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अपने गाल आप बजाती सरकार

संपादकीय ब्लॉग
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कोई भी सरकार जब यह मान कर शासन करती है कि देश में उसके नेतृत्व का कोई विकल्प नहीं है तो वह एक भयानक भूल कर रही होती है. कुछ ऐसा ही वर्तमान संप्रग सरकार भी कर रही है. आज देश में चारो ओर अराजकता की स्थिति मौजूद है. आंतरिक सुरक्षा दाव पर लगी है, महंगाई, भ्रष्टाचार चरम पर हैं और सरकार अपनी उपलब्धियों का ढोल पीट रही है. लेकिन लोकतंत्र में यह स्थिति ज्यादा दिन तक बर्दाश्त नहीं की जाती और अंततः जनता सबक सिखा ही देती है.

 

माओवादियों को गंभीर और हंसी-मजाक पसंद न करने वाला माना जाता है. यह उनकी छवि के बिल्कुल अनुरूप ही था कि इन मौत के सौदागरों ने संप्रग-मार्क 2 की पहली वर्षगांठ पर होने वाले उत्सव में दंतेवाड़ा में एक और भयानक नरसंहार से खलल डाल दिया. इस जघन्य हरकत ने जनमत सर्वे और मीडिया आकलन रिपोर्टों से पैदा हुए मनमोहन सिंह एंड कंपनी के उत्साह को ठंडा कर दिया. भुलावे के जिस वातावरण में कांग्रेस मदहोश थी, उस पर अंकुश लगना जरूरी था.

 

हाल ही में लोकसभा में कटौती प्रस्ताव और इससे पहले राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल पारित कराने के बाद तरोताजा और जोशोखरोश से लबरेज दिख रहा संप्रग यह एहसास भी करा रहा था कि वह भाजपा की सत्ता से विदाई की छठी वर्षगांठ मना रहा है. वैकल्पिक सरकार का खतरा किसी भी उद्देश्यपरक शासन के लिए प्रेरणादायी माना जाता है. जब मतदाताओं को यह भान हो जाता है कि एक गठबंधन को ठोकर मारकर दूसरे को उसकी जगह लाया जा सकता है तो निकम्मी सरकार को झेलने की उसकी सहनशीलता स्वत: ही कम हो जाती है. भारतीय लोकतंत्र का एक त्रासद पहलू यह भी है कि सरकार विकल्पहीनता को अपने लिए राहत मान लेती है. यह प्रदेश स्तर पर भी हो सकता है किंतु केंद्र में सत्तारूढ़ दल यह मानकर खुद को भुलावे में रखता है कि उसका कोई विकल्प नहीं है.

 

विकल्पहीनता के मदहोश करने वाले एहसास के कारण ही राजीव गांधी 1987 के बाद अहंकार के दर्प में डूब गए थे. यही 2004 में राजग के आनंद का कारण बना था. भारत फिर से विकल्पहीनता का साक्षी बन रहा है. मनमोहन सरकार की घुमावदार चाल के कारण कांग्रेस को नाहक ही यह लग रहा है कि 2019 की गरमियों से पहले तक कांग्रेसनीत सरकार का कोई विकल्प नहीं है. जब एक साल पहले संप्रग फिर से सत्ता में आई, तो लग रहा था कि वाम दलों और लालू के बाहर होने के कारण सरकार अधिक सामंजस्य के साथ काम करेगी और कुछ दीर्घकालीन उपाय लागू करेगी. खासतौर पर यह विश्वास था कि ढांचागत सुविधाओं में निवेश में काफी बढ़ोतरी होगी और तीव्र विकास में बाधक तत्वों को ठिकाने लगा दिया जाएगा. संक्षेप में, संप्रग ऐसे मुद्दों पर भी ध्यान केंद्रित करेगी जो भारत में जीवनस्तर में सुधार ला सकते हैं. महानगरों और अन्य शहरों में रहने वालों को तो यह अपेक्षा थी ही, क्योंकि उन्होंने कांग्रेस को समर्थन इसलिए दिया था कि वे अनिश्चितता पर स्थायित्व को वरीयता देते हैं.

 

इसके अलावा एक गैर आर्थिक मुद्दा आतंकवाद भी लोगों के जेहन में था. मुंबई नरसंहार और नाकारा शिवराज पाटिल को हटाकर पी चिदंबरम जैसे दृढ़ छवि के व्यक्ति को गृहमंत्री बनाने से यह उम्मीद बंध गई थी कि भारत आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे को मजबूत कर ही लेगा. किसी को भी यह तो विश्वास नहीं था कि जिहादी हमले रुक जाएंगे किंतु इतना भरोसा जरूर था कि सरकार हमलों को रोकने और पुलिस व खुफिया तंत्र की कार्यक्षमता को बढ़ाने के लिए पुरजोर प्रयास करेगी. जनादेश पांच साल के लिए मिलता है इसलिए यह अनुचित होगा कि 365 दिन के आधार पर किसी भी सरकार के प्रदर्शन का आकलन किया जाए. फिर भी, अगर आकलन करना ही है तो संप्रग सरकार का प्रदर्शन जन अपेक्षाओं के आधार पर होना चाहिए. 2014 में निर्धारित अगले आम चुनाव में संप्रग से दो सवाल पूछे जाएंगे. पहला, क्या हम आज 2009 से बेहतर स्थिति में हैं? और दूसरे, क्या हम पांच साल पहले की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं?

 

आज महंगाई, खासतौर से खाद्यान्न की कीमतें आसमान छू रही हैं, जिसने संप्रग का रिकार्ड खराब कर दिया है. आम चुनाव के समय भारत में मुद्रास्फीति दर जीरो थी. आज सामान्य महंगाई 10 प्रतिशत और खाद्यान्न की कीमतों में 17 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है. बेलगाम महंगाई और शेयर बाजार में अनिश्चितताओं के कारण लोगों को अपने खर्च घटाने को मजबूर होना पड़ा है. क्योंकि भारतीय उपभोक्ता वर्ग अधिक लचीला है और बचत में यकीन रखता है, इसलिए न महंगाई और न ही आर्थिक मंदी यहां इतना प्रभाव नहीं डाल पाई है जितना कि पश्चिम देशों पर पड़ा है. दुर्भाग्य से, घाटे से उबरने में उपभोक्ताओं की जिम्मेदारी के अनुरूप सरकार खुद को जिम्मेदार साबित नहीं कर पाई. संप्रग के सजावटी कार्यक्रम जैसे नरेगा और प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा एक्ट सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति जरूर करते हैं किंतु क्या राष्ट्र की यह अपेक्षा गलत है कि सरकार हर रुपये का प्रभावी और सही इस्तेमाल करे? यह एक ऐसा सवाल है जिसका सरकार के पास जवाब नहीं है.
‘अच्छी राजनीति’ के छद्मावरण में सरकार ने ऐसी राजनीतिक संस्कृति विकसित की है, जिसमें मेहनतकश नागरिकों, ईमानदार करदाताओं और सफल उद्यमियों को सरकार की अक्षमता और भ्रष्टाचार का भार ढोना पड़ रहा है.

 

भारत उचित ही, पश्चिम को झकझोर देने वाली मंदी की चपेट से बच निकलने में गर्व महसूस कर सकता है, किंतु इसका पूरा श्रेय आम लोगों, सेवा प्रदाताओं और कंपनियों को जाता है, जिन्होंने अपने खर्च घटाकर इस मुसीबत को टाल दिया है. अगर बलिदान की जो भावना आम लोगों और उद्योग जगत ने प्रदर्शित की है, उसका अंशमात्र भी सरकार द्वारा दर्शाई जाती तो विश्व में भारत का रुतबा और प्रभाव कहीं अधिक बढ़ गया होता.

 

वस्तुत: सवाल लक्ष्यों का है. संप्रग सरकार ने बड़ी चालाकी से इतने छोटे लक्ष्य निर्धारित किए हैं कि अवसरों का लाभ न उठाने पर भी वह इसे असफलता में दर्ज नहीं करती. सरकार का ध्यान निर्भर रहने और अधिकार देने पर केंद्रित है, जो दीर्घकाल में भारत की आर्थिक प्रतिस्पर्धा की क्षमता को कुंद कर देगा और इसका प्रदर्शन कमजोर पड़ जाएगा. एक अर्थशास्त्री के नाते मनमोहन सिंह शायद इन दीर्घकालीन दुष्प्रभावों को लेकर सजग हैं, लेकिन कांग्रेस के कार्यकारी होने के नाते वह यह भी जानते हैं कि बेलगाम सरकारी खर्च से तात्कालिक चुनावी फायदा उठाया जा सकता है.

 

इसी अल्पदृष्टि का नतीजा है कि गृहमंत्री को नक्सलवाद से टकराने की अपनी दमदार सोच को पलटते हुए दलगत दायरे में सीमित होना पड़ा. अगर नक्सली आतंकवाद का मुकाबला करना है तो इसे छत्तीसगढ़ की समस्या के बजाय राष्ट्रीय समस्या के रूप में लेना होगा. इसके विपरीत, संप्रग की मंशा राज्य में भाजपा सरकार को फंसे रहने और उसकी मुसीबतों से चुनावी फायदा उठाने की लग रही है. संप्रग आर्थिक और सुरक्षा के मोर्चे पर इसलिए निर्लज्जाता दिखा रहा है क्योंकि इसे लगता है कि विपक्ष कमजोर और नाकारा है. अभी तक तो यह सही है लेकिन कांग्रेस को यह भी पता होना चाहिए कि भारतीय मतदाता विकल्प तैयार करने में ज्यादा इंतजार नहीं करते. पहले वे सरकार की खिलाफत करते हैं और फिर राजनीतिक प्रक्रिया इस शून्य को भर देती है.

Source: Jagran Yahoo

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