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जम्हूरियत की खुसुर-पुसुर सद्र ओट में!

संपादकीय ब्लॉग
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हमेशा से पकिस्तान की राजनीति गड़बड़ी का शिकार रही है. जब भी वहॉ लोकतंत्र स्थापित हुआ, सत्ता पलट होते देर नहीं लगी. बड़ी मुश्किलों से परवेज मुशर्रफ के तानाशाही शासन से छुटकारा पाए पाकिस्तान के अवाम को फिर से किसी कठिनाई में फंसने से रोकने के लिए किए गए 18वें संविधान संशोधन में सत्तारूढ़ दल के राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री को हटाने का जो अधिकार दिया गया है, वह वहां फिर से तानाशाही को वापस ला सकता है. इस आलेख में वरिष्ठ स्तंभकार कुलदीप नैयर ने ऐसे हालात पर चिंता व्यक्त किया है.

 

‘लोकतंत्र के घोषणापत्र’ पर पाकिस्तान पीपल्स पार्टी और मुस्लिम लीग के प्रमुखों ने 14 मई, 2006 को लंदन में हस्ताक्षर किए थे. तब बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ दोनों ने ही पाकिस्तान की जनता से आह्वान किया था कि वे अपनी ‘मातृभूमि को सैनिक तानाशाही के बंधन से मुक्त करने और अपने मूलभूत सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की रक्षा और लोकतांत्रिक, संघीय, आधुनिक और प्रगतिशील पाकिस्तान के सपने को पूरा करने के लिए आगे आएं, जैसा कि हमारे राष्ट्र निर्माता ने चाहा था.

 

जब मैंने 18वें संविधान संशोधन को पढ़ा तो उसमें ऐसा कुछ भी नहीं पाया जिसे लेकर राजनीतिक दल और विशेषकर पाकिस्तान पीपल्स पार्टी और मुस्लिम लीग फूल कर कुप्पा हो सकें. इस संशोधन में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे सैनिक तख्तापलट होने से रोका जा सके. पाकिस्तान का वर्तमान संविधान 1973 में जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में स्वीकार किया गया था. लेकिन इसके बावजूद जनरल जिया-उल-हक और जनरल परवेज मुशर्रफ ने अपनी इच्छानुसार सभी संस्थानों को धता बताते हुए सैनिक बूटों की ताकत पर पाकिस्तान में सैन्य शासन की स्थापना की.

 

जिया ने तो और भी बुरा किया. उन्होंने संविधान में उस प्रतीक को भी समाप्त कर दिया जिसमें बहुलतावाद की झलक मिलती थी. मैंने बांग्लादेश युद्ध के बाद एक साक्षात्कार में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो से पूछा कि क्या वह गारंटी दे सकते हैं कि सेना फिर से सत्ता पर अधिकार नहीं करेगी, जैसा कि जनरल मोहम्मद अयूब द्वारा मार्शल ला थोपने पर हुआ था. इस प्रश्न के जवाब में भुट्टो ने कहा, इस बार ऐसा हुआ तो उनके लोग सड़कों पर उतर आएंगे और टैंकों का भी सामना करेंगे. हालांकि, जब जिया ने भुट्टो को गिरफ्तार किया और मुर्री में हिरासत में भेजा, तो वहां भौंकने वाला एक कुत्ता भी नहीं था. पूरा देश मार्शल ला की चपेट में इतनी आसानी से आ गया, जैसे किसी व्यक्ति ने नए कपड़े पहन लिए हों. तब ऐसा ही आभास हुआ कि लोगों को इस बात से कोई सरोकार नहीं कि शासक कौन है?

 

18वां संविधान संशोधन लोकतंत्र बहाली की दिशा में एक कदम है. पाकिस्तान को अभी भी दुनिया को यह साबित करना है कि वह एक लोकतांत्रिक देश होना चाहता है. जब मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी को अपने पद पर बहाल करने के लिए लोग वकीलों के पीछे खड़े हुए तो राष्ट्र ने उदार देश होने का संकेत दिया था. पाकिस्तान में न्यायपालिका तो स्वतंत्र हो गई है, किंतु कौमी असेंबली, जो वहां की संसद है, की सर्वोच्चता स्थापित होना बाकी है. 18वें संशोधन पर सर्वसम्मत मतदान यह प्रमाणित करने की दिशा ने एक महत्वपूर्ण कदम है. लेकिन यह सवाल अभी भी शेष है कि क्या पाकिस्तान द्वारा अंगीकार की गई कमजोर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की रक्षा लोग कर सकेंगे, जब उसे किसी नागरिक तानाशाह अथवा सैन्य प्रमुख से चुनौती मिलेगी?

 

भारत का संविधान विश्व के श्रेष्ठतम संविधानों में से एक है. उसे भी तब लोकतांत्रिक प्रणाली से वंचित होना पड़ा, जब इंदिरा गांधी ने एकाधिकारवादी रवैया अपनाते हुए पूरे देश मे आपातकाल थोप दिया था. देश में उस समय राजनीतिक मामलों से परे सेना ने यही रवैया अपनाया था कि शासन संचालन के मामलों को लोग खुद ही सुलझाएं. वास्तव में देश की जनता ने ऐसा ही किया और लोकतंत्र को वापस पटरी पर ले आए. जनता ने कांग्रेस को ऐसी सबक सिखाने वाली पराजय दी कि चुनाव में उत्तार भारत में उसका सूपड़ा ही साफ हो गया. यह लोकतंत्र के स्थान पर व्यक्तिगत हुकूमत कायम करने की हठवादिता के विरुद्ध लोगों के रोष का प्रमाण था.

 

पाकिस्तान को भारत से सीख लेनी चाहिए कि किस तरह संसद को तानाशाही से बचाया जाए और संविधान के बुनियादी ढांचे के चरित्र को बरकरार रखा जाए. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती केस में यह निर्णय दिया था कि संसद संविधान के बुनियादी ढांचे को नहीं बदल सकती. लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता और राज्य का संघीय ढांचा संविधान के तीन मुख्य स्तंभ हैं. इसी तरह पाकिस्तान भी लोकतंत्र, देश का इस्लामिक स्वरूप, संघीय ढांचा और बहुलवाद को संविधान का बुनियादी ढांचा निर्धारित कर सकता है.

 

इंदिरा गांधी के हाथों जो दुखद अनुभव आया था, उसे आसानी से नहीं भुलाया जा सकता. सर्वोच्च न्यायालय ने भी 4-1 से आपातकाल लागू किए जाने का समर्थन किया था. यह एक तरह से पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले जैसा ही था, जो उसने सैनिक तख्तापलट को न्यायसंगत मानते हुए दिया था. ऐसा ‘आवश्यकता का सिद्धांत’ देकर कहा गया, जोकि असंवैधानिक था. इसलिए जागरूक समाज के अलावा दूसरा कोई राह नहीं है. जनता और मीडिया को सजग रहना होगा और जब भी लोकतंत्र पर हमला हो तो डटकर खड़ा होना होगा. उन्हें इनाम अथवा दबाव दोनों का ही प्रतिरोध करना होगा और सच्चाई पर अडिग रहना होगा, क्योंकि वे स्वतंत्र अभिव्यक्ति के संरक्षक भी हैं. जिन लोगों ने नवाज शरीफ की निर्वाचित सरकार को अपदस्थ कर बलात गद्दी हथियाई थी, उनके विरुद्ध कार्रवाई करके पाकिस्तान भारत को सीख भी दे सकता है.

 

भारत को आपातकाल के बाद दोषी राजनीतिज्ञों ही नहीं अपितु उन नौकरशाहों के विरुद्ध भी कार्रवाई करनी चाहिए थी, जो इच्छापूर्वक निरंकुश व्यवस्था के पक्षधर बने थे. इंदिरा गांधी की सत्ता में पुन: वापसी के बाद शाह आयोग ने आपातकाल में हुई ज्यादतियों को इंगित किया था और ऐसे सुझाव दिए थे कि जिनसे एकाधिकारवाद की आशंका पुन: नहीं उभर सके. यदि आपातकाल के कर्ताधर्ता दंडित हो जाते तो लोकतंत्र को धक्का पहुंचाने वालों को एक सबक मिलता. दुर्भाग्य से ऐसे कुछ लोग, जिनकी आपातकाल के दौरान प्रमुख भूमिका रही थी, वे प्रधानमंत्री की कैबिनेट के सदस्य हैं. पुनरावृत्तिको रोकने का एकमात्र उपाय ऐसे लोगों को सजा देना है, जो संविधान का उल्लंघन करते है.

 

इस परिप्रेक्ष्य में, 18वें संविधान संशोधन में सत्तारूढ़ दल के राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री को हटाने का जो अधिकार दिया गया है, वह वहां फिर से तानाशाही को वापस ला सकता है. प्रधानमंत्री को हटाने का अधिकार मात्र संसद को ही होना चाहिए. पाकिस्तान का 18वां संशोधन जिस बिंदु पर भारत को पीछे छोड़ता है, वह है दलबदल. भारत में सांसदों को अपनी आत्मा की आवाज के आधार पर निर्णय लेने की आजादी नहीं है. उन्हें पार्टी ‘व्हिप’ मानना पड़ता है अन्यथा उनकी सदस्यता जा सकती है. पाकिस्तान में सेनेट अथवा कौमी असेंबली का सदस्य ‘वित्त विधेयक’ और ‘अविश्वास प्रस्ताव’ के अलावा अन्य मामलों में पार्टी के व्हिप का उल्लंघन कर सकता है. हालांकि 18वें संशोधन में भी ऐसे प्रगतिशील तत्व बहुत कम हैं. पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और मुस्लिम लीग दोनों को लोकतंत्र के उस घोषणापत्र को पुन: पढ़ना होगा जिसमें संविधान में 26 संशोधनों की सिफारिश की गई हैं और 36 अन्य सुझाव दिए गए हैं. कुल मिलाकर कहें तो 18वां संविधान संशोधन एक आधा-अधूरा दस्तावेज ही है.

Source: Jagran Yahoo

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