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जनमानस को झकझोरने वाले घोटालों और विशेष रूप से राष्ट्रमंडल खेलों, 2जी स्पेक्ट्रम और फिर कोयला खदानों के आवंटन से जुड़े भ्रष्टाचार के बाद भी जिस तरह ऐसे मामले सामने आते जा रहे हैं उससे जनता के मन में मौजूदा व्यवस्था को लेकर संशय बढ़ना स्वाभाविक है। जनता के मन में संशय के साथ-साथ आक्रोश भी बढ़ रहा है। कुछ समय पहले इसी आक्रोश की परिणति अन्ना हजारे के आंदोलन के रूप में सामने आई थी, जो उन्होंने सशक्त लोकपाल के समर्थन में छेड़ा था।यह आंदोलन अंजाम तक नहीं पहुंच सका, लेकिन जनता के एक बड़े वर्ग ने यह महसूस करना आरंभ कर दिया है कि भ्रष्टाचार वास्तव में देश की प्रगति में बाधक बन रहा है और राजनीतिक दल उस पर अंकुश लगाने के लिए तैयार नहीं। अन्ना के आंदोलन से सारे राजनीतिक दल हिल गए थे और संसद ने भ्रष्टाचार पर नियंत्रण का संकल्प व्यक्त करते हुए लोकपाल के गठन की अन्ना हजारे की मांग पर मुहर लगाई थी। राजनीतिक दलों की हीलाहवाली से लोकपाल ठंडे बस्ते में चला गया और इसके साथ ही भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीतिक वर्ग की प्रतिबद्धता पर नए सिरे से सवाल खड़े हो गए। राजनीतिक दलों की इसी हीलाहवाली के कारण अन्ना के प्रमुख साथी और लोकपाल के पक्ष में मुखर आवाज उठाने वाली संस्था इंडिया अगेंस्ट करप्शन के कर्ता-धर्ता अरविंद केजरीवाल ने व्यवस्था में परिवर्तन के लिए राजनीतिक दल गठित करने का फैसला किया। हालांकि अन्ना और लोकपाल के लिए संघर्ष करने वाले कुछ अन्य सामाजिक कार्यकर्ता भी राजनीतिक विकल्प तैयार करने के केजरीवाल के फैसले से सहमत नहीं हैं, लेकिन देश में एक वर्ग ऐसा भी है जो इसे सकारात्मक पहल के रूप में देखता है।
केजरीवाल भारतीय राजस्व सेवा से त्यागपत्र देने के बाद सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय हुए हैं। उन्होंने पहले अपनी पहचान सूचना अधिकार कानून के लिए संघर्ष करने वाले के रूप में बनाई और फिर अन्ना के आंदोलन के जरिये राष्ट्रीय स्तर पर अपनी ख्याति कायम की। अब वह राजनेता बनने की प्रक्रिया में हैं। केजरीवाल मौजूदा व्यवस्था की खामियों से भलीभांति परिचित तो हैं ही, उनके पास बदलाव संबंधी विचार भी हैं। केजरीवाल ने राजनीतिक दल के गठन का फैसला करने के बाद खुद को लोगों के साथ जोड़ने के लिए दिल्ली में बिजली के गलत बिलों के खिलाफ एक मुहिम छेड़ी। वह बिजली कंपनी द्वारा काटे गए कनेक्शनों को जोड़कर अपना विरोध जता रहे हैं। उनका यह तरीका सही नहीं है। एक राजनीतिक दल के रूप में उन्हें और उनके साथियों को यह आभास होना चाहिए कि वह कानून अपने हाथों में नहीं ले सकते। केजरीवाल और उनके साथी एक गलत मिसाल पेश कर रहे हैं। उन्हें कानून के दायरे में रहते हुए जनाधार तैयार करना होगा। केजरीवाल ने राजनीति में उतरने के साथ ही गांधी परिवार पर हमला बोला। उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा की व्यावसायिक गतिविधियों पर सवाल खड़े किए। वाड्रा की शख्सियत को देखते हुए उनके खिलाफ लगाए गए आरोप मीडिया की सुर्खियों में भले हों, लेकिन किसी की अप्रत्याशित तरक्की का यह पहला मामला नहीं। ऐसे मामले आम हो चुके हैं। इसका ताजा उदाहरण जगनमोहन रेड्डी का है। केजरीवाल और उनके साथियों द्वारा सीधे-सीधे गांधी परिवार को निशाने पर लेने से कांग्रेस का तिलमिलाना स्वाभाविक है। यदि कांग्रेस का हर छोटा-बड़ा नेता वाड्रा का बचाव करने में लगा है तो सिर्फ इसीलिए कि उनका संबंध गांधी परिवार से है। वैसे यदि वाड्रा की व्यावसायिक गतिविधियों में गड़बड़ी का मामला न्यायपालिका तक पहुंचा तो केजरीवाल और उनके साथियों के लिए अपने आरोपों को साबित कर पाना टेढ़ी खीर साबित होगा, लेकिन फिलहाल तो यही देखना है कि वाड्रा मामले की कोई जांच होती है या नहीं? रॉबर्ट वाड्रा के मामले में अब तक जो भी तथ्य सामने आए हैं वे यह बताते हैं कि हाल के वर्षो में उनके कारोबार में यकायक वृद्धि हुई। केजरीवाल और उनके साथियों की मानें तो इस वृद्धि का कारण यह है कि उन पर एक कंपनी की ओर से अनुचित मेहरबानी की गई। इसमें अधिक हैरानी की बात इसलिए नहीं है, क्योंकि यह आज के जमाने का चलन है।
प्रभावशाली व्यक्ति की मदद करने के लिए हर कोई तैयार रहता है। इस मामले में देश यह जानना चाहता है कि क्या वाड्रा पर मेहरबानी के बदले उस कंपनी को भी अनुचित लाभ पहुंचाया गया? एक व्यक्ति के रूप में राबर्ट वाड्रा को अपनी व्यावसायिक गतिविधियां चलाने का पूरा अधिकार है और उन्हें केवल इसलिए निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए कि वह सोनिया गांधी के दामाद हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कांग्रेस की ओर से संदेह भरे सवालों के जवाब ही न दिए जाएं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने सीबीआइ और राज्यों की भ्रष्टाचार रोधी इकाइयों के सम्मेलन में विचार व्यक्त किया कि तेज विकास के कारण भ्रष्टाचार बढ़ा है। उन्होंने कारपोरेट जगत के भ्रष्टाचार के नियंत्रण की भी बात कही, लेकिन यह काम तो बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था। भ्रष्टाचार के संदर्भ में यह आम धारणा रही है कि राजनेता और नौकरशाह ही घपले-घोटालों को अंजाम देते हैं, लेकिन हाल के समय में भ्रष्टाचार के जो बड़े मामले उजागर हुए हैं उनसे यही पता चलता है कि भ्रष्ट नेता और नौकरशाह ही नहीं, कारपोरेट जगत के कुछ लोग भी बंदरबांट करने में लगे हुए हैं।
संप्रग सरकार के पहले और अब तक के दूसरे कार्यकाल में न जाने कितनी बार भ्रष्टाचार निरोधक कानून में संशोधन की बात कही गई, लेकिन कोई भी इस सवाल का जवाब देने के लिए तैयार नहीं कि आखिर यह काम कब होगा? आम आदमी यह देख-समझ रहा है कि राजनीति, नौकरशाही और कारपोरेट जगत में सक्रिय कुछ लोग किस तरह काली कमाई करने में लगे हुए हैं। इसे लेकर आम आदमी आहत भी है और नाराज भी। यही कारण है कि वह अन्ना अथवा रामदेव के आंदोलनों में बढ़-चढ़कर भाग लेता है। अब एक राजनेता की हैसियत से केजरीवाल और उनके साथी एक के बाद एक जो मामले उजागर कर रहे हैं उससे यह धारणा गहरा रही है कि ऊंची पहुंच वाले लोग चाहे कारपोरेट जगत में हों अथवा राजनीति में, वे भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं और फिर भी बच निकलते हैं। यदि यह धारणा पूरी तौर पर सही नहीं तो निराधार भी नहीं। यह आवश्यक है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जल्द से जल्द कोई ठोस, प्रभावशाली और वास्तव में सख्त कानून बने जिससे शासन-प्रशासन के साथ-साथ कारपोरेट जगत का कामकाज भी पारदर्शी तरीके से हो। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो न केवल आम जनता के मन में संदेह गहराएगा, बल्कि केजरीवाल जैसे लोगों को ताकत मिलेगी। फिलहाल यह कहना कठिन है कि केजरीवाल देश को कोई ठोस राजनीतिक विकल्प दे पाएंगे, हां उनका आंदोलन कानून एवं व्यवस्था की मुश्किलें बढ़ा सकता है।
इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं
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