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पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के चुनाव गोवा एवं मणिपुर के मुकाबले राजनीतिक दृष्टि से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से उत्तर प्रदेश का चुनाव कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण हो गया था। इसलिए और भी, क्योंकि कांग्रेस ने यहां अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी थी। यहां अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा ने बसपा को सत्ता से बाहर करने के साथ-साथ जिस तरह दोनों राष्ट्रीय दलों-भाजपा एवं कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया उससे उनकी आंखें खुल जानी चाहिए। उत्तर प्रदेश में चुनाव के दौरान राहुल ने जिस तरह प्रचार किया उससे ऐसा लगने लगा था कि कांग्रेस इस बार कुछ ठीक-ठाक प्रदर्शन कर सकेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राहुल गांधी ने न केवल लगातार रैलियां कीं, बल्कि वह गरीबों और दलितों के घर भी जाते रहे। अनेक स्थानों पर उन्होंने रोड शो भी किए, लेकिन उन्हें इसका कोई लाभ नहीं मिला। चुनाव नतीजे आने पर उन्होंने आगे बढ़कर यह स्वीकार किया कि इस हार के लिए वह खुद जिम्मेदार हैं। उनके मुताबिक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का संगठन मजबूत नहीं है, लेकिन ऐसा लगता है कि लोगों को उनके प्रचार का तरीका भी नहीं भाया। शायद यूपी वालों को भिखारी बताना भी कांग्रेस को महंगा पड़ा।
राहुल का कहना था कि अगर कांग्रेस को सत्ता मिली तो वह पांच साल में यूपी की सूरत बदल देंगे। इसका एक अर्थ यह भी था कि अगर कांग्रेस को सत्ता नहीं मिली तो केंद्र में उसकी सरकार के कारण राज्य का विकास आसानी से नहीं हो पाएगा। यह एक तथ्य है कि कांग्रेस जहां कमजोर है वहां खुद की महत्ता स्थापित करने के लिए राज्य सरकारों के कान उमेठती रहती है। अब मतदाता भी इसे समझने लगे हैं। समस्या यह है कि उत्तर प्रदेश में करारी शिकस्त के बाद भी कांग्रेस में कोई आमूल-चूल परिवर्तन होता नहीं दिखता। कांग्रेस की धुरी गांधी परिवार है और यह परिवार ही उसे एकजुट रखे हुए है, लेकिन इस एकजुटता के बावजूद कांग्रेसी अंदर ही अंदर एक दूसरे से भिड़े रहते हैं। इसी कारण उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का संगठन कमजोर बना रहा। अगर राहुल को उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मजबूत करना है तो उन्हें ऐसे नेता को आगे करना होगा जो गांधी परिवार और कांग्रेस कोर कमेटी की बैसाखियों पर न चलकर अपने हिसाब से निर्णय लेने में समर्थ हो।
दिल्ली में निर्णय कर राज्यों पर थोपने, जमीनी हकीकत नजरंदाज करने और समय पर निर्णय न लेने की कांग्रेस की प्रवृत्तियों ने अब बीमारियों का रूप ले लिया है और वे उसे आगे बढ़ने से रोक रही हैं। इन्हीं बीमारियों के कारण कांग्रेस का पंजाब में भी बुरा हाल हुआ। यहां साढे़ चार दशकों बाद पहली बार सत्तारूढ़ दल दोबारा जीत हासिल करने में सफल रहा। कांग्रेस को भितरघात की बीमारी भी कमजोर कर रही है। भितरघात तभी होता है जब नेतृत्व कमजोर हो। इसी बीमारी से भाजपा भी ग्रस्त है और इसी कारण वह उत्तराखंड में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं आ सकी। राज्यों के स्तर पर कांग्रेस और भाजपा, दोनों में नेतृत्व क्षमता का अभाव बढ़ता जा रहा है। शायद यही कारण है कि चुनाव के दौरान दोनों दल इसकी घोषणा करने से गुरेज करते हैं कि उनकी ओर से मुख्यमंत्री पद का दावेदार कौन होगा? इन दोनों राष्ट्रीय दलों के विपरीत क्षेत्रीय दल न केवल कहीं अधिक मजबूती से जमीन से जुडे़ हैं, बल्कि अपने निर्णय भी तेजी से लेते हैं। प्रत्याशियों का चयन करने और उनकी घोषणा करने में तो वे आगे रहते ही हैं, जनता के सामने यह भी स्पष्ट होता है कि उनकी ओर से मुख्यमंत्री पद का दावेदार कौन है? उत्तर प्रदेश में सपा और पंजाब में अकाली दल को इसका लाभ मिला।
राहुल गांधी के असफल रहने के कुछ और भी कारण हैं। इनमें एक कारण केंद्रीय सत्ता का महंगाई और भ्रष्टाचार पर लगाम न लगा पाना है। बसपा की हार भी मुख्यत: भ्रष्टाचार के कारण हुई। चुनाव के समय हाथियों की मूर्तियां और पार्क भी एक मुद्दा बन गए थे। जब इन पार्को और मूर्तियों का निर्माण हो रहा था तो यह माना जा रहा था कि ये दलित स्वाभिमान का हिस्सा बनेंगे। भले ही पार्को का निर्माण और हाथियों की मूर्तियां की स्थापना मायावती की राजनीतिक रणनीति का हिस्सा हों, लेकिन इससे इंकार नहीं कि उनके कारण गैर दलित, मुस्लिम और विशेष रूप से ब्राह्मण मतदाता बसपा से छिटक गया। कांग्रेस की पराजय में मुस्लिम आरक्षण की भी भूमिका नजर आती है। चुनाव से ठीक पहले मुस्लिम आरक्षण की घोषणा के बाद सलमान खुर्शीद और बेनी प्रसाद वर्मा की ओर से जिस तरह चुनाव आयोग को चुनौती देते हुए इस आरक्षण को बढ़ाने की घोषणा की गई उससे कांग्रेस मुस्लिमपरस्ती करती दिखी। कांग्रेस की ओर से मुस्लिम आरक्षण की जो पहल की गई उसे संदेह की दृष्टि से भी देखा गया। मुस्लिम समाज के लिए यह समझना मुश्किल हो गया कि यदि नौ प्रतिशत आरक्षण देना था तो साढ़े चार प्रतिशत की घोषणा क्यों की गई?
उत्तर प्रदेश में वैसे तो चार दलों का मुकाबला था, लेकिन इसके साथ ही राहुल और अखिलेश के रूप में दो युवा नेताओं में भी टक्कर थी। इसमें अखिलेश राहुल पर भारी पड़े। जहां राहुल सपा को ललकारते रहे वहीं अखिलेश चुपचाप अपना काम करते रहे और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए। अखिलेश ने बिना शोर-शराबे के अपना काम जमीनी हकीकत को पहचान कर किया। राहुल गांधी दो वर्षो से उत्तर प्रदेश में सक्रिय थे, लेकिन वह संगठन का ढांचा मजबूत नहीं कर सके। अब तो यह भी स्पष्ट है कि वह प्रदेश के नेताओं को एकजुट भी नहीं कर पाए। ऐसा लगता है कि तमाम सक्रियता के बावजूद वह यूपी की सामाजिक-राजनीतिक जमीनी यथार्थ से परिचित नहीं हो पाए। वह कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी जताने की होड़ भी नहीं रोक पाए। कभी श्रीप्रकाश जायसवाल तो कभी बेनीप्रसाद वर्मा खुद को मुख्यमंत्री का मजबूत दावेदार बताते नजर आए। राहुल ने पंजाब जाकर तो कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया, लेकिन पता नहीं क्यों उत्तर प्रदेश में वह ऐसा नहीं कर पाए। यही गलती भाजपा ने भी की। पंजाब में कांग्रेस यह मान बैठी थी कि बादल परिवार में फूट का लाभ उसे ही मिलेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, उल्टे कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ा। पंजाब में अकाली दल ने जो इतिहास रचा उसमें सुखबीर बादल का विशेष योगदान है। उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में जीत हासिल की। यहां भाजपा जिस तरह सिमटती दिखाई दी उससे उसे चिंतित होना चाहिए।
केंद्रीय सत्ता की बागडोर संभालने और साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखने के नाते कांग्रेस के लिए यह शुभ नहीं कि उसके संबंध विपक्षी दलों की राज्य सरकारों और साथ ही घटक दलों से खराब होते जाएं। सबसे पुराने और व्यापक जनाधार वाले इस दल को यह अहसास होना चाहिए कि उसके अपने घटकों और साथ ही विरोधी दलों की राज्य सरकारों से खराब होते संबंधों के कारण देश का राजनीतिक माहौल बिगड़ रहा है। बेहतर होगा कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश और पंजाब की हार के उपरांत इस पर गंभीरता से मंथन करे कि उसकी राजनीति जमीनी हकीकत से क्यों दूर होती जा रही है?
इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं
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