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राज्य पुनर्गठन : व्यापक हो नजरिया

संपादकीय ब्लॉग
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Nishikant Thakurराजनेताओं को जनता की शांतिपूर्ण मागों को खारिज करने की प्रवृत्ति छोड़ने की सलाह दे रहे हैं निशिकांत ठाकुर


उत्तर प्रदेश को चार राज्यों में बाटे जाने का सकल्प पारित करके राज्य की कैबिनेट ने केंद्र सरकार को भेज दिया है। इसके साथ ही नई बहस शुरू हो गई है। किसी भी मुद्दे की तरह इस मुद्दे के भी कुछ लोग पक्ष तो कुछ विरोध में खड़े हैं। अब यह प्रस्ताव प्रदेश की विधानसभा ने भी पारित कर दिया है। एक बात तो तय है कि यह मुद्दा उठने के साथ ही उत्तरप्रदेश की पूरी राजनीतिक दिशा अचानक बदल सी गई है। कुछ दिनों पहले तक घपले-घोटाले, सुशासन-अराजकता और महंगाई-बेकारी जैसे मसलों पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में उलझे सभी राजनेता अब इस मुद्दे के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गए हैं। यह मुद्दा राज्य की जनता के लिए कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है। यह बहस इस मुद्दे की सवेदनशीलता और इसके महत्व से उन लोगों को भी अवगत कराए दे रही है, जिन्हें उत्तर प्रदेश में पहले से उठ रही छोटे-छोटे राज्यों की माग और इसे लेकर किए गए छोटे-बड़े आदोलनों की कोई खास जानकारी नहीं है। देश की राजनीतिक दिशा तय करने वाले आबादी की दृष्टि से सबसे बड़े राज्य के बटवारे के प्रस्ताव में कुछ तो ऐसा है जो दूसरे दलों के दिग्गज राजनेताओं को बड़े-बड़े मसले छोड़ कर इस पर केंद्रित होने के लिए मजबूर कर रहा है।


राजनीतिक गलियारे में जिस तरह से इसका विरोध हो रहा है, अगर उसके तरीके, तकरें और स्वर पर गौर किया जाए तो जाहिर हो जाता है कि सुश्री मायावती के विरोधियों को इस प्रस्ताव के साथ ही अपनी राजनीतिक जमीन छिनती दिख रही है। उत्तर प्रदेश के जिन इलाकों के बटवारे की बात अभी की जा रही है, वहा की जनता अलग प्रदेश की माग को लेकर कभी हिंसक नहीं हुई। हालाकि शातिपूर्ण ढंग से अलग राज्य की माग काफी लबे अरसे से चली आ रही है। यह एक भयावह विडंबना है कि हमारे देश के राजनेता तब तक किसी माग को जनता की माग मानते ही नहीं है जब तक कि वह खून बहाने पर आमादा न हो जाए। जनभावनाओं का ऐसा निरादर शायद ही दुनिया के किसी दूसरे लोकतत्र में होता हो। उत्तराखंड राज्य की माग को लेकर उत्तर प्रदेश में ही किस तरह का खून-खराबा हो चुका है, यह सभी जानते हैं। अभी आध्र प्रदेश में तेलगाना राज्य के गठन की माग को लेकर जो कुछ हो रहा है, वह भी दुर्भाग्यपूर्ण ही है। यही स्थितिया हैं जो आम जनता को हिंसक तरीके अपनाने के लिए मजबूर करती हैं। इसके बावजूद राजनेता अभी भी शातिपूर्ण मागों को खारिज करने की प्रवृत्ति नहीं छोड़ पा रहे हैं।


उत्तर प्रदेश कैबिनेट के इस सकल्प को साफ तौर पर खारिज करने का साहस किसी भी दल में नहीं है। क्योंकि सभी इस मसले पर जनता की राय जानते हैं और मुद्दे की सवेदनशीलता भी। सबको मालूम है कि उत्तरप्रदेश की जनता प्रदेश का पुनर्गठन चाहती है और किसी एक इलाके की नहीं, बल्कि चारों क्षेत्रों की जनता अपने-अपने क्षेत्र को अलग राज्य इकाई के रूप में देखना चाहती है। यह अलग बात है कि प्रस्तावित अलग राज्यों के गठन के आधार व क्षेत्र को लेकर विभिन्न जनसगठनों की राय अलग-अलग है। इसीलिए कोई भी राजनीतिक सगठन इसे सीधे खारिज नहीं कर रहा है। इसके उलट वे इस पर बसपा सरकार द्वारा राजनीतिक लाभ उठाए जाने या अन्य स्वाथरें का हवाला दे रहे हैं। बेशक, इसके मूल में सुश्री मायावती का यह भी एक उद्देश्य हो सकता है, लेकिन क्या इतने ही कारण से यह पूरा मुद्दा खारिज कर दिया जाना चाहिए? इसका ठीक-ठीक जवाब किसी के भी पास नहीं है। ठीक तरह से समझने के लिए हमें इस मुद्दे को अपने सविधान निर्माताओं के नजरिये और सास्कृतिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। यह भी देखना होगा कि भारत में राज्यों के पुनर्गठन का आधार और इतिहास क्या रहा है।


स्वतत्रता के बाद भारत के आरंभिक दौर में हमारे देश में कई बहुत बड़े-बड़े राज्य थे। इनमें से एक-एक कर कई राज्यों का पुनर्गठन तो हो चुका है, लेकिन कई राज्यों का पुनर्गठन अभी भी होना बाकी है। जिन राज्यों का भी पुनर्गठन हुआ है, अधिकतर वह जनता की जोरदार माग के ही कारण हुआ है। मसलन मद्रास महाप्रात को तमिलनाडु और आध्र प्रदेश में बाटा गया तो पजाब को पजाब और हरियाणा में। इसी तरह बाद के दिनों में बिहार को बिहार व झारखंड, मध्य प्रदेश को मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तथा उत्तर प्रदेश को उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बाटा गया। इन सभी बटवारों का आधार केवल भौगोलिक और राजनीतिक ही नहीं रहा है, बल्कि सबके साथ सांस्कृतिक और भाषाई आधार भी जुड़े रहे हैं। अभी भी राज्यों के बटवारे की जो मागें चल रही हैं, सभी के मूल में भाषा-सस्कृति का आधार प्रमुख है। उत्तर प्रदेश के बटवारे की माग भी लबे अरसे से चल रही है और इस सदर्भ में जो भी मागें हैं, सभी भाषा-सस्कृति के आधार पर ही की जा रही हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने की माग चौधरी चरण सिह ने काफी पहले उठाई थी। उनके बाद उनके सुपुत्र चौधरी अजीत सिह ने इसी क्षेत्र को हरित प्रदेश के रूप में अलग राज्य बनाने की माग के रूप में आगे बढ़ाया। इससे थोड़ा भिन्न, कुंवर अरुण सिह द्वारा उठाई गई बृज प्रदेश की माग और भी पहले की है। बुंदेलखंड को भी अलग राज्य बनाने की माग 50 साल पुरानी है। अवध प्रदेश की माग कभी जोरदार तरीके से नहीं उठाई गई और उत्तर प्रदेश कैबिनेट के सकल्प में इसके जिक्र को लेकर सवाल भी उठाए जा रहे हैं। लेकिन यह बात कोई निराधार नहीं है। क्योंकि यह माग देर-सबेर उठनी ही है। तीन राज्यों के अलग हो जाने के बाद आखिर अवधी भाषी क्षेत्र कहा जाएगा? अब उत्तर प्रदेश में पूर्वाचल और उधर बिहार में मिथिला राज्य के गठन की माग भी काफी तेज होती जा रही है। बेहतर होगा कि इन सभी मागों पर तथ्यपरक ढंग से विचार किया जाए।


उत्तर प्रदेश कैबिनेट ने तो अपनी ओर से सकल्प पारित करके भेज दिया है। उधर बिहार के मुख्यमत्री नीतीश कुमार ने भी मिथिला राज्य का समर्थन किया है। अब इसमें बहुत कुछ करना केंद्र को है। बिहार में मिथिला राज्य की माग काफी समय से चल रही है। अब भाजपा नेता कीर्ति आजाद और बैजनाथ चौधरी ‘बैजू’ के नेतृत्व में इस माग को अधिक बल मिला है। इसके विभाजन के बाद यह लाजिमी सवाल होगा कि बिहार के भोजपुरीभाषी जिलों का क्या होगा? इन सबकी ओर से काफी पहले से उत्तर प्रदेश के भोजपुरीभाषी जिलों से जोड़कर अलग भोजपुर राज्य की माग चलती रही है। यह बात बुंदेलखंड के मामले में भी उठेगी, क्योंकि यह क्षेत्र भी उत्तर प्रदेश के साथ-साथ मध्य प्रदेश में भी फैला हुआ है। बेहतर होगा कि इस बार जो राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया जाए, वह पहले की ही तरह भाषा-सस्कृति को महत्वपूर्ण आधार मानकर इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश करे। तभी इसका वाछित लाभ मिल सकेगा।


लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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