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भारत में वर्ष 2011 की जनगणना का कार्यक्रम आरंभ हो चुका है. केन्द्र सरकार ने इस बार सही गणना करवाने के लिए कमर कस लिया है. किंतु इस देश में जहॉ राजनीति जाति आधारित हो चुकी है और आरक्षण का प्रावधान जातीय आधार पर किया गया है वहॉ जातियों की सही संख्या का उपलब्ध ना होना कई समस्याएं पैदा करता है. इस आलेख में उतर प्रदेश सरकार में मंत्री रहे हृदयनारायण दीक्षित ने इस मुद्दे को बेहद गंभीरता से उद्धृत किया है.
संविधान आधुनिक लोकतंत्र का धर्मशास्त्र होता है। यह शासन प्रणाली का धारक भी होता है, लेकिन भारतीय संविधान में राजकाज और समाज के बीच गहरे अंतर्विरोध हैं। भारतीय समाज में हजारों जातिया हैं। राजनीति में भी जातिवाद है, लेकिन संविधान में जाति की परिभाषा नहीं है।
संविधान में अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए विशेष रक्षोपाय हैं, लेकिन अनुसूचित जाति/जनजाति की परिभाषा नहीं है। यहा पिछड़े वर्गों के उद्धार के निर्देश हैं, लेकिन पिछड़े वर्गों की परिभाषा नहीं है। अल्पसंख्यकों के लिए तमाम सुविधाएं हैं, लेकिन अल्पसंख्यक की व्याख्या नहीं है। यह राष्ट्रपति का अधिकार है कि किस वर्ग को जाति/जनजाति घोषित करना है। संसद विधि द्वारा इस सूची का पुनरीक्षण कर सकती है।
पिछड़े वर्गों की दशाओं के अन्वेषण के लिए आयोग बनाने का अधिकार भी केंद्र के पास है, लेकिन संविधान मौन है कि पिछड़े वर्ग कौन से हैं? यहा ‘सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े’ शब्द ही आधारभूत हैं। सामान्यतया पिछड़े वगरें का अर्थ पिछड़ी जाति से ही लिया जाता है। अनुसूचित जातियों की ही तरह पिछड़ी जातियों का भी बड़ा वर्ग सहज सामाजिक न्याय नहीं पाता। इस वर्ग के बीच शैक्षणिक पिछड़ापन भी है। स्थानीय निकायों आदि में पिछड़े वगरें के आरक्षण के लिए उत्तर प्रदेश सहित अनेक राज्यों ने पिछड़ी जाति को आधार बनाया है, राजकीय सेवाओं में जातिगत आरक्षण है, लेकिन देश के पास पिछड़ी जातियों की कोई अधिकृत गणना-संख्या नहीं है।
भारत की जनगणना-2011 का काम शुरू हो चुका है। मंडल आयोग ने अंग्रेजों द्वारा 1931 में कराई गई जनगणना को आधार बनाकर ही पिछड़ी जातियों को 52 प्रतिशत माना था। इस आकड़े को लेकर तमाम विरोध हुए थे। केंद्र ने सन 2007 में आईआईटी और आईआईएम में आरक्षण के मसले पर सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि पिछड़े वर्गों के बारे में सरकार के पास कोई वास्तविक आंकड़ा नहीं है। अब नई जनगणना के दौरान सुप्रीम कोर्ट से पिछड़ी जातियों की गणना का अनुरोध किया गया है। कोर्ट ने केंद्र से पूछा है कि क्या जाति आधारित जनगणना संभव है? पश्चिम बंगाल सरकार सहित अनेक संगठनों ने भी जाति आधारित जनगणना की मांग की है। ताजा जनगणना अतिमहत्वाकांक्षी योजना है। इसमें जनगणना के साथ एक राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर भी बनेगा और हर नागरिक को एक पहचान नंबर दिया जाएगा।
जनगणना में अनुसूचित जाति/जनजाति की गणना की व्यवस्था है, लेकिन पिछड़ी जातियों की गणना का प्रावधान नहीं है। मूलभूत प्रश्न है कि जातिया क्यों गिनी जाएं? जाति भारतीय समाज का यथार्थ है, राजनीति का अर्थार्थ है, राष्ट्र-राज्य द्वारा प्रदत्त सुविधाओं, रक्षोपायों और विशेष अवसरों का असली मानक है। अनुसूचित जाति-जनजाति घोषित करने के प्रावधान हैं। उन्हें जाति के कारण कतिपय सुविधाएं हैं। पिछड़े वर्गों की खोज में हर दफा जाति को ही आधार बनाया गया है। जाति की वास्तविकता से मुंह छुपाना पाखंड के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। राजनीतिक दलतंत्र के पदाधिकारी जाति देखकर तय होते हैं। संसद-विधानसभा के टिकट जाति देखकर दिए जाते हैं। जाति सच्चाई है। जाति तोड़ने का काम भी जाति विश्लेषण से ही संभव होगा।
राजनीति और राजकाज ने जाति तत्व को मजबूत किया है, उसे लगातार सब्सिडी दी है। उसे पाला-पोसा है। सो जाति पहले से ज्यादा मजबूत होकर सामने है। संसद तय करे कि क्या जाति आधारित सुविधाओं की कोई अंतिम तिथि संभव है? जाहिर है कि संसदीय राजनीति ऐसी कोई तिथि तय नहीं कर सकती।
पिछड़े वर्गों की पहचान और परिभाषा आसान नहीं है। संविधान निर्माताओं ने यह काम कार्यपालिका को सौंपा। केंद्र ने 1953 में काका कालेकर आयोग को काम सौंपा कि ‘वह कौन सा परीक्षण होगा जिसके द्वारा किसी वर्ग या समूह को पिछड़ा कहा जा सकता है। उनकी दिक्कतें और स्थिति सुधारने के उपाय बताए।’ 1955 में सौंपी गई यह रिपोर्ट अस्पष्ट और अव्यवहारिक बताई गई। फिर मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1980 में दी। उसने जातियों को ही आधार बनाया। रिपोर्ट सर्वसम्मत नहीं थी।
मंडल ने राष्ट्रपति को लिखा, हम सर्वसम्मति से रिपोर्ट देने वाले थे कि एक सदस्य एलआर नायक ने विरोध दर्ज करवाया कि नायक पिछड़ी जातियों में एक अगड़ा वर्ग भी देख रहे थे। उन्होंने लिखा, ‘बड़ी मछली छोटी को खा जाती है, यही भारतीय जाति समाज का सच है।’ मंडल ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, ‘कोई संदेह नहीं कि पिछड़ों के आरक्षण और कल्याण योजनाओं का व्यापक हिस्सा पिछड़ों में अगड़ा समूह मार लेगा पर यह क्या दुनिया का दस्तूर नहीं है? यह आरक्षण नौकरियों में सवर्णों के आधिपत्य को कम करेगा।’ यहां सवर्णों के आधिपत्य को नष्ट करना ही मुख्य उद्देश्य है, लेकिन अनेक सवर्ण भी आर्थिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हैं।
केंद्र ने 1990 में पिछड़ी जातियों को 27 फीसदी आरक्षण की घोषणा की। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। इंदिरा साहनी वाद के नाम से विख्यात इस मामले में न्यायालय ने कहा, ‘संविधान में पिछड़े वर्ग की कोई परिभाषा नहीं है। जाति, जीविका, निर्धनता और सामाजिक पिछड़ेपन का निकट संबंध है। भारत के संदर्भ में निचली जातियों को पिछड़ा माना जाता है। जाति अपने आप पिछड़ा वर्ग हो सकती है।’ न्यायालय ने पिछड़े वर्गों (या जातियों) से लोगों को बाहर करने के लिए आय की सीमा तय करने वाली एक नई बात भी जोड़ी।
कहा गया कि अगड़ेपन की माप के लिए आय या संपत्ति को मापदंड बनाया जा सकता है और इसी के जरिए किसी भी जाति की ‘मलाईदार परत’ को अलग किया जा सकता है। न्यायालय ने वास्तविक वंचितों व पिछड़ों को लाभ पहुंचाने के लिए सरकार को शक्ति दी, लेकिन मलाई मार रहे मार चुके लोगों को पिछड़े वर्गों से बाहर करने के निर्देश भी दिए। सरकारों ने ‘मलाईदार परत’ के अपने मानक बनाए।
दरअसल, वास्तविक वंचित अपने ही वर्ग के मलाईदार अगड़ों के कारण पिछड़े हैं। जाति आधारित जनगणना में सभी पिछड़ी जातियो की संख्या होगी। मलाईदार परत बाहर करना जनगणना विभाग का काम नहीं है। सरकारें इस जनगणना का सदुपयोग कैसे करेंगी? बेशक राजनीति इसी संख्या को आधार बनाकर नए आरक्षण की मांग करेगी। जनगणना 2011 में जाति आधारित गणना के अलावा और भी चुनौतियां हैं। पूर्वोत्तर के कई राज्यों में लाखों अवैध नागरिक हैं। बाग्लादेशी घुसपैठिए पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश तक मौजूद हैं। लाखों घुसपैठिये मतदाता सूची में हैं।
2001 की जनगणना ने चौंकाऊ नतीजे दिए थे। 1991 की तुलना में 2001 में हिंदुओं की वृद्धि दर 25 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत हो गई। मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि 34.55 से बढ़कर लगभग 36 प्रतिशत हो गई थी। उत्तर प्रदेश के 18 व बिहार के 10 जिलों में मुस्लिम आबादी में रिकार्ड बढ़त पाई गई थी। अतिमहत्वाकाक्षी यह जनगणना बाग्लादेशी घुसपैठियों, अवैध नागरिकों को अपनी गिनती से कैसे बाहर करेगी?
जनगणना के दौरान आने वाली बुनियादी दिक्कतों से बचने का कोई मजबूत तंत्र केंद्र ने नहीं बनाया। पिछड़ी जातियों की जनगणना का विषय सुप्रीम कोर्ट में है। अवैध नागरिकों को न गिनने और देश से बाहर करने की चुनौती है ही। सही जनगणना की कामयाबी संदिग्ध है। महत्वाकाक्षा ही काफी नहीं होती, इसके साथ राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी जरूरत होती है। केंद्र के पास उसी का अभाव है।
Source: Jagran Yahoo
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