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2 जी घोटाले को केंद्र सरकार, विशेषकर मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम के माथे पर नाकामी के कलंक के रूप में देख रहे हैं राजीव सचान
सुप्रीम कोर्ट की ओर से 2जी स्पेक्ट्रम के सभी 122 लाइसेंस खारिज किए जाने के बाद कांग्रेस से ज्यादा उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता उत्साहित है और यह स्वाभाविक भी है, लेकिन यह बयान देश को गुमराह करने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं कि जिन लोगों ने भी चिदंबरम पर आरोप लगाए उन्हें न केवल टीवी कैमरों के सामने, बल्कि उनके घर जाकर उनसे माफी मांगनी चाहिए। ऐसा कोई भी नहीं करने वाला और न ही ऐसी अपेक्षा की जानी चाहिए। कम से कम कपिल सिब्बल को तो ऐसी अपेक्षा बिलकुल भी नहीं करनी चाहिए, जो स्पेक्ट्रम घोटाले में शून्य राजस्व हानि का दावा करने के लिए आज भी याद किए जाते हैं। कपिल सिब्बल की मानें तो सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सरकार को कुछ नहीं कहा है और जिन्होंने गड़बड़ी की उनके यानी ए. राजा के बारे में सबको पता है कि वह कहां हैं? उनकी यह दलील भी है कि चूंकि स्पेक्ट्रम आवंटन की नीति राजग सरकार ने तय की थी और उसी पर अमल किया गया इसलिए भाजपा को सारे देश से माफी मांगनी चाहिए, लेकिन यह दलील भी देश को गुमराह करने की कोशिश के अतिरिक्त और कुछ नहीं। क्या राजग शासन की ओर से तय की गई स्पेक्ट्रम आवंटन की नीति पत्थर की लकीर थी? क्या उसमें हेर-फेर करना असंवैधानिक होता? क्या संप्रग सरकार ने राजग सरकार की अन्य सभी नीतियों को यथावत अपना रखा है? क्या कपिल सिब्बल यह कहना चाहते हैं कि शासन भले ही संप्रग का हो, लेकिन नीतियां राजग शासन की हैं? कपिल सिब्बल ने यह तर्क भी दिया है कि अब सब जान गए हैं कि राजा ने तत्कालीन वित्तमंत्री यानी चिदंबरम की बात नहीं सुनी? क्या वह यह बताएंगे कि ऐसा क्यों हुआ? क्या इसलिए कि राजा द्रमुक कोटे के मंत्री थे और प्रधानमंत्री का उन पर कोई जोर नहीं था? क्या राजा को मनमानी करने की छूट मिली हुई थी? जब राजा ने चिदंबरम की बात नहीं मानी तो क्या यह मान लिया गया था कि अब वह किसी की नहीं सुनने वाले? क्या जब राजा ने चिदंबरम की बात नहीं मानी तो वह अपने इस सहयोगी के खिलाफ और कोई कदम उठाने से डर गए थे? क्या तब प्रधानमंत्री भी राजा के समक्ष असहाय हो गए थे? क्या देश यह मान ले कि 2004 की गठबंधन सरकार में घटक दल का एक मंत्री प्रधानमंत्री से भी ताकतवर हो गया था? क्या इसीलिए प्रारंभ में प्रधानमंत्री ने राजा को न केवल क्लीनचिट दे दी थी, बल्कि किसी किस्म के घोटाले से भी इंकार कर दिया था?
स्पेक्ट्रम घोटाले में चिदंबरम को सह आरोपी बनाने की याचिका खारिज करते हुए विशेष अदालत ने स्पष्ट किया है कि ऐसे कोई सबूत नहीं हैं जिनसे यह माना जा सके कि स्पेक्ट्रम आवंटन में उन्होंने आर्थिक लाभ के लिए अथवा बुरी नीयत से कोई काम किया? यह संभव है कि ऊंची अदालतें भी इसी नतीजे पर पहुंचें, लेकिन क्या चिदंबरम और साथ ही प्रधानमंत्री इस सवाल का जवाब दे पाएंगे कि वह राजा को रोक क्यों नहीं सके? यह वह सवाल है जो चिदंबरम और मनमोहन सिंह का पीछा नहीं छोड़ने वाला। इसकी एक बड़ी वजह खुद सरकार की ओर से तैयार किया गया वह नोट है जिसमें कहा गया है कि यदि चिदंबरम चाहते तो पहले आओ-पहले पाओ की नीति पर स्पेक्ट्रम आवंटन रोक सकते थे। राजा को मनमानी करने से रोक पाने में चिदंबरम और मनमोहन सिंह की नाकामी एक दाग की तरह जीवन भर उनका पीछा करेगी। जब भी स्पेक्ट्रम घोटाले का जिक्र होगा, यह अवश्य याद किया जाएगा कि तत्कालीन वित्तमंत्री चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह किन्हीं अज्ञात कारणों से राजा को रोक नहीं सके थे। नाकामी का यह दाग इतना अमिट है उसे दुनिया की कोई अदालत नहीं मिटा सकती। मुश्किल यह है कि नाकामी के ऐसे अमिट दाग बढ़ते जा रहे हैं और वे किसी न किसी स्तर पर प्रधानमंत्री को भी अपनी चपेट में ले रहे हैं। इससे भी खराब बात यह है कि ज्यादातर मामलों में या तो सीधे प्रधानमंत्री आरोपित हो रहे हैं या फिर उनके खास सहयोगी।
स्पेक्ट्रम घोटाले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह कहा जा रहा है कि सरकार को एक अवसर मिला है और वह चाहे तो इस झटके से उबरकर खुद की छवि को सुधार सकती है। नि:संदेह बड़े आघात लोगों को संभलने का अवसर प्रदान करते हैं, लेकिन जो सरकार यह मान रही हो कि स्पेक्ट्रम घोटाले में उसने कुछ किया ही नहीं और माफी तो भाजपा को मांगनी चाहिए उससे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह खुद को संभालने का काम करेगी? ऐसी कोई संभावना इसलिए और स्याह नजर आ रही है, क्योंकि यह एक ऐसी सरकार है जो अपने लिए समस्याओं की खोज करती है। यह देखना दुखद है कि केंद्र सरकार इस आरोप से मुक्त भी नहीं हो पाई थी कि उसे अपने सेनाध्यक्ष पर यकीन नहीं कि उसने वैज्ञानिकों को नीचा दिखाने का अभियान छेड़ दिया। एंट्रिक्स-देवास सौदे में वह यह साबित करना चाहती है कि सारा दोष वैज्ञानिकों का था। यदि सरकार यह कहना चाहती है कि सिर्फ चार वैज्ञानिकों ने इतने बड़े सौदे को अंतिम रूप दे दिया तो फिर इसका मतलब है कि प्रधानमंत्री कार्यालय के तहत काम करने वाला अंतरिक्ष विभाग तब सोया हुआ था जब इस कथित घोटाले को अंजाम दिया जा रहा था। यदि पाबंदी के शिकार इसरो वैज्ञानिक अदालत पहुंच गए तो एक बार फिर प्रधानमंत्री कार्यालय पर दोषारोपण हो सकता है। हालांकि प्रधानमंत्री कार्यालय में अनेक बदलाव हो गए हैं, लेकिन प्रधानमंत्री तो वही हैं जिनके बारे में बार-बार यह साबित हो रहा है कि उनका अपने ही कार्यालय पर जोर नहीं। प्रधानमंत्री ने नए वर्ष में सक्षम और ईमानदार शासन देने का वादा किया था, लेकिन अभी दो माह भी नहीं बीते हैं और चारों तरफ नाकामियों की गूंज है।
लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं
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