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बंधक बनी केंद्र सरकार

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay Guptरेल बजट पर उलझन और नकारात्मक आम बजट के बाद केंद्र को और अधिक लाचार देख रहे हैं संजय गुप्त


रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी की ओर से पेश रेल बजट का जो हश्र हुआ उसे देखते हुए यह स्पष्ट था कि वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी चाह कर भी बहुत कुछ नहीं कर पाएंगे, लेकिन इसकी उम्मीद बिल्कुल भी नहीं थी कि वह वक्त की मांग के बावजूद कुछ भी विशेष नहीं करेंगे। वित्तमंत्री ने जैसा आम बजट प्रस्तुत किया है उससे यह स्पष्ट है कि उन्होंने एक मौका गंवा दिया। इस बजट से महंगाई फिर सिर उठा सकती है। वैसे भी तमाम कर लगाने के बाद पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतें बढ़ाने की भी तैयारी हो रही है। यह निराशाजनक है कि वित्तमंत्री सुधारों की दिशा में बिल्कुल भी आगे नहीं बढ़ सके। उन्होंने सुधारों के सिलसिले में जो वायदे किए भी हैं उनके पूरा होने में संदेह है और वह इसलिए कि एक तो उन्होंने कोई समय सीमा तय नहीं की और दूसरे सहयोगी दलों की सहमति जरूरी बता दी। मौजूदा स्थितियों में इसके आसार नहीं हैं कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए जिन सुधारों की आवश्यकता है उन पर सहयोगी दल केंद्र सरकार को सहयोग देने के लिए तैयार हैं। चिंताजनक केवल यह नहीं है कि सहयोगी दलों ने सुधारों के मामले में केंद्र सरकार के हाथ बांध दिए हैं, बल्कि यह है कि वह अपने बंधे हाथ खोलने के लिए तैयार नहीं दिखती। यह और कुछ नहीं सहयोगी दलों के समक्ष घुटने टेकने वाला रवैया है। इस रवैये से सत्ता में बने रहने के समीकरण तो ठीक रखे जा सकते हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था को मजबूती नहीं प्रदान की जा सकती।


यदि संप्रग सरकार अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकती तो फिर उसका सत्ता में बने रहना व्यर्थ है। केंद्र सरकार अपने घटक दलों के आगे किस तरह पस्त है, यह आम बजट के बाद प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य से स्पष्ट हो जाता है कि उनके समक्ष गठबंधन संभालने की मजबूरियां हैं। वह अपनी मजबूरियों का रोना रोकर गठबंधन तो संभाले रख सकते हैं, लेकिन इसमें संदेह है कि चौतरफा समस्याओं से घिरी अर्थव्यवस्था को भी संभाल सकने में कामयाब होंगे। किसी भी सरकार का एक मात्र लक्ष्य येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहना नहीं हो सकता, लेकिन केंद्र सरकार ऐसा ही प्रदर्शित कर रही है। यह घोर निराशाजनक है कि उसने करीब-करीब सभी वांछित आर्थिक सुधार एक तरह से ठंडे बस्ते में डाल दिए। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश का फैसला तो पहले से ही ठंडे बस्ते में है, वित्तमंत्री के दावों के बावजूद इसमें संदेह है कि प्रत्यक्ष कर कानून-डीटीसी, वस्तु एवं सेवा कर-जीएसटी पर हाल-फिलहाल अमल होने वाला है। कुछ ऐसी ही स्थिति पेंशन एवं बैंकिंग सुधारों की भी है। इनसे संबंधित विधेयक सदन में पेश अवश्य किए जा चुके हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे पारित भी होने जा रहे हैं। ऐसा इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सहयोगी दल इन सुधारों के खिलाफ खड़े हैं।


सहयोगी दल विभिन्न क्षेत्रों में सुधारों को लेकर केंद्र सरकार से केवल असहमत ही नहीं हैं, बल्कि वे इस पर अड़े हैं कि इन सुधारों को ठंडे बस्ते में ही रहना चाहिए। संप्रग सरकार के प्रमुख घटक दल तृणमूल कांग्रेस ने तो ऐसा रवैया अपना लिया है जैसे केंद्र सरकार के संचालन का अधिकार उसके पास ही हो। केंद्रीय सत्ता के लिए शर्मनाक स्थिति यह है कि उसे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय महत्व के मामलों में भी तृणमूल कांग्रेस के सामने समर्पण करना पड़ रहा है। तृणमूल कांग्रेस ने खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ के फैसले को रोकने के बाद तीस्ता जल संधि पर अडं़गा लगाया। अब वह रेलवे में सुधार के कदमों को रोकने पर अड़ गई हैं। तृणमूल कांग्रेस नेता एवं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी केवल इतना ही नहीं चाह रही हैं कि दिनेश त्रिवेदी को रेलमंत्री के पद से फौरन हटा दिया जाए, बल्कि खुलेआम यह ऐलान कर रही हैं कि रेल बजट में किराया बढ़ाने के प्रस्तावों को खारिज किया जाए। उन्होंने दो टूक कहा है कि वह रेल किराया नहीं बढ़ने देंगी।


भारत के राजनीतिक इतिहास में यह पहली बार है जब रेल मंत्री को रेल बजट पेश करने के कुछ ही घंटों बाद हटाने का ऐलान किया गया हो। ममता बनर्जी जिस तरह यह कह रही हैं कि वह रेल किराया नहीं बढ़ने देंगी और अगले रेल मंत्री मुकुल राय ही होंगे उससे देश-दुनिया को यही संदेश गया है कि रेल मंत्रालय के साथ-साथ केंद्र सरकार को उसके एक घटक दल ने बंधक बना लिया है। रेलवे में सुधारों को लेकर अन्य दलों की तरह तृणमूल कांग्रेस के कुछ सुझाव हो सकते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि केंद्र सरकार के समक्ष उन्हें अक्षरश: मानने के अलावा और कोई उपाय ही न हो। क्या रेल मंत्रालय पश्चिम बंगाल सरकार के अधीन है? क्या रेलवे तृणमूल कांग्रेस की निजी जागीर है? यदि ऐसा नहीं है तो फिर केंद्र सरकार इतनी असहाय क्यों दिख रही है? क्या केंद्रीय मंत्रालयों में अब वही होगा जो संप्रग के घटक दल चाहेंगे? केंद्र सरकार घटक दलों के समक्ष समर्पण करके खुद को सत्ता में बनाए रखने के जिस रास्ते पर चल रही है उसमें उसे फजीहत और बदनामी के अलावा और कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इस तरह अपमानित होकर और राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ाकर सत्ता में बने रहने से बेहतर है उसका परित्याग करना। यदि केंद्र सरकार कुछ करने में समर्थ ही नहीं रह गई है तो फिर बेहतर होगा कि वह चुनावों का सामना करने का साहस दिखाए। यदि वह सत्ता के लालच में ऐसा नहीं करती तो उसकी और साथ ही देश की दुर्दशा होना तय है।


अगर केंद्र सरकार मुकुल राय को नया रेल मंत्री बनाने के लिए मजबूर होती है तो उसके लिए अपना चेहरा बचाना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि यह वही मुकुल राय हैं जिन्हें कुछ समय पहले प्रधानमंत्री ने रेल मंत्री बनने के योग्य नहीं पाया था। देश को यह भी अच्छी तरह पता है कि रेल राज्य मंत्री रहते हुए मुकुल राय ने किस तरह प्रधानमंत्री के आदेश की अवहेलना की थी? तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक एवं कुछ अन्य घटक दलों का रवैया इसकी पुष्टि करता है कि वे न तो केंद्र सरकार की प्रतिष्ठा की परवाह कर रहे हैं और न ही राष्ट्रीय हितों की। आखिर इस तरह से देश कैसे चलेगा? अब यह आवश्यक है कि गठबंधन राजनीति के भी नियम बनें और गठबंधन सरकारों को संचालित करने के भी। इसके बगैर समाज, राष्ट्र और खुद राजनीति का भला इसलिए नहीं होने वाला, क्योंकि क्षेत्रीय दलों के आगे राष्ट्रीय दल हाशिये पर जाते दिख रहे हैं। इतना ही नहीं वे अपने क्षेत्रीय स्वार्थो के आगे राष्ट्रीय हित नहीं देख पा रहे हैं। यदि मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश को छोड़ दें तो कोई भी प्रमुख राज्य ऐसा नहीं जहां क्षेत्रीय दलों का दबदबा न हो। स्पष्ट है कि गठबंधन राजनीति का दौर खत्म नहीं होने जा रहा। ऐसे में यह अनिवार्य है कि कोई ऐसी व्यवस्था बने जिससे क्षेत्रीय दलों के आग्रहों-दुराग्रहों के आगे राष्ट्रीय हितों की बलि न चढ़ने पाए।


इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


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