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संयुक्त प्रतिष्ठाहीन गठबंधन

संपादकीय ब्लॉग
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Rajeev sachanकेंद्र सरकार के एक और वरिष्ठ मंत्री अपनी आभा और प्रतिष्ठा खो बैठे हैं। ये हैं रक्षामंत्री एके एंटनी। उनके लिए यह बताना मुश्किल हो रहा है कि उन्होंने टाट्रा ट्रक खरीद में अनियमितता की शिकायत मिलने और यहां तक कि सेना प्रमुख वीके सिंह की ओर से खुद को रिश्वत की पेशकश का उल्लेख किए जाने के बाद भी तत्काल कोई ठोस कार्रवाई क्यों नहीं की? यह सवाल इसलिए और गंभीर हो गया है, क्योंकि टाट्रा ट्रक सौदा एक घोटाले की शक्ल लेता हुआ नजर आ रहा है। एके एंटनी महज रक्षामंत्री ही नहीं, सोनिया गांधी के अति भरोसेमंद नेताओं में से एक हैं। वह कुछ माह पहले जब इलाज के लिए विदेश गई थीं तो महत्वपूर्ण फैसलों के लिए जिस कोर कमेटी का गठन कर गई थीं उसमें केंद्रीय मंत्री के रूप में सिर्फ एंटनी ही शामिल थे। एंटनी की गिनती ईमानदार नेताओं में होती रही है। उन पर कभी कोई घपले-घोटाले का आरोप नहीं लगा और वह कुल मिलाकर कुशल प्रशासक की छवि वाले नेता माने जाते हैं। अब उनकी कुशलता पर भी संदेह है और निष्ठा पर भी। वह एक झटके में न केवल अर्श से फर्श पर आ गिरे हैं, बल्कि उन नेताओं की जमात का हिस्सा बन गए हैं जिनकी वजह से संप्रग सरकार श्रीहीन हो चुकी है।


विडंबना यह है कि इस जमात का नेतृत्व खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कर रहे हैं। देश-दुनिया को अब इसमें कोई संदेह नहीं रहा कि बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह घपले-घोटालों को रोकने में तो सर्वथा नाकाम हैं ही, वह जरूरी फैसले लेने से भी बच रहे हैं। 2जी, सीडब्ल्यूजी, सीवीसी, देवास-एंट्रिक्स सौदा, अन्ना आंदोलन, खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश, रेल बजट और रेल मंत्री के संदर्भ में उनके निर्णयों और साथ ही अनिर्णयों ने उनकी समस्त प्रतिष्ठा हर ली है। उनकी छवि एक ऐसे शासनाध्यक्ष की बन गई है जिनका अपने कार्यालय-पीएमओ पर ही कोई जोर नहीं। पता नहीं सेना प्रमुख की ओर से उन्हें लिखा गया पत्र किसने लीक किया, लेकिन आम धारणा है कि हो न हो, यह कारगुजारी पीएमओ से ही संबंधित किसी शख्स की होगी। सच्चाई जो भी हो, देश को इस मामले की जांच में लीपापोती का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे उसने क्वात्रोची और नोट-वोट कांड में किया।


देश आज तक इससे अनजान है कि बोफोर्स दलाल ओट्टावियो क्वात्रोची के लंदन स्थित बैंकों पर लगी रोक किसके आदेश से हटी थी? इसी तरह अभी तक यह नहीं पता कि परमाणु करार को लेकर संसद में आए विश्वास प्रस्ताव के समय नोट-वोट कांड किसने अंजाम दिया था? यह सनद रहे कि इन दोनों मामलों में दोषियों का पता लगाने का आश्वासन खुद प्रधानमंत्री ने दिया था। प्रधानमंत्री की छवि और क्षमता पर इतने प्रश्नचिह्न लग चुके हैं कि अब कुछ लोग उन्हें उस श्रेय से भी वंचित कर रहे हैं जो उन्होंने वित्तमंत्री के रूप में 90 के दशक के शुरुआत में अर्जित किया था। इन लोगों की मानें तो मनमोहन सिंह ने वित्तमंत्री के रूप में वही किया जो तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहा राव ने उन्हें करने के लिए कहा था। पता नहीं सच क्या है, लेकिन क्या इसमें संदेह है कि प्रधानमंत्री ने खुद को साबित करने का साहस सिर्फ एक बार किया है। उन्होंने जैसा साहस परमाणु करार पर दिखाया था वैसा फिर कभी नहीं दिखा सके। अपने दूसरे कार्यकाल में तो वह हर महत्वपूर्ण मामले में दबते-छिपते और हिचकते ही नजर आए हैं। संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में केवल मनमोहन सिंह ने ही प्रतिष्ठा नहीं गंवाई। उनके जैसा ही कुछ हश्र चिदंबरम, कपिल सिब्बल और सलमान खुर्शीद का भी हुआ है। ये वे मंत्री हैं जो संप्रग सरकार की धुरी ही नहीं, उसकी ताकत हुआ करते थे।


अन्ना के आंदोलन के प्रति चिदंबरम और सिब्बल के रवैये ने उन्हें जनता के बीच तो अलोकप्रिय बनाया ही, 2जी घोटाला भी उन पर भारी पड़ा। सुब्रमण्यम स्वामी के अलावा अन्य अनेक लोग यह साबित करने पर जोर दे रहे हैं कि चिदंबरम दूरसंचार मंत्री राजा के साथी हैं। पता नहीं ऐसा है या नहीं, लेकिन यह सवाल बहुत लोगों के मन में है कि चिदंबरम ने अवसर होते हुए भी राजा को मनमानी करने से क्यों नहीं रोका? कपिल सिब्बल संभवत: सदैव इसके लिए याद किए जाएंगे कि उन्होंने 2जी घोटाले में शून्य राजस्व हानि खोज निकाली थी। इसमें संदेह नहीं कि अन्ना के आंदोलन के दौरान चिदंबरम-सिब्बल ने जनता की सहानुभूति खोई तो सलमान खुर्शीद ने हासिल की, लेकिन उप्र विधानसभा चुनावों के दौरान उन्होंने चुनाव आयोग से भिड़कर सब कुछ गंवा दिया। वह देश के पहले ऐसे केंद्रीय मंत्री बन गए जिनकी चुनाव आयोग ने दो बार लिखित शिकायत की-एक बार प्रधानमंत्री से और दूसरी बार राष्ट्रपति से।


यूपी चुनावों ने संप्रग के शीर्ष नेताओं-सोनिया गांधी और राहुल गांधी की प्रतिष्ठा को भी तगड़ी चोट पहुंचाई है। ये दोनों नेता अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र में भी कांग्रेस को नहीं जिता सके। इस शर्मनाक पराजय में केंद्रीय सत्ता का नाकारापन एक बड़ी वजह बनने के बावजूद हार के कारण खोजने का बहाना किया जा रहा है। यह संकट के समय शुतुरमुर्गी आचरण का उत्तम उदाहरण है। केंद्र सरकार के शीर्ष मंत्रियों में केवल वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ही ऐसे बचे हैं जो अपनी छवि बचाए हुए हैं। सच तो यह है कि सरकार भी वही चला रहे हैं। वह न केवल अनगिनत समितियों के अध्यक्ष हैं, बल्कि सरकार के हर संकट को सुलझाने का काम भी करते हैं। संप्रग सरकार केवल प्रतिष्ठाहीन ही नहीं हुई है, वह देश पर बोझ बन गई है। बावजूद इसके अभी सब कुछ बिगड़ा नहीं है, बशर्ते सरकार में शीर्ष स्तर पर आमूल-चूल परिवर्तन करने में और देर न की जाए।


लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं


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