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नए दशक की नीरस शुरुआत

संपादकीय ब्लॉग
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किसी समस्या पर रह-रहकर चर्चा होते रहने के बावजूद यदि उसका समाधान नहीं होता तो फिर वह अनसुलझी तो रहती ही है, उस पर होने वाली चर्चा भी नीरस और अंतत: महत्वहीन हो जाती है। आज महंगाई और उस पर होने वाली चर्चा की कुछ ऐसी ही स्थिति है। जो लोग अभी भी यह मानते हैं कि बढ़ती महंगाई के लिए मनमोहन सरकार का कोई दोष नहीं और यह तो परिस्थितियों मात्र की देन है उन्हें या तो अपने पूर्व जन्म के कर्मो को कोसना चाहिए या फिर इस प्रश्न पर विचार करने के लिए तैयार रहना चाहिए कि मई 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को फिर से सत्ता में लाने की गलती तो नहीं की? ऐसा इसलिए, क्योंकि संप्रग सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में पहले कार्यकाल से भी बुरा प्रदर्शन कर रही है। इस पर गौर किया जाना चाहिए कि ऐसा तब है जब वाम दलों जैसा कोई घटक उसे परेशान करने की स्थिति में नहीं है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि मई 2009 में आम चुनाव के समय विपक्ष नाकारा था और उसने सत्तापक्ष की खामियों को उजागर करने में भी नाकारापन दिखाया, लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि सत्तापक्ष यानी मनमोहन सरकार सत्ता में वापसी के लिए आवश्यक योग्यताओं से लैस थी। पिछली बार तो संप्रग सरकार के पास कहने के लिए यह बहाना था कि उसकी असफलताओं के लिए वाम दल जिम्मेदार हैं, लेकिन इस बार तो उसके पास कोई बहाना नहीं। यह भी ध्यान रहे कि इस सरकार को बहाने बनाने की जरूरत अभी से पड़ने लगी है। महंगाई के संदर्भ में ताजा बहाना यह है कि इसके लिए राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं। इस पर सुनिश्चित हुआ जा सकता है कि शरद पवार के इस दावे में कोई दम नहीं कि अगले कुछ दिनों में आवश्यक वस्तुओं के दाम गिरेंगे। यदि किसी अप्रत्याशित घटनाक्रम के तहत आटा-दाल, चीनी-चावल के दाम कम भी हो जाएं तो भी महंगाई से निजात मिलने वाली नहीं, क्योंकि पिछले डेढ़-दो वर्षो में दैनिक आवश्यकता की सभी वस्तुओं के दाम बढ़ गए हैं। इस पर भी नाउम्मीद रहने में ही समझदारी है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह महंगाई को लेकर मुख्यमंत्रियों का जो सम्मेलन बुलाने जा रहे हैं उससे आम जनता को कुछ हासिल होगा, क्योंकि राज्य सरकारें पहले से ही केंद्र के इस आक्षेप से कुपित हैं कि महंगाई बढ़ने के लिए वे जिम्मेदार हैं।

केंद्र सरकार के इस आक्षेप का सीधा मतलब यह भी है कि उसकी बात कांग्रेस शासित राज्य सरकारें भी नहीं सुन रही हैं। यदि महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा आदि राज्यों में चीनी-चावल, आटा-दाल उत्तार प्रदेश, बिहार, बंगाल, पंजाब आदि राज्यों के मुकाबले सस्ता नहीं है तो इसके दो ही अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि केंद्र सरकार झूठ का सहारा ले रही है और दूसरा यह कि कांग्रेसी मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निर्देशों को ताक पर रख रहे हैं। यदि केंद्र की इस दलील में दम होता कि महंगाई पर राज्य सरकारें सचेत नहीं तो प्रधानमंत्री की नाक के नीचे यानी दिल्ली में पीली मटर दाल की खूबियों के गुण नहीं गाए जा रहे होते। यह आम जनता से किया जाने वाला एक तरह का छल है कि उससे यह कहा जा रहा है कि जागरूक ग्राहकों, पीली मटर की दाल खाने में समझदारी है। इस सरकार से पूछा जाना चाहिए कि यदि अरहर दाल का विकल्प मटर की दाल है तो चीनी का विकल्प क्या है? क्षोभजनक यह नहीं है कि पिछले दो वर्षो से महंगाई थमने का नाम नहीं ले रही है, बल्कि यह है कि उसे थामने के लिए प्रयास तो दूर रहे, उसकी चिंता भी नहीं की जा रही।

यदि कोई यह सोच रहा है कि संप्रग सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में कृषि उपज बढ़ाने और किसानों की समस्याओं का समाधान करने के लिए कुछ करेगी तो यह दिवास्वप्न देखने जैसा है। आखिर जो सरकार कृषि उपज की घटत-बढ़त का अनुमान लगाने तक की जरूरत भी नहीं समझ रही वह कृषि-किसानों की चिंता क्यों करेगी? वैसे भी उसकी चिंता का एकमात्र विषय यह है कि उद्योग जगत को राहत पैकेज देना जारी रखा जाए या नहीं? इसमें दो राय नहीं कि मनमोहन सरकार के समक्ष कहीं कोई राजनीतिक चुनौती नहीं है, लेकिन इसमें भी संदेह नहीं है कि यह सरकार साहसिक फैसले लेने और लीक से हटकर चलने में समर्थ नहीं। किसी समस्या के गंभीर होने के बाद उसके अस्तित्व से अवगत होने की प्रतीति कराने वाली केंद्रीय सत्ता हर संकट का समाधान समितियों के माध्यम से करने में महारत हासिल कर चुकी है। यह एक ऐसी सरकार है जो आग लगने पर कुआं खोदने का उपक्रम तो करती है, लेकिन इसकी परवाह नहीं करती कि उससे पानी भी निकले। मनमोहन सिंह ने पहली बार प्रधानमंत्री बनने पर विक्टर ह्यूंगो की इस चर्चित उक्ति का उल्लेख किया था कि जिस विचार के अमल का समय आ गया हो उसे कोई नहीं रोक सकता, लेकिन न तो उनकी सरकार के पहले कार्यकाल में इसकी प्रतीति हुई कि भारत के भविष्य को संवारने का समय आ गया है और न दूसरे कार्यकाल में हो रही है। मनमोहन सिंह सरकार के तौर-तरीके ऐसे हैं कि यदि वह अगले दस-बीस साल तक सत्ता में बनी रहे तो भी देश के विकसित राष्ट्र बनने का सपना साकार नहीं हो सकता, जबकि देश-दुनिया के विशेषज्ञ इस बात पर एकमत हैं कि भारत के भविष्य के लिहाज से मौजूदा दशक महत्वपूर्ण है। इस दशक की जैसी निराशाजनक शुरुआत हो रही है उसके लिए एक हद तक मनमोहन सरकार ही उत्तारदायी है। सदाबहार समस्या महंगाई के साथ-साथ कश्मीर की घटनाएं, आस्ट्रेलिया का घटनाक्रम, तेलंगाना समस्या, रेल दुर्घटनाएं, पाकिस्तान, नेपाल, चीन के तेवर और न्यायपालिका के समक्ष उपस्थित प्रश्न आदि मिलकर कोई खुशनुमा अहसास नहीं करा पा रहे हैं तो इसके लिए मौसम को दोष नहीं दिया जाना चाहिए।

[राजीव सचान : लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]

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