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आत्ममंथन का समय

संपादकीय ब्लॉग
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sanjay jiiदिल्ली में सामूहिक दुष्कर्म की घटना के बाद केंद्र सरकार की ओर से की गई पहल पर कुछ हद तक संतोष जताया जा सकता है, लेकिन यह पहल इसलिए पर्याप्त नहीं, क्योंकि एक तो वास्तविक बदलाव आना शेष है और दूसरे, समाज के स्तर पर बहुत कुछ किया जाना बाकी है। दिल्ली की घटना को लेकर देश भर में आक्रोश उमड़ने के बावजूद दुष्कर्म की घटनाओं में कहीं कोई कमी आती नहीं दिख रही है। मीडिया के जरिये जैसी घटनाएं सामने आ रही हैं उनसे ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि देश पर इस घटना का कोई असर पड़ा है। केंद्र और राज्य सरकारें अपने स्तर पर थानों में महिला पुलिसकर्मियों की संख्या बढ़ाने, कानूनों को कड़ा करने और दुष्कर्म के आरोपियों को सख्त सजा दिलाने के उपाय करने में लगी हुई हैं। महिलाओं को सुरक्षा का अहसास दिलाने के लिए जो उपाय करने हैं उनमें ज्यादा समय नहीं लगेगा, यदि पर्याप्त इच्छाशक्ति दिखाई जाए। इन सभी उपायों के साथ पुलिस के रवैये में परिवर्तन लाना विशेष आवश्यक है, क्योंकि अक्सर सुनने में आता है कि महिलाएं जब छेड़छाड़ या दुष्कर्म की शिकायत लेकर थाने पहुंचती हैं तो पुलिसकर्मी उनसे ढंग से बात भी नहीं करते। थानों में महिला पुलिस की तैनाती से स्थिति कुछ बदल सकती है, लेकिन आवश्यक यह भी है कि पुरुष पुलिसकर्मी भी महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनें।


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पुलिस और कानूनों में सुधार को लेकर पिछले दिनों दिल्ली में राज्यों के मुख्य सचिवों और पुलिस प्रमुखों की बैठक में कुछ मामलों में जिस तरह आमराय बनती दिखी उससे यह कहा जा सकता है कि केंद्र और राज्य सरकारें यह समझ रही हैं कि उन्हें जनता को दिलासा देने के लिए बहुत कुछ करना होगा, लेकिन यह चिंता का विषय बनना चाहिए कि समाज के स्तर पर किसी बदलाव के ठोस संकेत नहीं दिख रहे हैं। दिल्ली की खौफनाक घटना के बाद यह बात अनेक स्तरों पर सामने आई है कि संस्कारों की कमी के चलते महिलाओं से छेड़छाड़ और दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ रही हैं। यह एक सच्चाई है, लेकिन इसकी चर्चा नहीं हो रही है कि भारतीय समाज में संस्कारों में यह गिरावट आई कैसे? यह वह सवाल है जिस पर राजनीतिक दलों में और साथ ही विधानसभाओं और संसद में भी चर्चा होनी चाहिए, लेकिन बात तब बनेगी जब ऐसी ही चर्चा धर्मगुरुओं, शिक्षाविदों और समाज की अगुआई करने वाले अन्य लोगों के बीच भी हो।



इस चर्चा के दौरान इस पर खास तौर से विचार होना चाहिए कि महिलाओं को कम करके आंकने और उन्हें दोयम दर्जे का मानने की प्रवृत्ति क्यों बढ़ रही है? क्या कारण है कि ऐसी सोच बढ़ती जा रही है कि महिलाओं के साथ मनचाहा व्यवहार किया जा सकता है। उन्हें एक वस्तु मानने की सोच के पीछे केवल शिक्षा की कमी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि छेड़छाड़ और दुष्कर्म की तमाम घटनाओं में पढ़े-लिखे लोग भी लिप्त पाए जाते हैं। दरअसल बात संस्कारों की है और संस्कारों की नींव स्वस्थ पारिवारिक और सामाजिक माहौल में पड़ती है। यदि किसी परिवार में महिलाओं के प्रति सम्मानजनक व्यवहार नहीं होता तो उस परिवार के बच्चों में भी महिलाओं के प्रति सम्मान का भाव नहीं उपज सकता। ऐसे बच्चे महिलाओं को कम करके आंकने की सोच से ग्रस्त हो सकते हैं। ऐसी सोच महिलाओं के समक्ष समस्याएं ही पैदा करेगी। यदि दिल्ली की घटना से सबक लेना है और देश की चेतना को झकझोरने वाली उस बहादुर युवती को श्रद्धांजलि देनी है तो हर किसी को इस पर आत्ममंथन करना होगा कि क्या उनके घर-परिवार और पड़ोस में महिलाओं का आदर हो रहा है? जब घर-परिवार में महिलाओं को आदर मिलेगा तभी वे बाहर सम्मान पाएंगी और सुरक्षा का अहसास कर पाएंगी। यह सही समय है जब इस मान्यता को दैनिक जीवन का हिस्सा बनाया जाए कि जहां महिलाओं का सम्मान होता है वहां देवताओं का वास होता है। दुष्कर्म की बढ़ती घटनाएं समाज पर तो बुरा असर डालती ही हैं, वे बच्चों पर बहुत नकारात्मक प्रभाव छोड़ती हैं। समाचारपत्रों और टीवी के जरिये बच्चे जब इस तरह की घटनाओं के बारे में जानते हैं तो उनकी सोच पर कोई अच्छा असर नहीं पड़ता।ऐसी घटनाओं के चलते उनमें असुरक्षा की भावना न पनपे, इसके लिए स्कूलों में भी उन्हें संस्कारित करने की कोई पहल होनी चाहिए।


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यदि भारतीय समाज अपने को बदलने की कोई पहल नहीं करता तो वह एक तरह से पाखंड का प्रदर्शन करता रहेगा और अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा नहीं कर पाएगा। इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि दिल्ली की घटना के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि पर बहुत बुरा असर पड़ा है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि दुष्कर्म की सभी घटनाएं पुलिस और मीडिया के संज्ञान में नहीं आ पातीं। ग्रामीण इलाकों में तो ऐसी घटनाओं को और भी दबाया-छिपाया जाता है। लोकलाज के डर, पुलिस के रूखे व्यवहार और कानून की लंबी एवं जटिल प्रक्रिया पीडि़त महिलाओं और उनके परिजनों को इसके लिए आश्वस्त नहीं कर पाती कि उन्हें न्याय मिलेगा। भारतीय समाज को महिलाओं के प्रति किस तरह अपनी सोच बदलने की जरूरत है, इसका प्रमाण वे अनेक विवादास्पद बयान हैं जो हाल के दिनों में कई जाने-माने लोगों और विशेष रूप से नेताओं ने दिए हैं। इस कड़ी में ताजा बयान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत का है। उनकी मानें तो दुष्कर्म भारत में नहीं, बल्कि इंडिया में हो रहे हैं। उनकी समझ से यह समस्या केवल शहरी भारत की है। यह बेबुनियाद धारणा है। सच्चाई यह है कि दुष्कर्म देश के हर हिस्से में हो रहे हैं। महिलाओं को दोयम दर्जे का मानने की सोच देश के किसी खास हिस्से की समस्या नहीं है। इस तर्क के लिए कोई स्थान नहीं कि शहरी संस्कृति दुष्कर्म को बढ़ावा दे रही है।



संघ प्रमुख की तरह से मध्यप्रदेश सरकार के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय का यह बयान भी आपत्तिजनक है कि यदि महिलाएं मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लांघेंगी तो रावण आ जाएगा। क्या वह यह कहना चाहते हैं कि दुष्कर्म की घटनाओं के लिए महिलाएं ही दोषी हैं? वह अपने कथन से कहीं न कहीं रावण अर्थात छेड़छाड़ और दुष्कर्म करने वालों को जायज ठहरा रहे हैं। मर्यादा की लक्ष्मण रेखा जितनी महिलाओं के लिए आवश्यक है उतनी ही पुरुषों के लिए भी। चाल-चलन की परिभाषा महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग नहीं हो सकती। यदि मंत्री महोदय महिलाओं के चाल-चलन को उनके परिधानों या फैशन से जोड़ रहे हैं तो यह भी स्वीकार नहीं। किसी के कपड़ों से उसके चाल-चलन का आकलन करना सही नहीं। अगर संघ प्रमुख के कथन का यह आशय निकाला जाता है कि पश्चिमी संस्कृति और शिक्षा से वंचित तबके में महिलाएं सुरक्षित हैं तो इसे भी सही नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तथ्य यह है कि कन्या भ्रूण हत्या और दहेज हत्या के मामले ग्रामीण इलाकों में ही अधिक देखने को मिल रहे हैं। यह कितना विचित्र है कि एक ओर तो कन्याओं को देवी सरीखा मानकर पर्व विशेष पर उनकी पूजा होती है और दूसरी ओर कन्या भ्रूण हत्या या फिर अन्य तरह से बालिकाओं और महिलाओं का अनादर भी होता रहता है।


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