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कश्मीर नीति की नाकामी

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay guptश्रीनगर के एक पब्लिक स्कूल में सीआरपीएफ जवानों के शिविर पर किए गए आत्मघाती हमले ने जम्मू-कश्मीर में पिछले डेढ़-दो साल से चली आ रही शांति को तोड़ने के साथ ही यह भी साबित कर दिया कि इस राज्य में आतंकवाद का खतरा अभी भी कायम है। सच तो यह है कि घाटी का माहौल तभी से बिगड़ने लगा था जब संसद पर आतंकी हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी पर लटकाने के बाद जम्मू-कश्मीर में संकीर्ण स्वार्थो वाली राजनीति का दौर आरंभ हो गया और उसकी चपेट में विधानसभा भी आ गई। संकीर्ण स्वार्थो की इस राजनीति में न तो सत्तारूढ़ पार्टी नेशनल कांफ्रेंस पीछे है और न विपक्षी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी। ये दोनों ही दल अफजल की फांसी को लेकर अलग-अलग तरीके से जम्मू-कश्मीर की जनता को भावनात्मक रूप से भड़काकर अपने राजनीतिक स्वार्थो का संधान करना चाहते हैं, जबकि जरूरत वहां की जनता को यह समझाने की है कि अफजल ने भारत की अस्मिता की प्रतीक संसद पर हमलाकर जघन्य अपराध किया और इस अपराध के लिए वह फांसी की सजा का हकदार था। अगर कश्मीर के राजनीतिक दल ही इस हकीकत से मुंह चुराएंगे तो फिर जनता को सही बात कैसे समझ आएगी? राजनीतिक दलों के रवैये का लाभ हुर्रियत कांफ्रेंस समेत कश्मीर के अलगाववादी संगठन उठा रहे हैं।

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यासीन मलिक ने अपने पाकिस्तान प्रवास के दौरान जिस तरह भारत के खिलाफ आग उगली और यहां तक कि मुंबई हमले के गुनहगार हाफिज सईद के साथ मंच भी साझा किया उससे उनके इरादे साफ हो जाते हैं। कश्मीर के सबसे बड़े नेता माने जाने वाले शेख अब्दुल्ला के मन में अपनी रियासत को एक स्वतंत्र देश बनाने की ललक थी। इसी ललक के चलते उनके और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के मधुर रिश्तों में कड़वाहट आई। ये रिश्ते तब और बिगड़े जब शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर को विशेष दर्जा देने की मांग करने के साथ ही उसके भारत में विलय को नकारना शुरू कर दिया। इसके चलते एक दशक से अधिक समय तक उन्हें नजरबंद भी किया गया। शेख अब्दुल्ला के बाद उनके पुत्र फारुक अब्दुल्ला के साथ भी केंद्र के रिश्ते बनते-बिगड़ते रहे। लगता है उनके बेटे उमर के साथ अन्य कश्मीरी दलों के नेता अभी भी आजाद कश्मीर के मोह से ग्रस्त हैं और शायद इसीलिए कश्मीर की जनता पर तथाकथित आजादी का फितूर सवार रहता है। यह भी स्पष्ट है कि पाकिस्तान इसे हवा देता रहता है। कश्मीर के प्रति पाकिस्तान के इरादे आजादी के बाद से ही सही नहीं है। कश्मीर के मुस्लिम बहुल होने के कारण पाकिस्तान शुरू से ही इसे हड़पने की फिराक में है। सीधे युद्धों में बार-बार पराजित होने के कारण पाकिस्तान ने आतंकवाद के रूप में छद्म युद्ध की मदद से कश्मीर को हड़पने की कोशिशें जारी रखी हैं। दूसरी ओर कश्मीर के संदर्भ में भारत आज भी वहीं खड़ा है जहां वह आजादी के समय था। यह तब है जब कश्मीरियों का दिल जीतने के नाम पर अब तक भारत सरकार अरबों रुपये पानी की तरह बहा चुकी है। कश्मीरियों का मन बदलना तो दूर रहा, घाटी और उसके आसपास के क्षेत्रों से जिस तरह कश्मीरी पंडितों को बेदखल किया गया उससे उनकी पाकिस्तान परस्ती का ही प्रमाण मिलता है। भारत को यह भी समझना होगा कि समस्या की जड़ में कश्मीर को मिला विशेष राज्य का दर्जा है। यह दर्जा भले ही कश्मीरियों को संतुष्ट करने और उन्हें आजादी की राह पर न जाने देने के नाम पर दिया गया हो, लेकिन हकीकत में यह उन्हें शेष भारत से अलग-थलग करने का कारण बन रहा है। इस विशेष दर्जे के कारण ही अंतरराष्ट्रीय जगत में यह संदेश जाता है कि भारत कश्मीर को अलग नजरिये से देखता है और चूंकि यह विवादित क्षेत्र है इसलिए उसे विशेष राज्य का दर्जा प्रदान किया गया है। अब अगर भारत जम्मू-कश्मीर के विशेष राज्य के दर्जे को वापस लेने का फैसला करता है तो हो सकता है कि कुछ समय के लिए इसका प्रबल विरोध हो, लेकिन यह तय है कि धीरे-धीरे स्थितियां सुधर जाएंगी। कश्मीर के संदर्भ में नई दिल्ली ने अभी तक जो नीतियां अपनाई हैं वे वहां के लोगों का भारत के पक्ष में मन बदलने में नाकाम सिद्ध हुई हैं। विशेष राज्य के दर्जे का वहां के राजनीतिज्ञों ने ही लाभ उठाया है। वे केंद्र सरकार द्वारा भेजे गए धन का जमकर दुरुपयोग करते हैं और साथ ही जनता के बीच ऐसा संदेश देने की कोशिश करते हैं मानो किसी दूसरे देश ने उनके लिए पैसा भेजा हो।


कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को समाप्त करना ही इस राज्य के शेष भारत के साथ सही मायने में एकीकरण के लिए एकमात्र विकल्प है। चूंकि कश्मीर के कारण ही भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सामान्य होने की सूरत नजर नहीं आती इसलिए भारत को पाकिस्तान के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। कम से कम कूटनीतिक स्तर पर उसके प्रति कभी नरमी और कभी गरमी दिखाने का सिलसिला तो बंद होना ही चाहिए। पाकिस्तान के संदर्भ में व्यक्ति के साथ व्यक्ति के स्तर पर संबंध बढ़ाने की नीति तो ठीक है, लेकिन अन्य स्तरों पर रिश्ते मजबूत करने की पहल पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। जब भी देश में कोई आतंकी घटना घटती है, उसके तार पाकिस्तान से जुड़े होने के संकेत सामने अंाते हैं या फिर आतंकियों की घुसपैठ की कोशिशें होती हैं तो दोनों देशों के रिश्तों में फिर कड़वाहट आ जाती है और कुछ समय बाद नए सिरे से संबंध सुधारने की कोशिश की जाती रहती हैं। उतार-चढ़ाव भरे ये रिश्ते द्विपक्षीय संबंधों को किसी नए मुकाम पर नहीं ले जाने वाले। इसका ताजा प्रमाण पाकिस्तान द्वारा भारत के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित करना है। भारत ने भी जवाब में ऐसा ही किया, लेकिन क्या इससे पाकिस्तान को कोई सबक मिला होगा? यहां यह भी ध्यान रहे कि मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान के साथ सख्ती से पेश आने का जो फैसला किया गया था उस पर टिके नहीं रहा गया। इसका कारण चाहे अंतरराष्ट्रीय दबाव हो या फिर भारत की अपनी कमजोरी, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि पाकिस्तान ने मुंबई हमले के गुनहगारों को दंडित करने के लिए अपने स्तर पर कुछ भी नहीं किया। नियंत्रण रेखा पर भारतीय सैनिकों के साथ बर्बरता और फिर हैदराबाद की घटना के बाद भारत ने पाकिस्तान के प्रति फिर से सख्ती के संकेत दिए, लेकिन पाक प्रधानमंत्री की जयपुर यात्रा के दौरान विदेश मंत्री उन्हें दावत देने पहुंच गए। अब श्रीनगर में आतंकी हमले और पाक संसद के निंदा प्रस्ताव के बाद भारत ने फिर कठोर रवैया अपनाया है। इस सिलसिले से भारत की जनता अब आजिज आ गई है। बेहतर यह होगा कि सभी राजनीतिक दलों की एक बैठक बुलाकर कश्मीर और पाकिस्तान के संदर्भ में भारत की नीति नए सिरे से निर्धारित की जाए। यह नीति देश की होनी चाहिए, किसी राजनीतिक दल या सरकार की नहीं और उस पर लंबे समय के लिए अमल भी होना चाहिए।


इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


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Tags: पाकिस्तान , प्रधानमंत्री, नियंत्रण रेखा, निंदा प्रस्ताव, राजनीतिक दल , जम्मू-कश्मीर


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