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चीख-पुकार के बाद सुधार

संपादकीय ब्लॉग
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आखिरकार कुछ सुधारों पर सरकार आगे बढ़ी। यह वक्त बताएगा कि ये कितने कारगर साबित होंगे, लेकिन इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि अटके पड़े फैसलों पर निर्णय वित्तमंत्री के त्यागपत्र देने के एक दिन पहले हुआ। क्या इसके पहले वे फैसले नहीं लिए जा सकते थे जो सोमवार को लिए गए? इस पर भी गौर किया जाना चाहिए कि ये फैसले तब लिए गए जब सरकार के लिए मुंह छिपाना मुश्किल हो गया था। यदि रुपया लुढ़ककर 57 के पार नहीं पहुंचता और अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने देश की आर्थिक साख नहीं घटाई होती तो शायद सरकार की नींद अभी भी नहीं टूटती। यह समझना भी मुश्किल है कि वित्तमंत्री के रूप में प्रणब मुखर्जी तब क्यों चेते जब उनके वित्त मंत्रालय से विदा लेने का समय आ गया? राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में भले ही प्रणब मुखर्जी का गुणगान हो रहा हो, लेकिन तथ्य यह है कि वह वित्तमंत्री के रूप में नाकाम सिद्ध हुए। वैसे तो महत्वपूर्ण आर्थिक फैसले 2009 से ही रुके हुए हैं, लेकिन वे पूरी तौर पर तब थम गए जब एक के बाद एक घोटाले सामने आने लगे। पिछले लगभग डेढ़ साल से तो इस सरकार ने कुछ किया ही नहीं।


कुछ न करने के लिए उसके पास किस्म-किस्म के बहाने थे। कभी आम राय के अभाव की आड़ ली जाती और कभी विधानसभा चुनावों की। पहले पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल आदि राज्यों के विधानसभा चुनावों की आड़ ली गई, फिर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब समेत पांच राज्यों के चुनाव की। इन राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद भी सरकार ने हरकत में आने से इन्कार किया। इसके चलते सरकार के साथ-साथ देश की समस्याएं भी बढ़ीं, लेकिन स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। उलटे प्रधानमंत्री तरह-तरह की सफाई देने लगे। सबसे मजेदार सफाई यह दी गई कि समस्याएं न रहें तो जीवन का आनंद ही खत्म हो जाए। चूंकि सरकार की निर्णयहीनता से सबसे अधिक प्रभाव कारपोरेट जगत पर पड़ रहा था इसलिए वह कुछ ज्यादा ही बेचैन हुआ। उसके प्रतिनिधियों ने केंद्रीय मंत्रियों से मुलाकात की और सार्वजनिक रूप से अपनी चिंता भी व्यक्त की। इससे भी बात नही बनी तो उन्होंने चिट्ठियां लिखनी शुरू कीं। इसके नतीजे में सरकार हरकत में तो आई, लेकिन यह हरकत सिर्फ कारपोरेट जगत के प्रतिनिधियों को झिड़की देने तक सीमित रही।


इसके बाद अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने सरकार की सुस्ती, नीतिगत पंगुता, प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह की असहाय स्थिति और भारत की कमजोर आर्थिक स्थिति पर लिखना शुरू किया। बावजूद इसके सरकार सिमटी बैठी रही। जब अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने भारत की साख पर सवाल उठाने के साथ नीतिगत नाकामी के लिए सीधे-सीधे मनमोहन सरकार को जिम्मेदार ठहराना शुरू किया तो सरकार की नींद टूटी, लेकिन उसने कुछ करने के बजाय इन एजेंसियों को ही खारिज करना शुरू कर दिया। इस रवैये पर हैरानी नहीं, क्योंकि पिछले डेढ़ साल से देश को यही समझाया जा रहा है कि अंतरराष्ट्रीय स्थितियों के चलते मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। इसके भरे-पूरे आसार हैं कि सोमवार को सरकार की ओर से लिए निर्णयों के आधार पर कुछ लोग मनमोहन सरकार की सक्रियता का गुणगान करने लगेंगे, लेकिन इस सवाल का जवाब शायद ही मिले कि आखिर यह सरकार अभी तक हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठी रही? क्या भारत सरीखा विशाल देश ऐसी केंद्रीय सत्ता सहन कर सकता है जिसे बार-बार उसके कर्तव्यों की याद दिलानी पड़े? जो सरकार चौतरफा चीख-पुकार के बाद चेते उसे नाकारा कहने के अलावा और कोई उपाय नहीं।


किसी को भी इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि केंद्रीय सरकार अपनी तात्कालिक सक्रियता से डेढ़-दो वर्ष की निष्कि्रयता से हुई क्षति की पूर्ति करने में सक्षम साबित होगी। इसका एक कारण तो यह है कि गत दिवस जो भी निर्णय लिए गए उनका बाजार पर कोई बहुत सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा और दूसरे सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस आर्थिक हालात से बेपरवाह नजर आती है। उसकी सारी ऊर्जा अपने सहयोगियों को मनाने में खप रही है। कांग्रेस यह मानकर चल रही थी कि यदि ममता बनर्जी संप्रग से बाहर होती हैं तो मुलायम सिंह उनकी भरपाई कर देंगे, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव पर उन्होंने जिस तरह पलटी मारी उससे वह उतने ही अविश्वसनीय बन गए जितनी कि ममता बनर्जी। मुलायम सिंह यू-टर्न के पर्याय बन गए हैं। ममता बनर्जी तो जो कहती हैं वही करती हैं, लेकिन उनके विपरीत मुलायम सिंह जो कहते हैं उसके उलट करते हैं। इसमें दो राय नहीं कि ममता बनर्जी अलग-थलग पड़ गई हैं, लेकिन मुलायम सिंह की विश्वसनीयता भी प्रभावित हुई है। शायद वह तय नहीं कर पा रहे कि उन्हें कांग्रेस के साथ दिखना चाहिए या उसका विरोध करते हुए? वह केंद्र सरकार का तीन साल का कार्यकाल पूरे होने पर आयोजित समारोह में बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं और अगले ही दिन सपा की ओर से केंद्रीय सत्ता को नाकारा घोषित कर दिया जाता है।


मुलायम सिंह ममता बनर्जी के साथ मिलकर राष्ट्रपति प्रत्याशी के रूप में प्रणव की दावेदारी खारिज करते हैं, लेकिन उनका नाम घोषित होते ही उनकी पार्टी इस कोशिश में जुट जाती है कि वह बसपा से पहले उनका समर्थन कर दे। समाजवादी पार्टी ऐसे अवसरवादी रवैये से अपनी विश्वसनीयता नहीं बना सकती। यदि केंद्र सरकार सपा के भरोसे कुछ करना चाहती है तो उसे सावधान रहना चाहिए। उसे जो कुछ भी करना है, अपने बलबूते करे। यह तब संभव है जब कांग्रेस आर्थिक हालात की गंभीरता को समझेगी। अभी तो वह ऐसा जाहिर कर रही है जैसे आर्थिक चुनौतियों से जूझना केवल सरकार के कुछ मंत्रियों का काम है।


राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं


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