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अफगानिस्तान का भविष्य और भारत

संपादकीय ब्लॉग
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भारत के लिए अपने आस-पड़ोस में मुश्किल हालात तैयार हो रहे हैं और सबसे विकट स्थिति अफगानिस्तान में दिखाई दे रही है. बाहरी शक्तियां एक बार फिर अफगानिस्तान का भविष्य तय करने की प्रक्रिया में हैं. कुछ समय पहले तुर्की की पहल पर अंकारा में हुई एक बैठक में अफगानिस्तान के भविष्य पर विचार हुआ था. अब लंदन में कुछ नए फार्मूलों और विचारों की विवेचना जारी है. पाकिस्तान का करीबी मित्र होने का फर्ज निभाते हुए तुर्की ने भारत को अंकारा में निमंत्रित ही नहीं किया था. अलबत्ता, भारत पिछले एक दशक में अफगानिस्तान की राजनीति, समाज और राजनय में जितनी अहम भूमिका निभाता आ रहा है, उसे देखते हुए ब्रिटेन के लिए हमारी उपेक्षा करना संभव नहीं था. यह अलग बात है कि लंदन बैठक ने तालिबान के प्रति अपनाए जाने वाले रुख के मामले में हमसे अलग लाइन ली है और बदलते हालात में अफगानिस्तान के संदर्भ में प्रासंगिक बने रहने के लिए भारत को अपने रुख में कुछ नीतिगत ‘एडजस्टमेंट’ करने पड़ सकते हैं.

 

पिछले तीन दशक से आतंकवाद का दंश झेल रहे भारत के लिए इस बात को पचाना मुश्किल हो रहा है कि आतंकवादी के रूप में कुख्यात तालिबान की भी अलग-अलग श्रेणिया संभव हैं. पश्चिमी दुनिया में पिछले तीन-चार सालों में ‘अच्छे आतंकवादी’ और ‘बुरे आतंकवादी’ की अवधारणा पर चर्चा हो रही है. अफगानिस्तान से पीछा छुड़ाने को बेकरार अमेरिका और उसके सहयोगी देश बुरे आतंकवादियों को अलग-थलग करना चाहते हैं और तथाकथित अच्छे तालिबान को मुख्यधारा में शामिल करना चाहते हैं. यहां तक कि उन्हें अफगानिस्तान की सेना में भी शामिल किया जा सकता है.

 

अफगानिस्तान में सक्रिय विदेशी ताकतों के रुख में यह बदलाव हमारे हित में नहीं हैं, क्योंकि तालिबान सिर्फ इस्लामी शक्ति ही नहीं है. वह एक बड़ी भारत-विरोधी शक्ति भी है. भारत के विरुद्ध सक्रिय आतंकवादी संगठनों को उसका अटूट वैचारिक एवं धार्मिक समर्थन प्राप्त है, जिसकी बानगी हम आईसी-804 अपहरण कांड के समय देख चुके हैं. अलबत्ता, पाकिस्तान के लिए यह मुंहमागी मुराद पूरी होने जैसा है.

 

ओबामा के सत्ता में आने के बाद स्थितियां काफी तेजी से बदली हैं, क्योंकि वे अपने चुनाव के पहले से ही अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की शीघ्र वापसी का वायदा करते रहे हैं. वर्ष 2011 के बाद वहा अमेरिकी उपस्थिति में खासी कमी आ जाएगी. अमेरिका ने अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई को भी स्पष्ट संकेत दिए हुए हैं कि विदेशी सैनिक अनंत काल तक अफगानिस्तान में नहीं रहने वाले हैं. तालिबान की बेदखली के बाद सत्ता संभालने वाले करजई को जमीनी वास्तविकताओं का अहसास है. अगर अमेरिका तालिबान को समाप्त किए बिना अफगानिस्तान से निकल जाता है तो उनके लिए उससे निपटना असंभव होगा. वह एक बार फिर मजबूत होने में लगा है. ऐसे में, तालिबान के साथ मेल-मिलाप का रास्ता निकालना उनकी मजबूरी है और इसीलिए उन्होंने अपने चुनावी वायदों में यह मुद्दा शामिल किया था.

 

यह बात अलग है कि अफगानिस्तान में तालिबान से शांति वार्ता कर लाई जाने वाली शांति तब तक स्थायी नहीं हो सकती, जब तक कि वहां अशाति के कारणों, धर्मांध जेहादियों को समूल नष्ट न कर दिया जाए, लेकिन यह भारत का रुख है. अफगानिस्तान का भविष्य तय करने में निर्णायक भूमिका निभाने वाली ताकतें- अमेरिका, ब्रिटेन, पाकिस्तान और खुद हामिद करजई इसे मानने को तैयार नहीं हैं. ऐसे में, भारत के सामने अकेला पड़ जाने और पिछले एक दशक में भारी मेहनत तथा निवेश के साथ अफगानिस्तान में बनाई अपनी मजबूत स्थिति को खो देने का खतरा है.

Source: Jagran Yahoo

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