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विश्वास का संकट

संपादकीय ब्लॉग
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पुलिस और प्रशासन की कार्यप्रणाली में व्यापक बदलाव की आवश्यकता पर बल दे रहे हैं निशिकान्त ठाकुर


पंजाब के बरनाला इलाके में हाल ही में एक एएसआइ की हत्या कर उसके शव को सड़क पर फेंक दिया गया। इसी तरह लुधियाना के एक फार्महाउस में मोगा के एक डीएसपी की हत्या कर दी गई। उधर फरीदकोट में एक मामले की जांच करने पहुंची पुलिस टीम पर ही अराजक तत्वों ने धावा बोल दिया तो पुलिस टीम ने किसी तरह भाग कर जान बचाई। जहां यह हाल पुलिस का हो, वहां आम जनता की क्या स्थिति होगी, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। कभी पेट्रोल पंप लूट लिया जाता है तो कहीं दुकानदार को बंधक बनाकर जेवरात लूट लिए जाते हैं। लाखों का बकाया बिल जमा न करने पर मीटर उतारने गए बिजली अफसरों को भी बंधक बना लिया जाता है। यहां तक कि लुधियाना में एक शख्स ने जमीन माफिया से परेशान होकर खुद को आग लगा ली। ये सभी घटनाएं बमुश्किल दस दिनों के भीतर की हैं। इन घटनाओं से सिर्फ अराजक तत्वों के बढ़ते दुस्साहस का ही नहीं, बल्कि पुलिस और उसके साथ-साथ आम आदमी के घटते मनोबल का भी पता चलता है। खासकर पुलिस का मनोबल इस हद तक क्यों गिर गया है, इसके कारणों का विश्लेषण करना अनिवार्य हो गया है।


यह स्थिति अकेले पंजाब में ही हो, ऐसा भी नहीं है। देश के ज्यादातर राज्यों में ऐसा देखा जा रहा है कि आम जनता का मनोबल लगातार गिरता ही जा रहा है। शरीफ और साधनहीन लोग कुंठा और हताशा में ही जीवन गुजारने के लिए मजबूर हैं। अधिकतर लोगों ने यह बात लगभग मान ही ली है कि अराजक तत्वों के भय और दबाव में जीना ही उनकी नियति है। पिछले छह दशकों का इतिहास देखा जाए तो उसमें पुलिस की भूमिका कोई खास सकारात्मक नहीं रही है। आजादी के बाद भी पुलिस और पूरे प्रशासन की मानसिकता ब्रिटिश शासनकाल वाली ही बनी रह गई है। सही मायने में देखें तो ये दोनों ही जनता के सेवक की भूमिका में आज भी नहीं आ सके हैं। ये खुद को आम जनता का शासक ही मानते हैं। इसका नतीजा यह रहा है कि आम जनता में पुलिस और प्रशासन के प्रति लगातार भय का आलम ही बना रहा है। उस भय का ही परिणाम है जो आज तक प्रशासन और जनता के बीच सहज संबंधों का विकास नहीं हो सका है। ऐसे समाज में पुलिस-प्रशासन और आम जनता के बीच सहज संबंधों के विकास की उम्मीद की भी नहीं जा सकती है। क्योंकि सहजता केवल निकटता से आती है, भय से तो केवल दूरियां बढ़ती हैं।


आज भी आम नागरिक जरूरत पड़ने पर भी सरकारी कार्यालयों में जाने से बचता है। वह यह मान कर ही चलता है कि वहां ईमानदारी से कोई जायज काम भी नहीं होना है। इसके विपरीत नियम-कानून का चक्कर छोड़कर अगर चढ़ावे का रास्ता अपना लिया जाए तो गलत काम भी आसानी से हो जाएंगे। इसके ही चलते दलाली की अपसंस्कृति ज्यादातर सरकारी विभागों में हावी हो चुकी है और यह जनता से प्रशासन को और भी दूर करती जा रही है। पुलिस की छवि ऐसी है कि संकट में भी शरीफ आदमी थाने जाना नहीं चाहता है। क्योंकि वहां भी वही दलाली और रिश्वतखोरी की अपसंस्कृति हावी है। आम लोग यह मान कर चलते हैं कि बिना लेन-देन के कोई भी काम होना नहीं है। उलटे बेवजह परेशान किए जाने का डर अलग होता है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिनमें पुलिस ने पीड़ित पक्ष को ही परेशान किया है और अपराधियों का साथ दिया है। इसी वजह से आम जन की नजर में उसकी छवि लगातार खराब होती चली गई है। अगर पुलिस ने वास्तव में आम आदमी के रक्षक की अपनी भूमिका निभाई होती तो क्या ऐसी हालत होती?


स्थिति यह है कि अपराध के मामलों में लोग गवाही देने से भी बचते हैं, क्योंकि उन्हें हमेशा यह आशंका बनी रहती है कि पुलिस के टेढ़े सवालों का जवाब वे कैसे देंगे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सीधे सवाल करके पुलिस किसी मामले की तह तक नहीं पहुंच सकती है। बेहद उलझे मामलों की परतें खोलने के लिए उसे टेढ़े सवाल करने ही पड़ते हैं। इसमें किसी को एतराज न हो अगर सवाल करने का पुलिस का तरीका सही हो। आम तौर पर होता यही है कि बेहद शरीफ और संवेदनशील लोगों से बातचीत में भी उसी भाषा का इस्तेमाल करती है, जिसका प्रयोग वह अपराधियों और अराजक तत्वों के लिए करती है। इस बात की परवाह किए बिना कि सामने वाले पर इसका क्या असर पड़ेगा और स्वयं पर अकारण संदेह या अपमान का एहसास उसे किस हद तक ले जा सकता है। पुलिस की निरर्थक पूछताछ और अपमानजनक व्यवहार से तंग आकर देश भर में कितने शरीफ लोग हार्ट अटैक, डिप्रेशन और आत्महत्या तक के शिकार हो चुके हैं, इसकी गिनती करना मुश्किल है।


यह कहना बिलकुल गलत होगा कि पुलिस को लोगों की भावना-संवेदना का कोई आभास नहीं होता है। क्योंकि पुलिस में भी आखिरकार मनुष्य ही भर्ती किए जाते हैं। एक मनुष्य अगर दूसरे मनुष्य की भावनाएं न समझे तो इसके मूल में वजह कुछ और नहीं केवल संस्कारों की कमी मानी जाती है। ऐसा नहीं है कि इस तरह का व्यवहार करने वाले पुलिसकर्मियों का संस्कार शुरू से ही खराब होता है। आम तौर पर यह देखा जाता है कि सज्जन और विनम्र लड़के ही पुलिस में भर्ती होते हैं और ट्रेनिंग व थोड़े दिनों की नौकरी के बाद व्यवहार से उद्दंड और संवेदनहीन हो जाते हैं। हालांकि सबके साथ ऐसा नहीं है, लेकिन जिनके साथ ऐसा होता है, क्यों होता है, यह जानना जरूरी है। क्या विभागीय कार्यप्रणाली इसके लिए जिम्मेदार है या फिर प्रशिक्षण की उनकी व्यवस्था? इस पर गौर किए जाने की जरूरत है। यह तो सही है कि ब्रिटिश हुकूमत के बाद से अब तक पुलिस और प्रशासन की बुनियादी प्रशिक्षण व्यवस्था में कोई खास फर्क नहीं आया है। जबकि दूसरे देशों में पूरी कार्यप्रणाली ही बदल चुकी है। आखिर हमारे देश में ही ऐसा क्यों है?


सच तो यह है कि अगर देश से अपराध खत्म करना है तो उसके लिए अराजक तत्वों का हौसला तोड़ना सबसे ज्यादा जरूरी है। यह काम वे तब तक नहीं कर सकते जब तक कि वे जनता को अपने साथ न लें। इसके विपरीत अगर वे आम जनता को साथ लेकर चलें तो लोग ही उनकी हिफाजत के लिए सीना तान कर खड़े हो जाएंगे। फिर किसी अराजक तत्व में यह हिम्मत नहीं होगी कि वह किसी पुलिस पार्टी पर हमला कर सके या किसी प्रशासनिक समूह को बंधक बना सके। इसके लिए जरूरी है कि पहले पुलिस-प्रशासन और आम जनता के बीच संवाद कायम किया जाए। साथ ही, दोनों के बीच भरोसे और विश्वास का रिश्ता बनाया जाए। निश्चित रूप से इसके लिए इनकी कार्यप्रणाली में व्यापक बदलाव की आवश्यकता है और इसकी शुरुआत उनकी प्रशिक्षण प्रणाली से ही होनी चाहिए। बेशक इतना बड़ा बदलाव अचानक नहीं किया जा सकता है। यह काम धीरे-धीरे ही होगा, लेकिन इसकी शुरुआत तो हो!


लेखक निशिकान्त ठाकुर दैनिक जागरण पंजाब, हरियाणा व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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