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रास्ता रोकने का औचित्य

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राजनेताओं को अपनी ही बात से मुकरने और वादा कर भूल जाने की प्रवृत्ति छोड़ने की सलाह दे रहे हैं निशिकान्त ठाकुर


जाट आरक्षण संघर्ष समिति एक बार फिर रेल की पटरी पर है और इसके चलते रेल की व्यवस्था पटरी के नीचे आ गई है। हरियाणा के हिसार जिले के मय्यड़ गांव में जाट लोगों ने रेलवे ट्रैक पर डेरा डाल दिया है। हालांकि संघर्ष समिति के एक गुट ने मुख्यमंत्री से हुई बातचीत के बाद फौरी तौर पर अपना आंदोलन स्थगित कर दिया है और मांगों पर विचार न होने की स्थिति में 23 मार्च से फिर दिल्ली में आंदोलन करने की चेतावनी दी है, किंतु आंदोलनरत एक गुट अभी भी अपनी मांगों पर अड़ा हुआ है और धरने पर जमा हुआ है। इसके चलते हिसार-भिवानी रेलवे ट्रैक पर यातायात बाधित हो गया है। आंदोलनकारियों को समर्थन भी लगातार मिल रहा है। भोजन सामग्री से लेकर टैंट और लाउडस्पीकरों तक की व्यवस्था बना दी गई है। उनके गुस्से की वजह आसानी से समझी जा सकती है। करीब एक साल पहले भी यह आंदोलन हो चुका है और तब भी इसी तरह रेलवे ट्रैक जाम किए गए थे। इस बार तो अभी तक केवल एक ट्रैक ही जाम किया गया है, पिछली बार कई ट्रैक जाम किए गए थे। उस वक्त इस संकट से निबटने के लिए सरकार ने आंदोलनकारियों को कुछ आश्वासन दिए थे, लेकिन उन आश्वासनों को पूरा करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। एक साल का समय कम नहीं होता और इसीलिए इस पर किसी का भी गुस्सा होना अस्वाभाविक तो बिलकुल नहीं कहा जा सकता। इसके बावजूद यह सवाल तो उठता ही है कि गुस्सा जताने और मांगें मनवाने का यह तरीका क्या उचित है?


कोई मांग वाजिब है या नहीं और अगर वाजिब है तो कितनी, इस बात को लेकर बहस हो सकती है। समाज के सभी वगरें की अपनी आवश्यकताएं हैं और मजबूरियां भी हैं। अपनी आवश्यकताएं बताने तथा उन्हें पूरी करने के लिए सही तरीके से मांग उठाने का हक भी हमारा संविधान हमें देता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार के पास उपलब्ध संसाधनों की भी अपनी सीमाएं हैं और सरकार उन सीमाओं का ध्यान रखते हुए ही किसी की मांगों पर गौर कर सकती है। किसी भी सरकार के लिए यह संभव नहीं है कि वह सभी वगरें की सभी मांगें मान ही ले। अगर किसी वर्ग की कुछ मांगें ऐसी हैं, जिनको मानना सरकार के लिए संभव नहीं है या जो देश की जनता के व्यापक हितों के विरुद्ध हैं, तो सरकार मांग उठाने वालों के सामने अपना पक्ष भी तर्कसंगत ढंग से रख सकती है। सरकार के इरादे दुरुस्त हों और जनता उसकी मजबूरी न समझे इसका कोई कारण नहीं है। भारत की जनता इतना तो जानती है कि सरकार को वही चुनती है और इसीलिए सरकार में वह किसी न किसी तरह खुद भी भागीदार है। इसके बावजूद हमारे देश में अकसर छोटे-बड़े आंदोलनों की नौबत आ जाती है तथा अकसर ये आंदोलन लंबे भी खिंच जाते हैं।


बात केवल आंदोलनों के लंबे खिंचने तक ही हो तो शायद किसी को कोई गुरेज न हो। संकट यह है कि शांतिपूर्ण मांग के साथ उठे आंदोलन कई बार हिंसक रूप ले लेते हैं। हाल के दिनों में ऐसी घटनाएं कई बार घट चुकी हैं। कई बार किसी प्रकार की मारपीट या झड़प न होने के बावजूद कुछ आंदोलन जानलेवा साबित होते हैं। एक बार रेलवे ट्रैक या सड़क जाम करने का मतलब आसानी से समझा जा सकता है। इससे परेशानी केवल सरकार को ही नहीं, आम आदमी को भी होती है। आखिर उन लोगों का क्या दोष है जो ट्रेन या सड़क मार्ग से किसी जगह की यात्रा करना चाहते हैं? बेवजह उनकी यात्रा में रुकावट क्यों पैदा की जाए? न तो उनके हाथ में कोई मांग मानने का अधिकार है और न ही उसे अस्वीकार करने का, फिर उनके लिए परेशानी खड़ी करके किसी को क्या मिलेगा? ऐसा कोई कदम उठाने से पहले यह जरूर सोचना चाहिए कि हमारे लिए तो यह सिर्फ एक मांग मनवाने का तरीका है, लेकिन किसी के लिए पूरे जीवन का सवाल भी हो सकता है।


एक यात्रा में आई कई घंटों की रुकावट मामूली नहीं है। इसके चलते किसी के संबंध टूट सकते हैं तो किसी की परीक्षा छूट सकती है, किसी का इंटरव्यू छूट सकता है और समय से अस्पताल न पहुंच पाने के कारण किसी की जान भी जा सकती है। यह बातें अब बताने की जरूरत किसी को भी नहीं है। सवाल यह है कि जिसके भी साथ यह अनहोनी हो रही हो, उसका दोष क्या है? क्या उसके बस की बात है कि वह किसी की मांगें मान सके या इसके लिए सरकार पर किसी प्रकार का अतिरिक्त दबाव बना सके? अगर नहीं तो उसे बेवजह सजा क्यों दी जाए? ऐसा भी नहीं है कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए यही एकमात्र तरीका है। सरकार पर दबाव दूसरे शांतिपूर्ण तरीके से भी बनाया जा सकता है, इस तरह जिससे आम जनता या सार्वजनिक संपत्तिको कोई क्षति न पहुंचे। हाल के दिनों में ही कुछ ऐसे उदाहरण हमारे सामने आए भी हैं। अपने समय के बड़े आंदोलनों से सबक लेना हम सबके लिए फायदेमंद साबित हो सकता है।


मुश्किल यह है कि राजनेता भी ऐसे समय में बजाय समस्या का स्थायी समाधान निकालने के सिर्फ पक्ष-विपक्ष की राजनीति करने में जुट जाते हैं। किसी भी तरह की मांग उठाई जाए तो कोई समर्थन करने आ जाता है तो कोई विरोध और झूठे आश्वासनों का पुलिंदा लेकर अवतरित हो जाता है। आंदोलनकारी इनकी असलियत न पहचानते हों, ऐसा भी नहीं है। इसके बावजूद वे अकसर इनके झांसे में आ ही जाते हैं। कभी किसी नेता के उकसाने पर उग्र हो जाते हैं तो कभी किसी ऐसे व्यक्ति के झूठे आश्वासन पर फूल कर कुप्पा भी हो जाते हैं, जिसके हाथ में कोई अधिकार ही नहीं होता। खुद सरकार में बैठे लोग भी ऐसे आश्वासन देने से बाज नहीं आते, जिन्हें वे पूरे नहीं कर सकते। ऐसे एक-दो नहीं, हजारों उदाहरण हैं। करीब छह वषरें से चली आ रही यह मांग भी इसका ही एक उदाहरण है। बीते साल भी आंदोलनकारियों को सरकार की ओर से आश्वासन दिए गए थे, लेकिन उन पर अमल की कोई सुध नहीं ली गई। सरकार में इतनी नैतिकता तो होनी चाहिए कि अगर वह किसी वर्ग की किसी मांग को स्वीकार कर ले तो उसे हर हाल में पूरा करे।


सच तो यह है अपनी ही बात से मुकरने और आश्वासन देकर भूल जाने की प्रवृत्तिसे राजनेताओं को बाज आना होगा। उनकी इस प्रवृत्तिका नतीजा यह हुआ है कि वे जनता का भरोसा ही लगभग खो चुके हैं। उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि आम जनता के भरोसे के बगैर कोई भी सरकार बहुत दिनों तक काम नहीं कर सकती। ऐसी सरकार भला कैसे काम करेगी जिसके प्रति जनता के मन में कोई सम्मान ही न हो? लेकिन जनता को भी इस बात का खयाल रखना चाहिए कि गुस्से में वह खुद अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी न मारे।


रास्ता जाम करना, बाजार बंद करवाना, सार्वजनिक संपत्तिको नुकसान पहुंचाना..ये सब ऐसे कार्य हैं जो अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसे ही हैं। ऐसे काम करने की जरूरत कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं होती है। हमारी व्यवस्था हर पांचवें साल हमें यह मौका देती है कि राजनेताओं को सबक सिखा दें। अब बुलेट से कोई लड़ाई लड़ने की जरूरत नहीं है, बैलट ही काफी है। बेहतर होगा कि जाति-धर्म के नारों और झूठे वादों से प्रभावित हुए बगैर आगे इस तरीके का इस्तेमाल किया जाए।


लेखक निशिकान्त ठाकुर दैनिक जागरण पंजाब, हरियाणा व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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