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कोटातंत्र का सिद्धांत

संपादकीय ब्लॉग
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आज की राजनीति कुछेक ऐसे सिद्धांतों से शासित हो रही है जो लोकतंत्र के मूल सिद्धांत से अंतर्विरोध रखते हैं. इसमें से एक महत्वपूर्ण अभिलक्षण कोटे का अधिकाधिक रूप से राजनीतिक व्यवस्था में जरूरी होते जाना है. प्रताप भानु मेहता ने अपने आलेख “लोकतंत्र बनाम कोटातंत्र” में इस मुद्दे पर गहन प्रकाश डाला है.

 

संवैधानिक क्रांति हो रही है. यह लंबे समय से जारी है, किंतु इसकी सच्चाई की परतें अब खुल रही हैं. एक नई तरह की हुकूमत शक्ल ले रही है. शासन प्रणालियों के विभिन्न प्रकारों के जानकार, जैसे प्लेटो, अरस्तू, कौटिल्य और मेडिसन तक को इसकी समझ नहीं थी. नई शासन प्रणाली एकल राजतंत्र, राजशाही, जनतंत्र या फिर लोकतंत्र से भिन्न है. यह है कोटातंत्र! परमानंद का अनुभव कीजिए कि इसका उदय हो चुका है.

 

कोटातंत्र के सिद्धांतों को बड़ी सावधानी से समझना होगा. यह लोकतंत्र से उपजते हैं और इसमें गड्डमड्ड हो जाते हैं. किंतु गलती न करें. कोटातंत्र इससे अलग है. लोकतंत्र में चुनाव की अहमियत होती है. वोटर जिसे चाहें चुन सकते हैं. कोटातंत्र में मतदाता विशिष्ट वर्ग में से किसी को चुन सकता है. लोकतंत्र में आम इच्छाशक्ति संभव है. कोटातंत्र में विशिष्ट अर्थ और हित होते हैं जैसे पुरुष के लिए पुरुष, महिला के लिए महिला, जाति के लिए जाति. इस तरह इसमें एक आम धारणा असंभव है.

 

मोंटेस्क्यू ने कहा है, ‘प्रत्येक हुकूमत का एक सिद्धांत होता है, जो इसे सर्वश्रेष्ठ रूप में कायम रखता है.’ तानाशाही में यह पहलू भय है, अभिजात्य शासन में मान-सम्मान है और जनतंत्र में श्रेष्ठ गुण हैं. कोटातंत्र का अपना खुद का सिद्धांत हैं-शिकार. इसके बिना कोटातंत्र का अस्तित्व ही नहीं है. नए दावों की व्यापकता प्रताड़ना का बखान है. प्रतिस्पर्धा की धुरी भी बलिदान है. जो इसे हासिल नहीं कर पाते वे व्यथित हैं. लोकतंत्र कभी-कभी अन्याय के निवारण का अपवाद भी पेश करता है. कोटातंत्र में अपवाद ही मानदंड है. अन्य पिछड़ा वर्ग खुद के लिए कोटा चाहता है, लेकिन महिलाओं के लिए नहीं. महिलाएं अपने लिए कोटा चाहती हैं, लेकिन अन्य पिछड़ा जातियों के लिए नहीं. कोई भी मुसलमानों के लिए कोटा नहीं चाहता. कुछ कहते हैं, ‘महिलाओं को कोटे की क्या आवश्यकता है? पार्टी इन्हें टिकट क्यों नहीं देती हैं?’ किंतु कोटातंत्र में यह सवाल वैधानिक नहीं है. हालांकि जो लोग इस सवाल की वैधानिकता से इनकार करते हैं, वही जब उपकोटे की बात करते हैं, तो इसे तर्क को अपनी दलील बनाते हैं कि ‘कोटे के तहत ओबीसी महिलाओं को टिकट क्यों नहीं दिया जाना चाहिए?’ किंतु इस पाखंड से भ्रमित न हों. पाखंड केवल लोकतंत्र में विद्यमान रहता है, जहां सच्चाई आदर्श से मेल नहीं खाती.

 

लोकतंत्र में वाम और दक्षिण, स्वतंत्रता व समता, पंथनिरपेक्षता व धार्मिकता में विचारधारात्मक अंतरविरोध होता है. कोटातंत्र में सर्वसम्मति होती है. वाम, दक्षिण और मध्य के तमाम विरोध कोटातंत्र में खत्म हो जाते हैं. जो कोटे का विरोध करते हैं उन्हें देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है. कोटातंत्र की न्याय की अपनी ही अवधारणा है. यह समता या योग्यता, या उचित नहीं है. यह सीधे-सीधे अंकगणित है. 33 प्रतिशत इधर, 22 प्रतिशत उधर, 55 प्रतिशत में शेष सभी. और चूंकि अंकगणित में उलझाया जा सकता है, इसलिए इसमें घालमेल और उपविभाजन का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता. सामान्य कोटा न्याय के अनुरूप है. लोकतंत्र में ‘आप कहां से आए हैं’ से महत्वपूर्ण है ‘आप कहां जा रहे हैं’. यह अस्मिता पर कम से कम निर्भरता को वैध रूप से न्यायोचित ठहराता है. जबकि कोटातंत्र में इसका उलटा होता है. यह अस्मिता व पहचान पर निर्भरता को कानूनी मान्यता देता है.

 

लोकतंत्र व्यक्तित्व को पुरस्कृत करता है, कोटातंत्र सामूहिक सोच को. कोटातंत्र आरोपित किया जाता है. जिस तरह राष्ट्र आपको प्रमाणपत्र देता है, आपको उसी रूप में जाना जाता है-एससी, एसटी या ओबीसी. आप यही हो सकते हैं, इसके बिना कुछ नहीं. लोकतंत्र सत्ता को पहचान देने में संकोची होता है. कोटातंत्र राष्ट्र की शक्तियों के इस्तेमाल से नई पहचान कायम करता है. कोटातंत्र में सत्ता का नया प्रथक्किरण है. ओबीसी को नौकरियों व शिक्षा में आरक्षण मिला हुआ है किंतु राजनीति में इसे आधार नहीं माना गया. महिलाएं लोकसभा में आरक्षण हासिल कर सकती हैं किंतु राज्यसभा में नहीं. महिलाएं राजनीति में आरक्षण प्राप्त कर सकती हैं, लेकिन नौकरियों में नहीं. विधायिका व प्रशासकीय क्षेत्रों में भी कोटातंत्र भ्रमित है. इस जटिलता के कोटातंत्र के अपने तर्क हैं. टोक्यविले ने कहा है कि लोकतंत्र में समता के औपचारिक मिथक वास्तविक असमानता के भेष में प्रकट होते हैं. कोटातंत्र में यह तथ्य कि कुछ समुदायों से व्यक्तियों का सशक्तिकरण को उस समुदाय के सशक्तिकरण के रूप में लिया जाता है.

 

लोकतंत्र ऐतिहासिक परंपराओं पर आधारित है, कोटातंत्र ऐतिहासिक विस्मरण पर. अंग्रेजों ने कहा था कि हम इसलिए अल्पव्यस्क हैं क्योंकि जाति और समुदाय से परे नहीं सोच पाते. कोटातंत्र बांटो और राज करो की नीति को पसंद करता है. इससे यह भी सोच पैदा होती है कि हम स्वशासन के अयोग्य हैं. मतभेदों के बावजूद लोकतंत्र एकता चाहता है. कोटातंत्र समानताओं के बावजूद विभाजन का पक्षधर है. किंतु लोकतंत्र और कोटातंत्र में बहुत कुछ समान भी है. दोनों ही संपूर्ण नहीं हैं. लोकतंत्र सतत रूप में उत्ताराधिकार को खत्म करता है. कोटातंत्र नए कोटों की रचना में लगा रहता है. लोकतंत्र में सभी समान हैं किंतु कुछ अन्य से अधिक समान हैं. जबकि कोटातंत्र में कुछ वंचित समूह अपनी वंचना की पहचान औरों से अधिक रखते हैं.

 

कोटातंत्र वास्तव में क्रांतिकारी है. इस संबंध में कोई गलती न करें. यह तमाम क्रांतियों से अधिक गहन है क्योंकि इसके लिए नए नैतिक शब्दकोश की आवश्यकता पड़ती है. और इसे समझने के लिए नए राजनीति शास्त्र की जरूरत है. कोटातंत्र के युग के लिए तैयार रहें.

Source: Jagran Yahoo

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