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अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम के सदस्यों की ओर से एक के बाद एक नेताओं के कथित घोटालों को उजागर करने से देश का ध्यान एक बार फिर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर है। अपनी टीम को एक राजनीतिक दल में बदलने की घोषणा करने के बाद उन्होंने सबसे पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा पर हमला बोला, फिर सलमान खुर्शीद पर और इसके उपरांत नितिन गडकरी पर। रॉबर्ट वाड्रा राजनीति में नहीं हैं और किसी को यह भी पता नहीं कि वह कांग्रेस के सदस्य हैं या नहीं, लेकिन कांग्रेसी नेताओं के साथ-साथ केंद्रीय मंत्रियों ने जिस तरह उनका बचाव किया उससे आम जनता को सही संदेश नहीं गया।
वाड्रा को बचाने के लिए कांग्रेस जिस रणनीति पर चली उससे यह बात साबित हुई वह गांधी परिवार की चाटुकारिता के लिए विवश है। कांग्रेस की मुश्किल यह है कि रॉबर्ट वाड्रा पर नित-नए आरोप लग रहे हैं। केजरीवाल के आरोपों के बाद वाड्रा का मामला इसलिए फिर से चर्चा में आया, क्योंकि हरियाणा सरकार के वरिष्ठ आइएएस अधिकारी अशोक खेमका ने उनकी कंपनी और डीएलएफ के बीच हुए जमीन के एक सौदे को रद कर दिया। इस अधिकारी का आनन-फानन तबादला कर दिया गया। इसकी सूचना सार्वजनिक होते ही कांग्रेस के लिए मुंह छिपाना मुश्किल हो गया। इसमें संदेह है कि खेमका के आदेशों पर अमल होगा, क्योंकि हरियाणा सरकार के अन्य अधिकारी रॉबर्ट वाड्रा को क्लीनचिट देने के लिए तत्पर दिख रहे हैं। दूसरी ओर वाड्रा पर लगे आरोप गंभीर होते जा रहे हैं। कॉरपोरेशन बैंक ने जिस तरह इससे इन्कार किया कि उसने वाड्रा की कंपनी को कोई ओवरड्राफ्ट दिया था, उससे यह सवाल और गहरा गया है कि आखिर उनके पास वह जमीन खरीदने के लिए करीब आठ करोड़ रुपये कहां से आए जो उन्होंने बाद में डीएलएफ को 58 करोड़ में बेची? वाड्रा के साथ-साथ अब राहुल गांधी पर भी गलत तरीके से हरियाणा में जमीन खरीदने के आरोप लग रहे हैं।
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने जमीन खरीद के इन सौदों में गड़बड़ी के कथित दस्तावेज भी उपलब्ध कराए हैं। हालांकि कांग्रेस चौटाला के आरोपों को खारिज कर रही है, लेकिन यह नहीं कह पा रही कि जो दस्तावेज दिखाए जा रहे हैं वे फर्जी हैं। चूंकि जिस शख्स ने वाड्रा और राहुल को जमीन दिलाने में मदद की उसे कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में अपना उम्मीदवार बना दिया था इसलिए दाल में कुछ काला होने का अंदेशा और गहरा गया है। वाड्रा के पहले गांधी परिवार भ्रष्टाचार की चपेट में तब आया था जब बोफोर्स तोप सौदे में दलाली का मामला उछला था। बोफोर्स तोप सौदे की तो आधी-अधूरी जांच भी हुई, लेकिन वाड्रा मामले में जांच कराने से साफ इन्कार किया जा रहा है? वाड्रा मामले पर कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने यह तर्क दिया है कि नेताओं के जो परिजन राजनीति में नहीं हैं उनके बारे में नहीं बोला जाना चाहिए। उन्होंने भाजपा को यह हिदायत भी दी कि कांग्रेस ने अटल और आडवाणी के परिजनों के खिलाफ प्रमाण होते हुए भी कुछ नहीं कहा। इस तरह की राजनीति को मान्यता देने का सवाल ही नहीं उठता, लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि भाजपा वाड्रा मामले में बयान देने के अलावा और कुछ नहीं कर रही है। पता नहीं क्यों वह सड़कों पर उतरने से इन्कार कर रही है?
भाजपा केजरीवाल की ओर से उठाए गए भ्रष्टाचार के मामले पर बोलने से चाहे जिस कारण बच रही हो, लेकिन यह तर्क चलने वाला नहीं है कि सिविल सोसाइटी की ओर से नेताओं पर लगाए जाने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों को बहुत अहमियत नहीं दी जानी चाहिए। केजरीवाल ने वाड्रा और सलमान खुर्शीद के बाद अपनी पूर्व घोषणा के अनुसार भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के कथित घोटाले का भंडाफोड़ किया। गडकरी के मामले में वह कोई खास खुलासा नहीं कर पाए, सिवाय यह सवाल उठाने के कि आखिर महाराष्ट्र सरकार ने उनके ही ट्रस्ट को जमीन क्यों दी? इस तथाकथित भंडाफोड़ के बाद अगले ही दिन केजरीवाल के सहयोगी रहे पूर्व आइपीएस वाईपी सिंह ने उन पर शरद पवार के घोटाले की अनदेखी करने का आरोप लगाया। अब सिविल सोसाइटी में इसकी होड़ दिख रही है कि कौन कितने बड़े नेता के कथित घोटाले सामने ला पा रहा है। इस होड़ से राजनीतिक दलों को यह साबित करने का मौका मिल गया है कि सिविल सोसाइटी के आरोपों पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं, लेकिन इससे काम चलने वाला नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि जो भी छोटे-बड़े घोटाले सामने आ रहे हैं उनकी कोई निष्पक्ष जांच हो।
दुर्भाग्य से इस दिशा में कोई पहल नहीं हो रही है। जब सोनिया गांधी यह दावा कर रही हैं कि उन्होंने आम जनता को सूचना अधिकार कानून के रूप में भ्रष्टाचार से लड़ने का एक मजबूत हथियार दिया और केंद्र सरकार भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने का काम गंभीरता से कर रही है, तब फिर उन्हें इस पर ध्यान देना होगा कि विभिन्न माध्यमों से नेताओं, नौकरशाहों और कॉरपोरेट जगत के लोगों के बारे में जो खुलासे हो रहे हैं उनकी कोई सही जांच हो। पिछले कुछ समय से केजरीवाल और सिविल सोसायटी के अन्य लोगों ने आरटीआइ के जरिये जो खुलासे किए हैं उनसे आम जनता को यह संदेश जा रहा है कि भ्रष्टाचार बेकाबू होता जा रहा है और सभी राजनीतिक दल एक जैसे हैं। वे एक-दूसरे के गलत काम छिपाते हैं। इस संदेश के प्रति राजनीतिक दलों को चिंतित होना चाहिए, अन्यथा उन्हें नुकसान उठाना पड़ सकता है। सच तो यह है कि उन्हें राजनीति के मौजूदा तरीकों को बदलने पर विचार करना चाहिए।
अरविंद केजरीवाल ने राजनीति में उतरने के साथ ही हलचल तो मचाई है, लेकिन यह समय ही बताएगा कि उनका दल राष्ट्रीय पटल पर कोई पहचान बना पाएगा या नहीं? उनके दल की परीक्षा दिल्ली के आगामी विधानसभा चुनाव में हो जाएगी। यदि इस चुनाव में इस दल को आम जनता का प्रोत्साहन मिलता है तो अन्य राजनीतिक दलों की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। फिलहाल करीब-करीब सभी राजनीतिक दल केजरीवाल की ओर से किए जा रहे खुलासों पर एक-दूसरे की पीठ सहलाते दिख रहे हैं। यह कोई अच्छी स्थिति नहीं। राजनीतिक दलों के इस रवैये से यही लगता है कि वे पुराने ढर्रे का परित्याग नहीं करने वाले। केजरीवाल को तवज्जो न देने वाले राजनीतिक दलों को यह ध्यान रखना चाहिए कि एक समय जब अन्ना ने लोकपाल को लेकर आंदोलन छेड़ा था तो उनके समर्थन में देश भर में अपार जन समूह उमड़ा था। तब राजनीतिक दल हतप्रभ भी थे और डरे हुए भी नजर आ रहे थे। चूंकि राजनीतिक दलों ने लोकपाल विधेयक नहीं पारित होने दिया और घपलों-घोटालों का सिलसिला कायम है इसलिए आम जनता का गुस्सा बरकरार है। बेहतर हो कि राजनीतिक दल आम जनता की नब्ज को समझें। इसी के साथ केजरीवाल को भी अपने साथियों की निष्ठा को लेकर सतर्क रहना होगा। उन्होंने अपने सहयोगियों-प्रशांत भूषण, मयंक गांधी और अंजलि दमानिया के खिलाफ तीन रिटायर्ड जजों से जांच कराने का जो फैसला किया उसकी कोई महत्ता नहीं। यह तय है कि राजनीतिक दल इस जांच को कोई महत्व नहीं देने वाले।
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