Menu
blogid : 133 postid : 1806

विरोध का यह कैसा तरीका

संपादकीय ब्लॉग
संपादकीय ब्लॉग
  • 422 Posts
  • 640 Comments

Nishikant Thakurलोकतांत्रिक जिम्मेदारियों और कर्तव्यों का ठीक से निर्वाह सबके लिए जरूरी मान रहे हैं निशिकान्त ठाकुर


किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार होता है। यही वह तत्व है जो लोकतंत्र को अन्य व्यवस्थाओं से अलग करता है तथा एक विशिष्ट दर्जा देता है। इसके चलते लोकतांत्रिक व्यवस्था को जो अलग हैसियत मिलती है, वह कोई अकारण नहीं है। इसे विशेष स्थिति इसीलिए हासिल है क्योंकि इसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपने मतों, विचारों, कष्टों, समस्याओं और यहां तक कि क्षोभ और आक्रोश की अभिव्यक्ति के लिए भी स्वतंत्रता हासिल है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी सभी तरह की भावनाओं को अभिव्यक्ति दे सके, इसके लिए तंत्र विकसित किया गया है। भारतीय संविधान अपने किसी भी नागरिक से इस मामले में किसी तरह का भेदभाव नहीं करता है। लेकिन इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि कोई जैसे चाहे वैसे ही अपनी किसी भी भावना को अभिव्यक्ति दे। किसी भी तरह की स्वतंत्रता का अर्थ असीम और निर्बाध स्वतंत्रता बिलकुल नहीं लिया जाना चाहिए। यह न तो व्यक्ति के हित में है, न व्यवस्था और न ही समाज के लिए हितकर है। क्योंकि असीम और निर्बाध स्वतंत्रता किसी भी समाज को उच्छृंखलता की ओर ले जाती है और अंतत: समाज के विघटन का कारण बनती है। दुर्भाग्य से कुछ लोग इसी रास्ते पर चल रहे हैं।


इधर कुछ वषरें से राजनेताओं पर जूते-चप्पल फेंकने, थप्पड़ मारने, चाकू व तलवार चलाने और सरेआम गालियां देने से लेकर मुंह पर कालिख पोतने तक की जो घटनाएं हुई हैं, वे इसी सोच का नतीजा हैं। सबसे पहले इनके शिकार राजनेता हुए। हमारे समाज में आम तौर पर ऐसा माना जाता है कि व्यवस्था की सारी खामियों के लिए राजनेता ही जिम्मेदार हैं। शायद इसी का नतीजा है जो उन पर किसी भी तरह से हमले करने वाले झक्की लोगों को कुछ लोगों ने हीरो बना डाला है। यह सोचे बगैर कि हमारे समाज में कुछ खामियों के साथ तमाम अच्छाइयां भी तो हैं और ये अच्छाइयां भी कुछ राजनेताओं के ही प्रयासों का नतीजा हैं। फिर यह हरकत सीमित नहीं रही। एक के बाद एक कई लोग ऐसी घटनाओं के शिकार हुए। यहां तक कि भ्रष्टाचार और आपराधिक मामलों के अभियुक्तों, सरकारी अफसरों और संतों तक को लोगों ने नहीं बख्शा। इनमें जो लोग जूता चला सके, उन्होंने जूता चलाया और बाकी लोगों ने नई-नई तरकीबें निकाल लीं। किसी ने हाथ छोड़ा तो किसी ने गाली दी और किसी ने स्याही भी फेंक दी। इसमें भी नए तरीके ईजाद कर लिए गए। जो मुंह पर स्याही फेंकने की हिम्मत जुटा पाया उसने मुंह पर फेंका और जिसे सामने से यह मौका नहीं मिल सका, उसने पोस्टर पर ही अपना गुस्सा उतार लिया।


हो सकता है कि इन झक्की लोगों में से कुछ लोगों ने आक्रोश के चलते ऐसा किया हो, लेकिन अधिकतर जो घटनाएं हुईं हैं उनमें आक्रोश कम और सस्ता प्रचार पाने की ललक अधिक दिखाई देती है। जबर्दस्ती हीरो बनने की कोशिश है यह और वह भी बिना कुछ किए। इस तरह के सिरफिरे लोगों के पास न तो कोई सोच होती है, न विचार और न ही अपनी समस्याओं के समाधान के लिए कोई योजना। हो सकता है कि उनकी कुछ समस्याएं हों, कुछ कष्ट हों, लेकिन क्या आज तक किसी की कोई समस्या किसी दूसरे को कष्ट देकर हल हुई है? नारेबाजी, धरने-प्रदर्शन और इस तरह मारपीट की ओछी हरकतों से समस्याएं और जटिल ही हो जाती हैं। उनके समाधान की दिशा में कहीं कुछ नहीं होता है। आक्रोश की जड़ में जो समस्याएं हैं, उनका समाधान सही रास्ते से होगा। किसी राजनेता, अफसर या अभियुक्त पर हमला करने से सिर्फ कानून-व्यवस्था बिगड़ेगी और समाज का आपसी सौहार्द प्रभावित होगा। इसीलिए ऐसी कोशिशों का कोई अर्थ नहीं होता है।


समस्याओं या कठिन स्थितियों के समाधान के लिए दुनिया की किसी भी व्यवस्था में एक निश्चित प्रक्रिया होती है। अगर किसी को अपनी या किसी अन्य की समस्याओं का समाधान चाहिए तो उसे उसी प्रक्रिया के तहत चलना होगा। निश्चित प्रक्रिया का अनुसरण किए बिना दुनिया की किसी भी व्यवस्था में कुछ भी नहीं होता है। अगर ऐसा होने लगे तो वह भी एक अराजक स्थिति होगी। लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशिष्टता यही है कि इसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सभी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्रता प्राप्त होती है। लेकिन इसका यह अर्थ एकदम नहीं है कि वह अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति दूसरों की भावनाओं की परवाह किए बगैर करे। यह भी नहीं कि भावनाओं या आक्रोश की अभिव्यक्ति के नाम पर मारपीट करे या किसी को अपमानित करे। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई सार्थक उपयोग नहीं, बल्कि अक्षम्य दुरुपयोग होगा और इसका नतीजा अराजकता एवं समाज का विघटन होगा। इसीलिए इसकी अनुमति किसी को भी नहीं दी जानी चाहिए।


यह बात हमें भूलनी नहीं चाहिए कि कोई भी अधिकार निरपेक्ष नहीं है। हर अधिकार के साथ कुछ कर्तव्य जुड़े हैं और कर्तव्यों के साथ जिम्मेदारियां जुड़ी हैं। अपने विचारों के प्रति सम्मान का भाव और उनकी अभिव्यक्ति के लिए आजादी की पहली शर्त यह है कि हम दूसरों के विचारों का सम्मान करना सीखें। जो व्यक्ति दूसरों के विचारों का सम्मान करना नहीं जानता है, उसे अपने विचारों के लिए दूसरों से सम्मान की अपेक्षा करनी ही नहीं चाहिए। लोकतंत्र में, जहां जनता सरकार को बनाती-बिगाड़ती है, वहां अगर जूते-चप्पल चलाने या कालिख-स्याही पोतने जैसी स्थिति आए तो यह राजनेताओं के लिए ही नहीं, खुद उन लोगों के लिए भी शर्मनाक है, जो यह सब कर रहे हैं। जहां हर पांचवें साल आपके पास सरकार बदल देने की सुविधा है और यह सुविधा कोई कागजी नहीं बल्कि वास्तविक है, वहां हिंसक उपाय अपनाने की क्या जरूरत है?


सच तो यह है कि हमारा संविधान हमें वे सभी सुविधाएं देता है जिनकी हमें जरूरत है। केवल 1975 में लगाई गई इमरजेंसी के दौर की बात छोड़ दें तो ऐसा कभी नहीं हुआ जब समय पर चुनाव न कराए गए हों। कई बार तो विषम परिस्थितियों में समय से पहले ही चुनाव कराए गए हैं। दुखद सत्य यह है कि बड़ी-बड़ी बौद्धिक बातें करने वाले लोग चुनाव के दौरान अपने मताधिकार का प्रयोग तक नहीं करते। इस बारे में बात करने पर वे या तो विकल्पहीनता का बहाना बनाते हैं या फिर निहायत निराशावादी व्याख्यान देने लगते हैं। जबकि अधिकतर ऐसे मामलों में असली वजह आलस्य होता है। ऐसे ही लोग बाद में हिंसक तरीके अपनाते हैं और एक सभ्य लोकतांत्रिक व्यवस्था एवं समाज को जंगल राज की ओर ले जाने के उपाय करते हैं। इसे किसी भी स्थिति में सही नहीं ठहराया जा सकता है। बेहतर होगा कि इस तरह के तरीके अख्तियार करने की बजाय हम अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारियों और कर्तव्यों का ठीक से निर्वाह करें। यही देश, समाज और व्यक्ति अर्थात सबके लिए हितकर होगा।


लेखक निशिकान्त ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh