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कठोर और स्पष्ट नीति की जरूरत

संपादकीय ब्लॉग
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आदिवासियों के नाम पर देश में छद्म नक्सली आन्दोलन चल रहा है. भारत राष्ट्र को अराजकता में लाने की नित नई साजिशें की जा रही हैं. देश में तमाम राजनीतिक दल और छद्म बुद्धिजीवी अपने-अपने निहित स्वार्थों के कारण नक्सलियों के समर्थन की कोशिशें करते हैं. इस स्थिति में बदलाव लाने के लिए सरकार को दृढ़तापूर्वक नीति बनाने की सलाह दे रहे हैं बलबीर पुंज.

 

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के 76 जवानों की शहादत और उसके बाद दबी जुबान में आईं कुछ प्रतिक्रियाएं इस कटु सत्य को रेखाकित करती हैं कि भारतीय गणतंत्र के विशाल ढाचे को खोखला करने के लिए राष्ट्रविरोधी शक्तिया सफलतापूर्वक सक्रिय हैं। इस लोमहर्षक घटना के बाद कई शक्तिशाली सुरों ने नक्सलियों को दोषमुक्त करते हुए भारतीय सत्ता अधिष्ठान को जिम्मेदार ठहराया है। उनके अनुसार सुरक्षा बलों ने नक्सली क्षेत्र में पैर रखकर अपनी मौत को खुद बुलावा दिया था। इस कुतर्क को यदि तार्किक परिणति तक ले जाएं तो कल को यदि नक्सली अपने वर्तमान 25 प्रतिशत प्रभाव क्षेत्र से निकल कर शेष भारत में अपना विस्तार करें तो शाति स्थापित करने का एकमात्र तरीका यही है कि सभ्य समाज मूकदर्शक बना रहे।

 

यूं तो नक्सली आदोलन भूमिगत है, किंतु कुतर्क की भाषा बोलने वाले वस्तुत: धरातल पर दिखने वाले नक्सली आतंक के चेहरे हैं। नक्सली हिंसा का चेहरा, चाहे धरातल पर दिखने वाला हो या भूमिगत, उनका उद्देश्य भारत की बहुलतावादी संस्कृति और विशिष्ट पहचान को नष्ट करना है। यह भारत के खिलाफ एक अघोषित युद्ध है और इस युद्ध में भारत के खिलाफ भारतीयों का ही सफलतापूर्वक उपयोग किया जा रहा है। जब तक सत्ता अधिष्ठान इस सच्चाई को नहीं समझता, तब तक हम इस लड़ाई में कभी सफल नहीं हो सकते।

 

इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि नक्सली आदोलन सहित सभी अलगाववादी ताकतों का वित्तपोषण और उनका प्रशिक्षण चीन और पाकिस्तान अपने-अपने निहित स्वार्थ के कारण कर रहे हैं। समस्या इसलिए भी विकट हो जाती है कि देश का प्रमुख राजनीतिक दल- काग्रेस अपने अल्पकालीन क्षुद्र राजनीतिक उद्देश्य के लिए समय-समय पर इन राष्ट्रविरोधी ताकतों के साथ हाथ मिलाने से परहेज नहीं करता। पंजाब में खालिस्तान की समस्या ने भी तब विकराल रूप लिया था, जब काग्रेस ने अकाली-भाजपा गठबंधन को हाशिए पर डालने के लिए भिंडरावाले को उभारा था। लिट्टे को भी प्रारंभिक समर्थन काग्रेसनीत सरकार से ही मिला था।

 

सन 2004 के विधानसभा चुनाव से पूर्व आध्र प्रदेश में काग्रेस ने नक्सलियों से दुरभिसंधि की थी। मणिपुर में अपने दल को सत्ता पर बनाए रखने के लिए काग्रेसी सरकार अलगाववादी ताकतों से हाथ मिलाए बैठी है। अभी जबकि गृहमंत्री चिदंबरम ने नक्सलवाद के खिलाफ कड़ा रवैया अपनाया है और भाजपा समेत सभी राष्ट्रवादी संगठन उनके साथ खड़े हैं, ऐसे में उन्हें निरुत्साहित करने के लिए काग्रेस के अंदर से ही सुर उठ रहे हैं। क्या इस भ्रमित मानसिकता के साथ इस खूनी लड़ाई को जीता जा सकता है?

 

देशद्रोही ताकतों के विरुद्ध लड़ाई में यदि आप निर्णायक ढंग से पूरी तरह देश के साथ नहीं हैं तो इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि आप भारत के दुश्मनों के साथ हैं। यह स्पष्ट विभाजन रेखा इस देश में बनानी होगी। नक्सली आतंक के पैरोकारों का दावा है कि नक्सली समस्या दो कारणों से पैदा हुई है। पूंजीपति-सामंती वर्ग व सूदखोर बनियों के शोषण के कारण आदिवासी हथियार उठाने को मजबूर हुए हैं। दूसरा, पुलिस और प्रशासन में सामंती वर्ग का प्रभुत्व होने के कारण आदिवासियों का उस स्तर पर भी शोषण होता है। यह तर्क नक्सली समस्या से त्रस्त छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जैसे अन्य दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों में आधारहीन है। दंतेवाड़ा में सामंती वर्ग कभी रहा ही नहीं। नक्सली हिंसा से पहले मीलों तक न तो कोई पुलिस चौकी थी और न ही प्रशासनिक अमला वहा उपस्थित था। वास्तव में चीन-पाक गठजोड़ ने इसी निर्वात का लाभ उठाया और इस विशाल क्षेत्र में भारत विरोधी वैकल्पिक व्यवस्था खड़ी कर ली।

 

सुदूर आदिवासी अंचलों में प्रशासनिक अमले की दखलंदाजी को प्रारंभिक नीति-नियंताओं ने इसीलिए सीमित रखने की कोशिश की ताकि उनकी विशिष्ट पहचान और संस्कृति अक्षुण्ण बनी रह सके। किंतु इससे वे क्षेत्र मुख्यधारा में शामिल होने से वंचित रह गए और इसी शून्य का फायदा उठाकर इन क्षेत्रों में सफलतापूर्वक अलगाववादी भावना विकसित की गई। उन राष्ट्रविरोधी ताकतों को देश में प्रचलित विकृत सेकुलरवाद के कारण खूब प्रोत्साहन मिला। इस कुत्सित षड्यंत्र का राष्ट्रवादी शक्तियों ने विरोध किया तो उन पर सामाजिक खाई पैदा करने का आरोप लगाया गया। सुदूर इलाकों के आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल कर उनमें स्वाभिमान और राष्ट्रनिष्ठा जगाने की कोशिशों को हर संभव तरीके से कुंद करने का पूरा प्रयास किया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अनुषंगी ईकाई- वनवासी कल्याण केंद्र जैसे राष्ट्रवादी संगठनों ने जब वनवासियों के कल्याण की योजनाएं चलाईं तो आरोप लगाया गया कि ब्राह्मणवादी शक्तिया आदिवासियों की पहचान मिटाने का काम कर रही हैं। चर्च ने अपने मतातरण अभियान के लिए इस दुष्प्रचार का हर तरह से पोषण किया। देश के कई इलाकों में माओवादी-नक्सली और चर्च के बीच घालमेल अकारण नहीं है। इस साजिश को पहचानने की आवश्यकता है।

 

विकास से वंचित ग्रामीण इलाकों में व्याप्त गरीबी और बेरोजगारी तो वस्तुत: नक्सलियों के विस्तार का साधन बनी। गरीब व वंचितों का उत्थान नक्सलियों का लक्ष्य नहीं है। यदि यह सत्य होता तो सरकार द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास के लिए किए जा रहे कायरें को बाधित क्यों किया जाता है? सड़कों को क्यों उड़ा दिया जाता है? यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार सन 2006 से 2009 के बीच नक्सल प्रभावित ‘लाल गलियारे’ में नक्सलियों ने तीन सौ विद्यालयों को बम धमाकों से उड़ा दिया। सन 2005 से 2007 के बीच नक्सली कैडर में बच्चों की बहाली में भी तेजी दर्ज की गई है। छोटी उम्र के बच्चों को शिक्षा से वंचित कर उन्हें बंदूक थमाने वाले नक्सली कैसा विकास लाना चाहते हैं?

 

दलित-वंचित के नाम पर पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से जो हिंसक आदोलन प्रारंभ हुआ था, वह आज फिरौती और अपहरण का दूसरा नाम है। एक अनुमान के अनुसार नक्सली साल में अठारह सौ करोड़ की उगाही करते हैं। विदेशी आकाओं से प्राप्त धन संसाधन और प्रशिक्षण के बल पर भारतीय सत्ता अधिष्ठान को उखाड़ फेंकना नक्सलियों का वास्तविक लक्ष्य है। नक्सलियों ने सन 2050 तक सत्ता पर कब्जा कर लेने का दावा भी किया है। इस तरह के आदोलन कंबोडिया, रोमानिया, वियेतनाम आदि जिन देशों में भी हुए, वहा लोगो को अंतत: कंगाली ही हाथ लगी। माओ और पोल पाट ने लाखों लोगों की लाशे गिराकर खुशहाली लाने का छलावा दिया था, वह कालातर में आत्मघाती साबित हुआ। नक्सलियों का साथ देने वाले क्या इसी अराजकता की पुनरावृत्ति चाहते हैं?

 

इस अघोषित युद्ध का सामना दृढ़ इच्छाशक्ति के द्वारा ही हो सकता है और इसके लिए राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठने की आवश्यकता है। सबसे पहले सुरक्षा विशेषज्ञों को इस मामले में स्वतंत्र रणनीति बनाने की छूट देनी चाहिए और भारतीय सत्ता अधिष्ठान को पूरे संसाधन उपलब्ध कराने चाहिए। जो क्षेत्र नक्सल मुक्त हो जाएं, उनमें युद्धस्तर पर सड़क, बिजली, पानी जैसे विकास कायरें के प्रकल्प चलाए जाने चाहिए और आदिवासियों की विशिष्ट पहचान को अक्षुण्ण रख उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए।

Source: Jagran Yahoo

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