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नजदीकी का नया अवसर [बराक ओबामा की भारत यात्रा]

संपादकीय ब्लॉग
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अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत की यात्रा पर ऐसे वक्त आ रहे हैं जब मध्यावधि चुनावों में पराजय के बाद उनके खराब दिनों की शुरुआत हो गई है। भारत के प्रति विशिष्ट नीति न रखने वाले बराक ओबामा अब वैसा कुछ करने की स्थिति में नहीं रह गए हैं, जैसा उनके पूर्ववर्ती जॉर्ज बुश कर गए थे यानी सुदृढ़ भारतीय विरासत छोड़ना। सच्चाई यह है कि अमेरिका-भारत संबंधों के गति पकड़ने में दोनों देशों की सरकारों का अधिक योगदान नहीं है। इसमें संदेह है कि ओबामा की यात्रा पहले से गर्माहट भरे भारत-अमेरिकी संबंधों को प्रतीकात्मक मजबूत बनाने से कुछ अधिक सार्थक होगी। उनके पूर्ववर्ती ने अपने विदाई समारोह में कहा था, ‘हमने भारत के साथ ऐतिहासिक और सामरिक साझेदारी की शुरुआत की है।’ तब से वृहत्तर भू-सामरिक मुद्दों पर भारत और अमेरिका के परस्पर हित होने के बावजूद दोस्ती में महत्वपूर्ण सामरिक विषयवस्तु जुड़ी है। इसके पीछे मुख्य रूप से व्यावसायिक समुदाय है, जो भारत के नागरिक और रक्षा समाज में व्यावसायिक अवसरों के विस्तार से उत्साहित है।


ओबामा की भारत यात्रा एशिया के चार प्रमुख लोकतांत्रिक देशों-भारत, जापान, इंडोनेशिया और दक्षिण कोरिया की यात्राओं का एक पड़ाव है। यद्यपि ओबामा पहले ही चीन की यात्रा कर चुके हैं। एशिया के प्रमुख लोकतंत्रों तक सीमित रहने की प्रतीकात्मकता बीजिंग के संदर्भ में कम नहीं हो जाती, जब विनिमय दरों, व्यापार और सुरक्षा के मुद्दे पर चीन के अड़ियल रवैये से अमेरिका के समीकरण गड़बड़ा गए हैं। ओबामा प्रशासन ने पिछला पूरा साल चीन को पटाने में लगा दिया। अमेरिका के उप विदेशमंत्री जेम्स स्टीनबर्ग द्वारा चीन के संदर्भ में ‘सामरिक आश्वासन’ की बात करना इस बात का द्योतक है कि अमेरिका के पास चीन की आकांक्षाओं पर और अधिक समझौते के अलावा कोई चारा नहीं है। यही संदेश विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने तब दिया जब बीजिंग यात्रा के दौरान उन्होंने मानवाधिकार के मुद्दों पर नरम रुख अपनाया। ओबामा ने घोषणा की कि अमेरिका के विश्व में सर्वाधिक महत्वपूर्ण द्विपक्षीय संबंध चीन के साथ हैं।


आज अपनी चीन नीति विफल होती देख ओबामा भी वही करने की सोच रहे हैं जो जार्ज बुश कर रहे थे-साझेदारों के साथ संबंध मजबूत करना और अगर चीन दबंगई पर उतर आता है तो उनकी सहायता से उस पर अंकुश लगाना। अब भी अनेक कारणों से यह नहीं लगता कि ओबामा की विदेश नीति में भारत का स्थान महत्वपूर्ण रूप से ऊपर हो गया है। पहला, वह भारत तब आ रहे हैं जब वस्तुत: उनका प्रभाव कम हो गया है। दूसरे, महत्वपूर्ण क्षेत्रीय मुद्दों, खास तौर पर अफगानिस्तान-पाकिस्तान, ईरान और म्यांमार पर उनका प्रशासन भारतीय नीति को अपने अनुरूप नहीं मानता। वह विशेषतौर पर पाकिस्तान पर निर्भर कर रहा है। अफगानिस्तान में युद्ध समाप्त करने पर दृढ़ प्रतिज्ञ ओबामा को इस काम में पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी की अधिक मदद की दरकार होगी। ओबामा अफगानिस्तान में युद्ध समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध हैं और इसके लिए अमेरिका को पाकिस्तानी सेना तथा खुफिया तंत्र की जरूरत है। सच तो यह है कि जिस तरह अमेरिका को अफगानिस्तान में युद्ध शुरू करने के लिए पाकिस्तान की जरूरत थी वैसी ही जरूरत अब लड़ाई छोड़ने के लिए हो रही है।


तीसरे, हालिया घटनाओं से चीन और अमेरिका के संबंधों में विश्वास में कमी आने के बावजूद वाशिंगटन ऐसे देश पर अंकुश लगाने का प्रयास नहीं करेगा, जिसके साथ उसके भारत की तुलना में अधिक गहरे राजनीतिक और राजनीतिक सूत्र जुड़े हैं। वास्तव में, अमेरिका को उन मुद्दों को छोड़ना होगा जिनसे भारत-अमेरिका संबंधों के कारण चीन को चिढ़ होती है। इनमें अरुणाचल प्रदेश में किसी भी प्रकार का सैन्य अभ्यास या 2007 में भारत, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जापान और सिंगापुर सरीखे सैन्य अभ्यास शामिल हैं। यहां तक कि अमेरिका का भारत और जापान के साथ त्रिपक्षीय नौसैनिक अभ्यास भी रोक दिए गए हैं ताकि चीन की भृकुटियां न तनें। इसीलिए वाशिंगटन ने अरुणाचल प्रदेश के मुद्दे पर निष्पक्ष दिखने के लिए चुप्पी का रास्ता अपनाया है।


दो महत्वपूर्ण मसलों-चीन और आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष, के संदर्भ में यह समझा जाता था कि इनसे भारत और अमेरिका के बीच सामरिक सहयोग आकार लेगा, लेकिन वास्तविकता इसके एकदम अलग निकली है। उदाहरण के लिए डेविड हेडली मामले ने यह साफ कर दिया है कि अमेरिका आतंकवाद के मामले में भारत के साथ नजदीकी सहयोग करने के लिए तैयार नहीं। इससे भी अधिक नाभिकीय संधि के बावजूद अमेरिका को भारत को निर्यात प्रतिबंधों में राहत देना बाकी है। अमेरिका-चीन संबंध भी असामान्य बने रहने की संभावना है, लेकिन उतना ही सत्य यह है कि उनके बीच अत्यधिक प्रतिस्पर्धा अथवा तल्खी किसी पक्ष को रास नहीं आएगी। अमेरिका के लिए दरअसल चीन की उभरती शक्ति एशिया में अपनी सैन्य सक्रियता बढ़ाने का बहाना प्रदान करती है। इससे अमेरिका को अपने पुराने सहयोगियों को बनाए रखने तथा नए सहयोगी तैयार करने का भी अवसर मिलता है। मिड-टर्म चुनावों में शिकस्त मिलने के बाद बराक ओबामा अपनी भारत यात्रा के दौरान अमेरिका के व्यावसायिक हितों को आगे बढ़ाने पर जोर देंगे, जिसमें अमेरिकी लोगों के लिए स्वदेश में रोजगार के अवसर बढ़ाना शामिल है। मिड-टर्म चुनावों में रिपब्लिकन की सफलता दो नारों के साथ आई है-एक यह है कि रोजगार के अवसरों के सृजन की आवश्यकता और दूसरा, सरकारी खर्र्चो में कटौती की जरूरत। साफ है कि जिन मुद्दों से सीधे-सीधे भारत को लाभ पहुंचना है, उन पर ओबामा से ज्यादा कुछ उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।


वाशिंगटन के नजरिए से देखें तो भारत के साथ अरबों डालर के हथियार सौदे से दोनों देशों के बीच सहयोग के नए स्तर की झलक मिलती है। नई दिल्ली में ओबामा और अधिक हथियार सौदों की पेशकश कर सकते हैं, लेकिन जहां तक भारत का प्रश्न है तो हथियारों के लिए अमेरिका पर बढ़ती निर्भरता एक परेशान करने वाला रुझान है। शीत युद्ध के समय भारत हथियारों के लिए सोवियत संघ पर निर्भर था और अब भारत की अमेरिका पर निर्भरता बन रही है। जो भी हो, यह तथ्य अपनी जगह कायम है कि अमेरिका और भारत आज जितने नजदीक हैं उतने वे कभी करीब नहीं रहे। उनका बहुपक्षीय सहयोग आगे और अधिक बढ़ेगा-नीतिगत मतभेदों और कतिपय क्षेत्रीय मुद्दों के बावजूद।

Source: Jagran Yahoo

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