांग रखी है। अगर ऐसे ही हम पकड़े गए आतंकवादियों को छोड़ने और उनके खिलाफ चलाए जा रहे अभियान रोकने की मांगें मानते रहे तो इन सारी कसरतों का मतलब क्या रह जाएगा? क्या हम दुर्गम क्षेत्रों में अभियान केवल अपने जवानों की बलि चढ़ाने के लिए चलाते हैं? आतंकवादियों का मन सिर्फ इसलिए नहीं बढ़ रहा है कि अधिकतर मामलों में हमारे जवान मारे जा रहे हैं। सबसे कष्टप्रद बात यह है कि ये असंख्य कुर्बानियां किसी काम नहीं आ रही हैं। जवान अपनी जान पर खेलकर आतंकवादियों को पकड़ते हैं। इसके बाद उन पर वषरें तक मुकदमे चलते हैं और जेलों में डाल दिए जाते हैं। इस बीच छुट्टे घूम रहे उनके साथी किसी का अपहरण करते हैं और जेल में बंद अपने साथियों को छुड़ा ले जाते हैं। यही नहीं, कोर्ट अगर उन्हें फांसी की सजा सुना दे तो भी दया याचिका के नाम पर सजा ही दशकों तक लटकाई जा सकती है। यही नहीं, यहां तो यह तक हो चुका है कि एक पुलिस इंस्पेक्टर अपनी जान की कीमत पर आतंकवादियों से टक्कर लेता है और फिर उसकी शहादत पर भी राजनीति शुरू हो जाती है।

 

देश की सुरक्षा की कीमत पर राजनीति की अनुमति कब तक हमारे देश में दी जाती रहेगी? अराजक तत्व यह मान चुके हैं कि भारत में उन्हें कोई खतरा नहीं है। वे किसी न किसी तरह सरकार पर दबाव बना ही लेंगे। यह समझना मुश्किल है कि सरकार दबाव में आती क्यों है? क्यों वह देश का अमन-चैन छीनने वालों के खिलाफ मजबूती से कड़े निर्णय नहीं ले पाती? खासकर कश्मीर में लोगों का मनोबल इसलिए और भी गिर रहा है कि जैसे ही वहां स्थिति थोड़ी सामान्य होने लगती है, सरकार वहां से सेना और अ‌र्द्धसैन्य बल हटाने की सोचने लगती है। हमें समझना होगा कि अलगाववादी वहां अमन-चैन कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे और सेना को बदनाम करने की कोशिश भी वे नहीं छोड़ेंगे। सैन्य बलों का मनोबल बनाए रखना सरकार की जिम्मेदारी है। राजनेताओं को समझना होगा कि कश्मीर में अलगाववादी सेना का होना बर्दाश्त क्यों नहीं कर पाते। जैसे ही वहां थोड़ी ढील मिलती है, आतंकवादियों को दबाव बढ़ाने का मौका मिल जाता है। वे अपना नेटवर्क फिर से मजबूत कर लेते हैं, जिसे कमजोर करने में फिर से सेना को काफी समय और श्रम लगाना पड़ता है। यह मान लेने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि आतंक का सफाया किए बिना घाटी में शांति बहाली नहीं होगी। यही नहीं, आतंकियों से यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि समझाने-बुझाने या नरमी बरतने से उनका हृदय परिवर्तन हो जाएगा। वे सिर्फ दबाव की भाषा ही जानते हैं और वही समझेंगे।

 

दबाव उन पर अहिंसक तरीके से नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए हमें कड़े तरीके ही अपनाने होंगे और इस मामले में सरकार को अपनी दृढ़ता का परिचय देना होगा। सोच से लेकर निर्णय लेने तक हर स्तर पर दृढ़ता दिखानी होगी। यह केवल कश्मीर ही नहीं, बल्कि देश भर में फैले सभी तरह के आतंकवादियों को संदेश देने के लिए भी जरूरी है। जब तक हम ऐसा संदेश नहीं देते तब तक आतंकवादी अपनी हरकतों से बाज नहीं आएंगे। सरकार को दबावों से मुक्त होकर पूरी तरह आतंकवाद को कुचलने पर आमादा हो जाना चाहिए।

 

निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं)

 

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