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राजनीतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण राज्य में सरकार गठन की संभावनाओं पर निगाह डाल रहे हैं राजीव सचान
करीब-करीब लोकसभा जितने महत्वपूर्ण हो गए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव को लेकर एक नया सवाल यह खड़ा हो गया है कि क्या किसी को बहुमत न मिलने पर ऐसी भी स्थिति बन सकती है कि कोई सरकार ही न बने? इस सवाल की एक बड़ी वजह भाजपा और कांग्रेस की ओर से बार-बार यह कहना है कि वे किसी को भी समर्थन नहीं देने वाले। दोनों ही दल यह मान रहे हैं कि अतीत में उन्होंने अन्य दलों को समर्थन देकर गलती की, लेकिन कांग्रेस को समाजवादी पार्टी का स्वाभाविक सहयोगी इसलिए माना जा रहा है, क्योंकि केंद्र की सत्ता में वह उसका सहयोग ले रही है और तृणमूल कांग्रेस के रवैये को देखते हुए उसे आगे भी मुलायम सिंह के सहारे की जरूरत पड़ सकती है। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने भी राष्ट्रपति शासन की आशंका को बल प्रदान कर दिया है। उनका कहना है कि सरकार या तो कांग्रेस की बनेगी या फिर राष्ट्रपति शासन लगेगा। यह समय ही बताएगा कि कांग्रेस रणनीति के तहत सपा से दूरी बना रही है या फिर वास्तव में इस फार्मूले पर अमल करेगी कि अपनी सरकार नहीं तो और किसी की भी नहीं? कांग्रेस इस फार्मूले पर तभी अमल कर सकती है जब वह सबसे बड़े दल के रूप में उभरे। मौजूदा स्थितियों में ऐसा कुछ होने के आसार नहीं नजर आते। माना जा रहा है कि उसके लिए सौ का आंकड़ा पार करना भी मुश्किल होगा। कांग्रेस इस आंकड़े को पार कर सके या नहीं, यदि बसपा-भाजपा हाथ नहीं मिलातीं, जिसके आसार भी नहीं हैं तो फिर कांग्रेस के लिए अपने फार्मूले पर अमल करना आसान होगा। खुद की सरकार न बनने की स्थिति में कांग्रेस राष्ट्रपति शासन के पक्ष में इसलिए जा सकती है ताकि उसके जरिये यूपी के लोगों को सुशासन की तस्वीर दिखाई जा सके और फिर उसका लाभ 2014 के लोकसभा चुनाव में उठाया जा सके। यह ख्याल जितना नेक है उस पर अमल उतना ही मुश्किल है। राष्ट्रपति शासन के दौरान सुशासन स्थापित करने की कोई नजीर नहीं है और फिर यदि कांग्रेस सुशासन के जरिये विकास की मिसाल कायम करना ही चाहती है तो फिर अपने द्वारा शासित राज्यों में ऐसा क्यों नहीं कर पा रही है? कांग्रेस शासित राज्य सुशासन के मामले में वैसे ही हैं जैसे अन्य दलों द्वारा शासित राज्य।
यदि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन के बारे में सोच रही है तो वह बुरा सोच रही है। उत्तर प्रदेश को राष्ट्रपति शासन नहीं, एक सक्षम सरकार की जरूरत है। दरअसल उत्तर प्रदेश को एक नीतीश कुमार की जरूरत है। अब तो यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि एक परिष्कृत और विशेष रूप से अपनी आलोचना के प्रति सहिष्णु नीतीश कुमार की जरूरत है। बिहार में प्रेस की आजादी के बारे में जो कुछ मार्कडेय काटजू ने सुना है वही देश के अन्य तमाम लोगों ने भी सुना है। काटजू की टिप्पणी पर जद-यू और भाजपा के नेता चाहे जितना गर्जन-तर्जन करें, सच यही है कि नीतीश सरकार अपनी आलोचना के प्रति घोर असहिष्णु है। यह असहिष्णुता नीतीश के सुशासन को दागदार बना रही है।
उत्तर प्रदेश में मायावती को सुशासन का एक शानदार मौका मिला था, लेकिन उन्होंने उसे गंवा दिया। उन्होंने कुल मिलाकर कुशासन की तस्वीर पेश की और उसके दुष्परिणाम उन्हें भोगने ही होंगे। जिस सरकार के आधा दर्जन मंत्री भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए हों और एक दर्जन पर भ्रष्ट होने के आरोप हों वह सुशासन का दावा कैसे कर सकती है? कांग्रेस और भाजपा को चाहे जितनी सीटें मिलें, उनके पास एक भी ऐसा नेता नहीं जो सुशासन के मामले में नीतीश कुमार की बराबरी कर सके। यदि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाती तो इसका एक बड़ा कारण केंद्र सरकार का कुशासन होगा। दरअसल कांग्रेस को तब तक सुशासन की बातें करने का अधिकार नहीं जब तक मनमोहन सिंह सुशासन की स्थापना करने में समर्थ नहीं होते। एक तरह से राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ी मुश्किल मनमोहन सिंह के कुशासन ने खड़ी कर दी है। उत्तर प्रदेश में वोट मांगने के लिए राहुल गांधी दूसरे दलों से जितने सवाल करते हैं उतने ही उनसे भी मुखातिब हो जाते हैं।
आम धारणा है कि समाजवादी पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरने जा रही है। पता नहीं चुनाव परिणाम इस धारणा की पुष्टि करेंगे या नहीं, लेकिन यदि ऐसा होता है तो फिर कांग्रेस की यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह उसका बाहर अथवा अंदर से समर्थन करे। यदि कांग्रेस किन्हीं कारणों से सपा का सीधा समर्थन नहीं करना चाहती तो फिर उसे उसकी अल्पमत सरकार चलने देने में मदद करनी चाहिए। अल्पमत सरकार तब तक चलती रह सकती है जब तक सभी विरोधी दल उसे गिराने के लिए एकजुट न हो जाएं। नरसिंह राव सरकार इसकी मिसाल है कि अल्पमत सरकारें भी सत्ता में रह सकती हैं। नि:संदेह बसपा से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह सपा की अल्पमत सरकार को चलने दे, लेकिन जहां तक भाजपा का सवाल है, यदि उसे बसपा से लेन-देन नहीं करना है तो फिर वह तटस्थ रह सकती है, क्योंकि राष्ट्रपति शासन से बेहतर है कांग्रेस के समर्थन वाली सपा की सरकार। यदि सपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरती है और किसी तरह सत्ता में आ जाती है तो क्या उत्तर प्रदेश को नीतीश कुमार हासिल हो जाएंगे? मुलायम सिंह बड़े नेता हैं और मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी बताए जा रहे हैं, लेकिन उनकी छवि नीतीश कुमार जैसी नहीं। नीतीश कुमार की झलक यदि किसी में दिखाई देती है तो वह हैं अखिलेश यादव। नि:संदेह अखिलेश के पास नीतीश कुमार जैसा अनुभव नहीं, लेकिन उनमें उनके जैसा नेता बनने की काबिलियत नजर आ रही है। यह वक्त ही बताएगा कि उन्हें खुद को नीतीश जैसा, बल्कि उनसे भी बेहतर साबित करने का मौका मिलेगा या नहीं?
लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं
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